मेरे चिंतन फ्रेम में समय सरगम
कृष्णा सोबती जी का उपन्यास जिंदगीनामा, डार से बिछुड़ी एवं मित्रों मरजानी पढ़ने के बाद एक बार इनका उपन्यास समय सरगम पढ़ने का अवसर मिला था एवं जो कुछ भी भाव मेरे मन में समा पाए उन्हे आप सबके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। इस उपन्यास में उठे कुछ प्रश्नों की पृष्ठभूमि में यह कहना चाहूंगा कि आँचल में दूध और आँखों मे ‘पानी’ लेकर स्त्री ने मातृत्व की महानता के बहुत परचम गाड़े पर जल्द ही उसे समझ आ गया कि यह केवल समाज को गतिमान रखने की प्रक्रिया है। महानता से इसका कोई लेना देना नही है। आज नई पीढ़ी के बच्चे आत्मनिर्भर होते ही माँ-बाप की जरूरत को महसूस नही करते। मातृ ऋण, पितृ ऋण चुकाने की झंझट में न पड़कर आत्म ऋण से सजग होकर वाद-विवाद करके माँ-बाप से पल्ला झाड़ लेते हैं। पैदा होने का अधिकार माँगते हैं। नई पीढ़ी के युवाओं का यह अतिप्रश्न मुझे उषा प्रियंवदा जी की कहानी “वापसी” के नायकगजाधर बाबू की मन;स्थितियों की बरबस ही याद दिला देती है, जब वे अपने अतीत को याद करते हुए डूबती और डबडबाती आँखों में आँसू लिए अपने ही घर से पराए होकर एक दूसरी दुनिया में पदार्पण करने के लिए बाहर निकल पड़ते हैं। इस पोस्ट के माध्यम से नई पीढ़ी के युवाओं से मेरा अनुरोध है कि वे कुछ इस तरह का संकल्प लें एवं आत्ममंथन करें कि किसी भी बाप को गजाधर बाबू न बनना पड़े अन्यथा उनकी भी वही हाल होगी जो गजाधर बाबू के साथ हुई थी। - प्रेम सागर सिंह
मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया यानि एक थी आजादी और एक था विभाजन । मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ अपनी लड़ाई नही लड़ता और न ही सिर्फ अपने दु:ख दर्द और खुशी का लेखा जोखा पेश करता है। लेखक को उगना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ. इतिहास के फ़ैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैने देखा जो मैने जिया वही मैंने लिखा “ज़िंदगीनामा”, “दिलोदानिश”, “मित्रो मरजानी”, “समय सरगम”, “यारों के यार” में। सभी कृतियों के रंग अलग हैं । कहीं दोहराव नहीं। सोचती हूँ कि क्या मैंने कोई लड़ाई लड़ी है? तो पाती हूँ लड़ी भी और नहीं भी। लेखकों की दुनिया भी पुरूषों की दुनिया है लेकिन जब मैंने लिखना शुरू किया तो छपा भी और पढ़ा भी गया। ये लड़ाई तो मैंने बिना लड़े ही जीत ली। कोई आंदोलन नहीं चलाया लेकिन संघर्षों की, संबंधों की,ख़ामोश भावनाओं की राख में दबी चिंगारियों को उभारा उन्हें हवा दी, ज़ुँबा दी ।. “- कृष्णा सोबती
हिंदी कथा साहित्य में चेतना संपन्न कई उपन्यासों की रचना हुई है, इसमें कृष्णा सोबती का नाम भी प्रसिद्धि प्राप्त है। एक नारी होने के नाते उन्होंने नारी मन को सही ढंग से समझाया है। अपने अनुभव जगत को रेखांकित करती वह अध्यात्मक तक पहुँची है। उनके साहित्य में जीवन की सच्चाई है। भारतीय सहित्य के परिदृश्य पर हिंदी के विश्वसनीय उपस्थिति के साथ वह अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुधरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने अब तक नौ उपन्यासों की रचना की है, इनमें समय सरगम वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ। कृष्णा सोबती जी की यह विशेषता है कि वह हर बार एक नया विषय और भाषिक मिजाज लेकर आती है। उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में “समय सरगम ” एकदम हटकर है। पुरानी और नई सदी के दो छोरों को समेटता प्रस्तुत उपन्यास जीए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा, उपजा एक अनूठा उपन्यास है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की बुजुर्ग पीढियों का एक साथ नया पुराना आलदान और प्रत्याखान भी है। परंपरा और आधुनिकता का समन्वय ही समय सरगम है। हमे यह बात स्पष्ट पता है कि परंपरा ही हमें वह छत उपलब्ध कराती है जो हर वर्षा, धूप, जाड़े तूफान से रक्षा करती है और आधुनिकता वह सीमाहीन आकाश है जहां मनुष्य स्वच्छंद भाव से उड़ान भरता है और अपने ‘स्व’ का लोहा मनवाता है। अब स्त्रियां परंपरा रक्षित उस घर में कैद रहना नही चाहती हैं