मेरे उस दिन न होने पर भी मेरी कविताएं तो होंगी! गीत होंगे ! सूरज की ओर मुंह किए खडा कनैल का झाड़ तो होगा!
Friday, November 25, 2011
Tuesday, November 15, 2011
नकेनवाद के जनक :नलिन विलोचन शर्मा
नकेनवाद के जनक : नलिन विलोचन शर्मा
(1916-1960 ई.)
आधुनिक हिन्दी कविता में 'नकेनवाद के जनक नलिन विलोचन शर्मा का जन्म पटना में हुआ । इन्होंने हिन्दी एवं संस्कृत में एम.ए. करके पहले आरा, पटना, रांची में अध्यापन कार्य किया, पश्चात पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष हुए तथा अंत तक वहीं रहे । 'दृष्टिकोण (आलोचना), 'मानदण्ड (निबंध संग्रह), 'विष के दांत (कहानी संग्रह) तथा 'साहित्य का इतिहास दर्शन इनकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं । इन्होंने 'साहित्य, 'दृष्टिकोण और 'कविता पत्रिकाओं तथा कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का सम्पादन किया । इनका कविता संग्रह 'नकेन’ के प्रपद्य है, जिसमें भावों को व्यक्त करने का एक नया ही तरीका अपनाया गया । प्रस्तुत है उनकी एक कविता – ‘एक नापसंद जगह”
एक नापसंद जगह
एक दिन यहां मैंने एक कविता लिखी थी,
यहां जहां रहना मुझे नापसंद था।
और रहने भेज दिया था।
जगह वह भी, जहां रहना अच्छा लगता है
और रहता गया हूँ,
वहां शायद ही हो कि कविता कभी लिखी हो।
आज फिर इस नापसंद जगह
डाल से टूटे पत्ते की तरह
मारा-मारा आया हूँ,
और यह कविता लिख गई है,
इस जगह का मैं कृतज्ञ हूँ,
इस मिट्टी को सर लगाता हूँ,
इसे प्यार नहीं करता, पर
बहुत-बहुत देता हूँ आदर,
यह तीर्थ-स्थल है, जहां
मैं मुसाफिर ही रहा,
यह वतन नहीं,
जहां जड और चोटी
गडी हुई,
जो कविता की प्रेरणाओं से अधिक महत्व की बात है।
यहां मैं दो बार मर चुका हूँ-
एक दिन तब जब पहली कविता
यहां लिखी थी,
और दूसरे आज जब इस कविता
की याद में कविता
लिख रहा हूँ-
घर के शहर में जीता रहा हूँ
और मरने के बाद भी
जीता रंगा : एक लाकेट में कैद,
किसी दीवार पर टंगा चित्रार्पित,
एक स्मृति-पट पर रक्षित अदृश्य
अमिट।
लेकिन यहां से कुछ ले जाऊंगा,
कुछ तो पा ही
चुका हूँ : दो-दो कविताएं,
दिया कुछ नहीं है, देना कुछ नहीं,
सिवा इसके-
मेरे प्रणाम तुम्हें,
इन्हें ले लो, इन्हें।
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Sunday, November 6, 2011
बच्चन जी नही खरीद सके दशद्वार
बच्चन जी नहीं खरीद सके 'दशद्वार'
(दसद्वार से सोपान एवं फिर प्रतीक्षा तक का सफर)
(हरिवंश राय बच्चन )
(जन्म-27 नवम्बर,1907, निधन-18जनवरी,2003)
‘मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
शत्रु मेरा बन गया है, छल रहित व्यवहार मेरा’
27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद में जन्मे हरिवंश राय बच्चन ने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएच.डी. किया। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया और बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे । राज्यसभा के मनोनीत सदस्य के रूप में भी आपने दायित्व निर्वाह किया । हालावाद के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ के रूप में बच्चन जी सदैव याद किये जाएंगे। “मधुशाला” जैसी अमर कृति के इस रचयिता को अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। गीतों के इस सौदागर के गीतों में दर्शन, प्रेम और आध्यात्म सहज ही झलक उठते हैं। ‘निशा-निमंत्रण’, ‘प्रणय पत्रिका’, ‘मधुकलश’, ‘एकांत संगीत’, ‘सतरंगिनी’, ‘मिलन यामिनी’, ”बुद्ध और नाचघर’, ‘त्रिभंगिमा’, ‘आरती और अंगारे’, ‘जाल समेटा’, ‘आकुल अंतर’ तथा ‘सूत की माला’ नामक संग्रहों में आपकी रचनाएँ संकलित हैं। आपकी कृति ‘दो चट्टाने’ को 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मनित किया गया। