Monday, February 18, 2013

हिंदी के प्रति रागऔर विराग


राष्ट्रभाषा हिंदी और हमारी मानसिकता

                          

                     (प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह)


यह कैसी विडंबना है कि जब विदेशों में हिंदी को इक्कीसवीं सदी की भाषा की मान्यता मिल रही हो परंतु हम उदासीन हैं। स्वाधीनता के पूर्व संतों ने हिंदी में अपने भक्ति रस के गीतों के माध्यम से सारे देश को एक सूत्र में बाँधा। हिंदी का एक नया स्वरूप बनके दक्षिणी हिंदी नाम से प्रचारित हुआ। देश की आजादी की संघ्रर्ष करने की प्रेरणादायी भाषा हिंदी ही थी। देशभक्ति से परिपूर्ण नारे- चाहे अंग्रेजों भारत छोड़ो, साईमन कमीशन वापस जाओ, जय हिंद, दिल्ली चलो, वंदेमातरम, करो या मरो, इन्कलाब जिंदाबाद, आदि हिंदी में गूंज रहे थे। बंगला भाषी सुभाषचंद्र बोस ने सर्वोच्च प्रशासनिक आई.सी. एस की डिग्री त्यागकर विदेश में आजाद हिंद फौज का गठन किया। इसका सैन्य प्रयाण गीत- कदम कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की, कौम पे मिटाए जा - हिंदी में ही था। विदेश से भारतवासियों को रेडियो पर पहला संदेश भी हिंदी में ही नेताजी ने दिया था।

भारत की स्वतंत्रता मिलने के बाद जब संविधान का निर्माण हुआ, उसमें भी देश हित में दूरदर्शी अहिंदी भाषी नेताओं यथा संविधान निर्मात्री समिति मे मराठी भाषी विद्वान डॉ. भीमराव अंबेडकर आदि ने भी हिंदी भाषा को ही राजभाषा का पद प्रदान किया था। संविधान निर्मात्री समिति में तमिल भाषी विद्वान श्री गोपालस्वामी आयंगर ने भारत की राजभाषा हिंदी को बनाने का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से देश की एकता हेतु स्वीकार हुआ। इसका मुख्य करण था देश की अस्मिता को भाषा के माध्यम से ही एक सूत्र में रखा जा सकता है। अमर शहीद भगत सिंह ने भी सन 1924 में सशर्त पत्रिका में लिखा था कि बंगला भाषी, मराठी भाषी, तमिल भाषी और पजाबी भाषी किस भाषा में वार्ता करेंगे, क्या सात सुंद्र पार की भाषा अंग्रेजी में ! इसमे कहीं से भी क्या हिंदी में थोपने का आभास मिलता है!

इसके ठीक विपरीत अंग्रेजी परस्त लोगों ने अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय भाषा घोषित कर भाषाई दासता की और नया मोड़ दे दिया। उनसे जब प्रश्न किया जाता है कि क्या जापान, जर्मनी रूस, चीन फ्रांस आदि देशों ने बहुमुखी उन्नति अंग्रेजी भाषा से की है तो वे इसका सटीक उत्तर देने में असमर्थ होते हैं। अंग्रेजों की साम्राज्यवादी योजना के अतर्गत जिन देशों पर उनका आधिपत्य रहा उनमें अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व हो गया। वस्तुत: भारत ही एक ऐसा स्वाभिमानी राष्ट्र था जिसके विभिन्न भाषा-भाषी नेताओं ने इंग्लैंड में शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों को कभी भी प्राथमिकता नही दी।

देश के सर्वमान्य महात्मा गांधी इंग्लैंड से बैरिस्टर होने के बाद भी दशकों तक विदेशों में ही रहे। यह घटना सर्वविदित है कि जब स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त 1947 के एक दिन पूर्व बी.बी.सी लंदन के प्रतिनिधि ने देश के नाम संदेश देने हेतु बापू से कहा तो साक्षाक्तकार के लिए ऐतिहासिक संदेश में महात्मा गांधी ने कहा था कि–“अंग्रेजी वाला गांधी अब नही है। अंग्रेजी के मुठ्टी भर समर्थकों ने हिंदी की बोलियों से हिंदी को लड़ाने का एक षड़यंत्र रचा। अपनी भाषा हिंदी के स्थान पर उसकी विभिन्न बोलियों मैथिली, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली कन्नौज, मालवी आदि लिखाने को उकसाया जिससे जनगणना में हिंदी बोलने वालों की संख्या कम हो जाए। आज यह स्थिति है कि 1991 की जनगणना पर आधारित 90 करोड़ से अधिक की आबादी में भारत में अंग्रेजी को मातृभाषा बताने वाले मात्र 1 करोड़ 78 लाख हैं। सर्वाधिक रोचक बात है कि देश के लगभग आधे अंग्रेजी मातृभाषी लोग महाराष्ट्र प्रदेश में ही रहते हैं जबकि भारत की दक्षिण ओर समुद्र तट पर स्थित अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में देश के विभिन्न भाषा-भाषी निवास करते हैं जो अपने प्रांतों के लोगों से मिलने पर हिंदी में ही वार्ता करते हैं। अंग्रेजों के शासन काल में देशभक्तों को सर्वाधिक प्रताड़ि़त करने हेतु काला पानी दण्ड के रूप में होता था, तब सारे देश में लोग अंडमान आते थे। ।857 के बाद से सर्वाधिक देशभक्त हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के लोग ही वहाँ बंदी होने से सभी प्रादेशिक भाषा बोलने वाले भी हिंदी में परस्पर वार्ता करने लगे। स्वाधीनता के बाद अधिकांश सेल्युलर जेल के देशभक्त राजबंदी वहीं पर बस गए। अण्डमान में मासिक द्वीपसमूह पत्रिका के अलावा हिंदी में दैनिक पत्र भी प्रकाशित होता हैं। सन 1991 की जनगणना के बाद जनसंख्या अवश्य तेजी से बढ़ी है किंतु अंग्रेजी को मातृभाषा मानने वालों की संख्या घटी है। देश के लगभग आधे अंग्रेजी मातृभाषा  के लोग मात्र महाराष्ट्र प्रदेश के निवासी हैं। इसके बाद तमिलनाडु बंगाल तथा कर्नाटक का स्थान है।