जो उनके सुरक्षा के नाम पर बंदी बनाता है। इसीलिए द्वंद्व की यह स्थिति उत्पन्न होती है। उन्होंने “समय सरगम” लिखकर उल्लेखित द्वंद्व की स्थिति का समाधान किया है। इस उपन्यास में आरण्या प्रमुख नारी पात्र है। वह पेशे से लेखिका है। उपन्यास के लगभग सभी पात्र जीवन के अंतिम दौर से गुजर रहे हैं। जीवन की सांध्य-वेला में मृत्यु, भय तथा पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा को महसूस करते इन पात्रों में उदासी, अकेलापन, अविश्वास घर करते जा रहा है, ऐसे में आरण्या ही एकमात्र पात्र है, जो मृत्यु भय को भुलाकर जीवन के प्रति गहरी आस्था के लिए जी रही है। उनका विवाहित और अकेले रहने का फैसला इस उम्र में उसकी समस्या नही बल्कि स्वतंत्रता है। आज की नारी केवल माँ बनकर संतुष्ट नही है वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की भाँति स्वयं को प्रतिष्ठित करना चाहती है। आरण्या ने परंपरा को चुनौती दी है। आज तक के हमारे साहित्य, धर्म, दर्शन में मातृत्व का इतना बढ-चढ कर वर्णन हुआ है कि मातृत्व प्राप्त स्त्री देवी के समान पवित्र एवं पूजनीय मानी जाती है। जितना उसका स्थान ऊंचा, पवित्र एवं वंदनीय है उतना ही अन्य रूप तिरस्कृत भी है।
उपन्यास मे आरण्या जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़ी एक ऐसी स्त्री है जो नाती पोतों के गुंजार से अलग एकाकी होने के एहसास को जी रही है पर उसमें अकेलेपन की व्यथा नही है, जीवन को भरपूर जीने का संदेश है। घर परिवार के लिए होम होती रहने वाली आलोच्य उपन्यास की दमयंती और कैरियर के लिए परिवार के झंझट से दूर रहने वाली कामिनी, दोनों का एक जैसा त्रासद अंत इस तथ्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि उद्देश्य की प्रधानता के साथ मानव अस्तित्व की कोई और भी सार्थकता है। आरण्या ने अन्य स्त्रियों के माध्यम से इस बात का अनुभव किया है। वह अपने व्यक्तित्व की पुनर्रचना करती जिंदगी के हर पल को जीना चाहती है दुख, दर्द एवं पीड़ा से वह दूर रहना चाहती है। इस उपन्यास के सभी पात्र मृत्यु भय से इतने अधिक त्रस्त हैं कि अनजाने ही मृत्यु को भोग रहे हैं। इन सबकी सोच, व्यवहार, प्रत्येक क्रिया कलाप के मूल में कहीं न कहीं मृत्यु भय है। इस उपन्यास में लेखिका ने नायक की अवधारणा को बदला है। नायक कभी-कभी खलनायक लगने लगता है। समाज की स्थिति में जबरदस्त परिवर्तन ने साहित्य में भी परिवर्तन कर दिया है। साहित्य में पुरूष जब तक महिमामंडित था,मानवीय गरिमा से संयुक्त था परंतु स्त्री को तमाम अतींद्रिय शक्तियों को खोना पड़ा है। वह शासित और प्रताड़ित महसूस करने लगी है। आरण्या का व्यक्तित्व जिस तरह उपन्यास में खुलकर सामने आया है, उसकी आजादी, स्वतंत्रता एवं मुक्त जीवन के कई उदाहरणों को स्पष्ट करता है। ये सारे उदाहरण सिर्फ आरण्या के जिंदगी के नही बल्कि वर्तमान स्त्री जीवन की अस्मिता एवं उसकी सामाजिक रूझान की क्षमता को प्रकट करते हैं। इस उपन्यास आरण्या और ईशान ऐसे ही चरित्र हैं, जो एक उम्र जी चुके हैं। लेखिका ने बुजुर्गों की कथा के माध्यम से जीवन के अंतिम छोर पर जी रहे लोगों की उलझनों, मानसिक द्वंद्वों, जीवन-शैली, मृत्युमय आदि कई विषयों पर दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही नारी जीवन की बदलती सोच एवं अपने अधिकारों के प्रति सजगता को भी रेखांकित किया है। सार संक्षेप यह है कि इस उपन्यास में सोबती जी ने स्त्री चरित्र की नई भाषिक सृष्टि के आयाम को एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में अपने मनोभावों के आयाम को विस्त़ृत करने का जोरदार प्रयास किया है।
जन्म- 18 फरवरी, 1925, पंजाब के शहर गुजरात में (अब पाकिस्तान में)
पचास के दशक से लेखन, पहली कहानी 'लामा' 1950 में प्रकाशित
पचास के दशक से लेखन, पहली कहानी 'लामा' 1950 में प्रकाशित
मुख्य कृतियाँ-- डार से बिछुड़ी, ज़िंदगीनामा, ए लड़की, मित्रो मरजानी, हमहशमत, दिलो दानिश, समय सरगम.
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।
( www.premsarowar.blogspot.com)
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