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो-एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। आपकी आत्मकथा चार भागों में प्रकाशित हुई है। बिड़ला फाउन्डेशन ने इस आत्मकथा के लिये आपको सरस्वती सम्मान दिया। सहजता और संवेदनशीलता उनकी कविता का एक विशेष गुण है। यह सहजता और सरल संवेदना कवि की अनुभूति मूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी। बच्चन जी ने बडे साहस, धैर्य और सच्चाई के साथ सीधी-सादी भाषा और शैली में सहज कल्पनाशीलता और जीवन्त बिम्बों से सजाकर सँवारकर अनूठे गीत हिन्दी को दिए। 18 जनवरी सन् 2003 को मुम्बई में आपका निधन हो गया। इलाहाबाद के सिविल लाइंस के 17 क्लाइव रोड वाले भव्य मकान में हालावाद के प्रवर्तक डॉ. हरिवंश राय बच्चन बतौर किरायेदार लंबे समय तक रहे और इसे अपना स्थायी आशियाना बनाने की उनकी दिली तमन्ना थी लेकिन उस मकान को खरीदने की उनकी ख्वाहिश कभी पूरी न हो सकी। हरिवंश राय बच्चन के शिष्य और उनको करीब से जानने वाले अजीत कुमार ने बताया कि बच्चन जी की इच्छा के चलते अमिताभ भी इलाहाबाद में सिविल लाइंस के 17 क्लाइव रोड़ वाले मकान को खरीदना चाहते थे और कहीं न कहीं इस मकान को संग्रहालय में तब्दील कराने की इच्छा रखते थे। इस मकान में बच्चन जी ने इलाहाबाद प्रवास के दौरान अपना समय गुजारा था और इसके साथ उनकी तमाम मधुर स्मृतियाँ जुड़ी थीं। शायद यही एक प्रमुख कारण रहा होगा जिसकी वजह से वह इसे खरीदना चाहते थे। इस मकान का निर्माण इलाहाबाद संग्रहालय में कार्यरत ब्रजमोहन व्यास ने कराया था, जिसे बाद में श्रीशंकर तिवारी ने खरीद लिया और इस वक्त इसका मालिकाना हक उनके वंशजों के पास है। बच्चन ने अपनी आत्मकथा के चौथे खंड ‘दशद्वार से सोपान तक’ में लिखा है, ‘दशद्वार’ और ‘सोपान’ दो घरों के नाम हैं। इलाहाबाद के क्लाइव रोड वाले मकान को दशद्वार नाम दिया, क्योंकि यह मकान रोशनी वाला और हवादार था। इसमें दस दस खुली जगह थी, जिनसे रोशनी और हवा अंदर आती है। ‘क्या कबीर के दोहे ‘दसद्वारे पिंजरा तामे पंछी पौन। रहबे को अचरज है जाए तो अचरज कौन।।’ को ध्यान में रखकर इसका निर्माण किया गया था। मौत प्राय: अचरज में डाल देती है । अचरज करने की चीज तो जिंदगी है।’ हरिवंश राय बच्चन स्वयं का परिचय इन पंक्तियों से कराते थे, ‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन, मेरा परिचय।’ बच्चन ने लिखा है, ‘एक दफा जब वह व्यास जी से मिले तो उन्हें अपनी सूझ बताई। उन्होंने कहा, ‘क्या खूब पकड़ा है।’ इस मकान को उन्होंने अपनी पत्नी ललिता के नाम पर ललिताश्रम नाम दिया था।’ उन्होंने आगे लिखा है कि दिल्ली के गुलमोहर पार्क के मकान का नाम उन्होंने ‘सोपान’ दिया है । जनता सरकार के कार्यकाल में जब बच्चनजी मुंबई चले गए और वहाँ की आबोहवा उन्हें रास नहीं आ रही थी। उसी दौरान उन्होंने क्लाइव रोड वाले मकान को खरीदने की इच्छा जाहिर की थी। यह कोई 70 के दशक का आखिर का दौर रहा होगा। लेकिन किन्हीं कारणों के चलते यह सौदा हो नहीं पाया । बच्चन जी के मकान मालिक रहे दिवंगत श्रीशंकर तिवारी ने भी एक दफा बताया था कि उन्होंने इस मकान को खरीदने की ख्वाहिश रखी थी और उस वक्त उन्होंने कहा था, ‘गुरूजी यह आपका मकान है, जब चाहे तब आइए और जब तक दिल करे इसमें रहिए, लेकिन मैं इसे बेचूँगा नहीं ।’
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