अंग्रेजी के पक्ष में सदा यही कहा जाता है कि इसके बिना राजकाज पूर्ण रूप से गूंगा हो जाएगा, इसके बिना तकनीकी एवं विज्ञान का ज्ञान असंभव है। तभी एक ज्वलंत प्रश्न उठता है कि क्या जापान चीन की तकनीकी विकास का आधार अंग्रेजी है ! जर्मनी ने बहुमुखी विकास, चाहे ज्ञान का हो या विज्ञान क्षेत्र में, जर्मन भाषा से ही किया है। फ्रांस ने विश्व में जो स्थान कला, संस्कृति और आधुनिक चिंतन में बनाया है, क्या वह अंग्रेजी भाषा से बनाएगा ! यदि मिसाइल को प्रक्षेपास्त्र कहा जाता है तो क्या उसकी मारक क्षमता घट जाएगी ! क्या रूस ने उपग्रह निर्माण और संचालन के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करके सफलता प्राप्त की थी !

वस्तुत: हिंदी की सभी आंचलिक बोलियों का साहित्य ही हिंदी भाषा का श्रंगार है। इसी के द्वारा हिंदी के शब्द भंडार की वृद्धि हुई है। हिंदी के युग निर्माता आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी ने अंग्रेजों की इस कूटनीतिक चाल को दूर दृष्टि से देखते हुए भी बोलियों के शब्दों के प्रयोग के आधार पर हिंदी को खड़ी बोली नाम से प्रचारित किया। ऐतिहासिक पत्रिका सरस्वती के आचार्य द्विवेदी दशकों संपादक रहकर हिंदी खड़ी बोली को स्थापित कर ऐतिहासिक पुरूष बने।

रतीय वालीवुड संसार में दूसरे स्थान पर मान्यता प्राप्त कर चुका है। विश्व के लगभग 169 देशों में नित्य योगऋषि रामदेव का आस्था एवं अन्य चैनलों से हिंदी प्रसारण व कथा प्रवचनों को हिंदी में नित्य सुनने वाले विश्व में करोड़ों श्रोता हैं। विषम परिस्थितियों में भी भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा व राष्ट्र के प्रमुख तकनीकी संस्थानों में हिंदी भाषी युवाओं का चयन मूल संस्कृति की और वापसी का संकेत है। लार्ड मेकाले और उनके मानस पुत्रों ने किस प्रकार भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी पर आक्रमण करते हुए अंग्रेजी भाषा को प्रतिष्ठित किया था। आज हमारे युवा उस मानसिकता का प्रत्युत्तर देनें में सक्षम नजर आ रहें हैं। इस समय हिदी भाषी क्षेत्र के युवकों ने जिस प्रकार इन प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी के किले में सेंध लगाई है उससे अंग्रेजी परस्त वाला वर्ग आश्चर्यचकित है। देश के हिंदी भाषी प्रांतों से संबंधित इन युवकों ने जो संदेश दिया है उसका सारतत्व यह है कि संसाधनों का अभाव अब वंचनाओं की जननी न होकर उच्च लक्ष्यों को प्राप्त करने की रचनात्मकता है। इसलिए अपनी माँ का मतिभ्रम होने से आया को ही माँ समझने वालों को यथार्थ के धरातल पर आना होगा। भविष्य में निर्धन तथा कमजोर वर्ग के नवयुवकों में इस भावना को उनके मन मस्तिष्क में विस्तार देने की अति आवश्कयता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशऱण गुप्त की निम्न पंक्तियों में हम सबकी भावना समाहित है।

हिंदी का उद्देश्य यही है भारत एक रहे अविभाज्य,
यों तो रूस और अमेरिका जितना है उसका जनराज्य।
बिना राष्ट्रभाषा स्वराष्ट्र की, गिरा आप गूंगी असमर्थ,
एक भारतीय बिना हमारी भारतीयता का क्या अर्थ।।

