Sunday, January 23, 2011

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन “अज्ञेय” के जयंती पर उनको याद करने के बहाने - एक समर्पण।
“बहुत शौक से सुन रहा था जमाना,
और तुम सो गए दाँसता कहते-कहते।।


उनकी निम्नलिखित कविता को पढ़िए और अपनी टिप्प्णी देकर श्रद्धा-सुमन अर्पित कीजिए।

फूल की स्मरण-प्रतिमा

यह देने का अहंकार
छोड़ो।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो:
‘मधुर,ये देखो
फूल। इसे तोड़ो:
फिर हाथ से गिर जाने दो:
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल।‘

फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।
तुम नही।न तुम्हारा दान।

10 comments:

  1. देने का अहंकार खाता है हमें।

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  2. फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।
    तुम नही।न तुम्हारा दान।

    बहुत प्रेरक पंक्तियाँ...अज्ञेय की रचना से परिचय कराने के लिए आभार..

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  3. मैंने अज्ञेय को स्नातक में पढ़ा था..एक बार पुन: याद आ गई उन दिनों की..

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  4. बहुत अच्छी कविता पढवाई आपने।

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  5. स.ही.वा.अज्ञेय के चरणों में श्रद्धा सुमन!!

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  6. "फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।"
    अज्ञेय जी की रचना से परिचय कराने के लिए आभार. अच्छा लगा ये प्रस्तुती पढ़कर

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  7. अज्ञेय जी की रचनायें पढवाने के लिए आभार।

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  8. प्रस्‍तुति अच्‍छी लगी, वैसे मुझे अज्ञेय जी के निबंध विशेष प्रिय हैं.

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  9. आदरणीय प्रेम सरोवर जी
    नमस्कार !
    ..........अज्ञेय जी की रचनायें पढवाने के लिए आभार।

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  10. फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |

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