सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन “अज्ञेय” के जयंती पर उनको याद करने के बहाने - एक समर्पण।
“बहुत शौक से सुन रहा था जमाना,
और तुम सो गए दाँसता कहते-कहते।।“
उनकी निम्नलिखित कविता को पढ़िए और अपनी टिप्प्णी देकर श्रद्धा-सुमन अर्पित कीजिए।
फूल की स्मरण-प्रतिमा
यह देने का अहंकार
छोड़ो।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो:
‘मधुर,ये देखो
फूल। इसे तोड़ो:
फिर हाथ से गिर जाने दो:
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल।‘
फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।
तुम नही।न तुम्हारा दान।
देने का अहंकार खाता है हमें।
ReplyDeleteफूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।
ReplyDeleteतुम नही।न तुम्हारा दान।
बहुत प्रेरक पंक्तियाँ...अज्ञेय की रचना से परिचय कराने के लिए आभार..
मैंने अज्ञेय को स्नातक में पढ़ा था..एक बार पुन: याद आ गई उन दिनों की..
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता पढवाई आपने।
ReplyDeleteस.ही.वा.अज्ञेय के चरणों में श्रद्धा सुमन!!
ReplyDelete"फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।"
ReplyDeleteअज्ञेय जी की रचना से परिचय कराने के लिए आभार. अच्छा लगा ये प्रस्तुती पढ़कर
अज्ञेय जी की रचनायें पढवाने के लिए आभार।
ReplyDeleteप्रस्तुति अच्छी लगी, वैसे मुझे अज्ञेय जी के निबंध विशेष प्रिय हैं.
ReplyDeleteआदरणीय प्रेम सरोवर जी
ReplyDeleteनमस्कार !
..........अज्ञेय जी की रचनायें पढवाने के लिए आभार।
फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |
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