अपनी पीढ़ी को शब्द देना मामूली काम नही हैः केदार नाथ सिंह
आज मैं एक ऐसे कवि के बारे में कुछ कहने जा रहा हूँ जिनकी कविताएं साहित्य-जगत की अनमोल थाती सिद्ध होती जा रही हैं एवं उनके समकालीनों ने इसे स्वीकार्य भी किया है ।ऐसे ही एक कवि हैं केदारनाथ सिंह जिनकी लेखनी का जादू जिस पर चल गया, वह उन्ही का होकर रह गया। उन लोगों में से मैं भी एक हूँ जो उनकी रचनाओं के साथ जिया एवं उनके साथ अब तक जुड़ा रहा। कवि केदारनाथ को समझना एक बहुत बड़ी बात होगी क्योंकि उन्होंने वर्तमान युग के साहित्यकारों की पीढ़ी को अभिव्यक्ति के लिए शब्द दिया है। केदार नाथ सिंह के लिए कविता ठहरी हुई अथवा अपरिचित दान में मिली हुई जड़ वस्तु नही है। इसके ठीक युग के विपरीत समय का पीछा करती हुई, उनके अमानवीय चेहरे को बेनकाब करती एक जीवंत प्रक्रिया है। इसके अंतर्गत उनके शब्द अपना क्षितिज क्रमशः विस्तृत करते गए हैं। केदार नाथ सिंह समय के साथ लगातार जिरह करने वाले कवियों में रहे हैं। उनकी प्रत्येक कविता में भावों का गुंफन है, तीखी संवेदना है एवं एक जानी पहचानी आत्मीयता है जो कहीं न कहीं हमारे मन के संवेदनशील तारों को झंकृत कर जाती है। इसे ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत कर रहा हूँ उनकी एक कविता “पिछले साठ वर्षों से“ जो हमें उस हृदय-कुंज के बीते वासर के विवर में कुछ सोचने के लिए और थोड़ा झाँकने के लिए वाध्य कर देती है । आशा ही नही अपितु मेरा पूर्ण विश्वास है कि उनकी यह कविता उनकी अन्य कविताओं की तरह आपके कोमल मन में थोड़ी सी जगह सुरक्षित करने में सर्वभावेन एवं सर्वरूपेण अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल सिद्ध होगी। बंधुओं, नया साल-2012 आ रहा है, हम सबके लिए अंतहीन खुशियों का सौगात लेकर। नव वर्ष के लिए मैं उन तमाम ब्लॉगर बंधुओं को जो इस ब्लॉग के यात्रा में इस सफर के साथी रहे है, यदि मुझसे बडे़ हैं, तो उनको सादर प्रणाम एवं लघु जनों को नित्य प्रति का स्नेहाशीष । विधाता से मेरी कामना है कि आने वाला वर्ष आप सबको मनोवांछित फल प्रदान करने के साथ-साथ वो मुकाम एवं मंजिल तक भी पहुचाएं जहाँ तक पहुँचने के लिए आज तक आप अहर्निश प्रयासरत रहे हैं। इस थोड़े से सफर में जाने या अनजाने में मुझसे कोई त्रुटि हो गयी हो तो मैं आप सबसे क्षमा प्रार्थी हूँ । नव वर्ष-2012 के लिए मंगलमय एवं पुनीत भावनाओं के साथ ..आप सबका ही....... प्रेम सागर सिंह
पिछले साठ वर्षों से
पिछले साठ वर्षों से
एक सूई और धागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गए हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे गझिन और खुरदुरे
साठ बरस।
जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फटा हुआ कुर्ता हो ।
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