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Saturday, February 16, 2013

आचार्य चतुरसेन शास्त्री -स्मृति शेष


वैशाली की नगरवधू : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
    ( जन्म- 26 अगस्त,1891)    ( निधन: 02 फरवरी, 1960 ) 
        
        जमाने में कहां , कब कौन किसका साथ देता है,
     
जो अपना है. वही ग़म की हमें सौग़ात देता है।

यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों  के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा नहीं है।    -       

आचार्य चतुरसेन शास्त्री

इस तरह की प्रविष्टियों को ब्लॉग पर प्रस्तुत करने की पष्ठभूनि में मेरा यह प्रयास रहता है कि हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान प्रकाशस्तंभों का सामीप्य-बोध हम सबको अहर्निश मिलता रहे एवं हम सब इन साहित्यकारों की अनमोल कृतियों एवं उनके जीवन दर्शन की घनी छांव में अपनी साहित्यिक ज्ञान-पिपासा में अभिवृद्धि करते रहें। आईए, एक नजर डालते हैं, अपने समय के बहुचर्चित लेखक चतुरसेन शास्त्री पर, उनके जीवन एवं कृतियों पर जो हमें सत्य से विमुख न होने के साथ-साथ कभी भी किसी भी विषम परिस्थतियों में बिखरने भी नही देती हैं। किसी भी साहित्यकार की रचना उसकी निजी जीवन की अनुभूतियों की ऊपज होती है । शास्त्री जी के रचनाओं में कुछ खास ऐसी ही विशेषता है जिसे पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि ये समय के साथ संवाद करती हुई तदयुगीन जीवन के साक्षात्कार क्षणों से परिचित करा जाती हैं । मेरा प्रयास एव परिश्रम आप सबके दिल में थोड़ी सी जगह बना सकने में यदि सार्थक सिद्ध हुआ तो मैं यही समझूंगा कि मेरा प्रयास,  एवं परिश्रम भी साहित्य-जगत के सही संदर्भों में सार्थक सिद्ध हुआ।- - प्रेम सागर सिंह

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म  26 अगस्त, 1891 को चांदोख ज़िला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ऐतिहासिक  उपन्यासकार के रूप में इनकी प्रतिष्ठा है। चतुरसेन शास्त्री की यह विशेषता है कि उन्होंने उपन्यासों के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा है, कहानियाँ लिखी हैं, जिनकी संख्या प्राय: साढ़े चार सौ है। गद्य-काव्य,  धर्म,  राजनीति,  इतिहास,  समाजशास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा  पर भी उन्होंने  अधिकारपूर्वक लिखा है।  रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे जो कि उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुए। द्विवेदी युग में देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी किशोरीलाल गोस्वामी आदि देवकीनन्दन खत्री जी की चन्द्रकान्ता उपन्यास तो लोगों को इतनी भायी कि लाखो लोगों ने उसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखा। तिलस्मी और जासूसी उपन्यासों के लेखकों के अतिरिक्त प्रेमचंद, वृंदावनलाला वर्मा,  आचार्य चतुरसेन शास्त्री, विश्वम्भर नाथ कौशिक,  चंद्रधर शर्मा गुलेरी”, सुदर्शन,  जयशंकर प्रसाद आदि द्विवेदी युग के साहित्यकार रहे। सन 1943-44 के आसपास दिल्ली  में हिन्दी भाषा और साहित्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। यदाकदा धार्मिक अवसरों पर कवि-गोष्ठियां हो जाया करती थीं। एकाध बार हिन्दी साहित्य  सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ था। लेकिन उस समय आचार्य चतुरसेन शास्त्री और  जैनेन्द्रकुमार के अतिरिक्त कोई बड़ा साहित्यकार दिल्ली में नहीं था। बाद में सर्वश्री  गोपाल प्रसाद व्यास, नगेन्द्र,  विजयेन्द्र स्नातक आदि यहां आए।

खड़ी हिंदी की विकास-यात्रा के प्रारंभ से ही मेरठ  क्षेत्र की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा रही है।  आज भी मेरठ में जितनी अच्छी हिंदी बोली जाती है वह कही भी नही मिलती । यहां के साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में न केवल इस क्षेत्र के जनजीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अभिव्यक्त किया, बल्कि इस अंचल की भाषिक संवेदना को भी पहचान दी। इन साहित्यकारों के बिना  हिन्दी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता।  26 अगस्त, 1891 को  बुलंदशहर के चंदोक में जन्मे आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने 32  उपन्यास, 450  कहानियां और अनेक नाटकों का सृजन कर हिंदी साहित्य  को समृद्ध किया। ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिन्दी साहित्य को प्रदान किए। सोमनाथ, वयं रक्षाम:, वैशाली की नगरबधु,  अपराजिता, केसरी सिंह की रिहाई, धर्मपुत्र, खग्रास, पत्थर युग के दो बुत, बगुला के पंख उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। चार खंडों में लिखे गए सोना और ख़ून के दूसरे भाग में 1857 की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है। गोली उपन्यास में  राजस्थान के राजा-महाराजाओं और दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। अपनी समर्थ भाषा-शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन साहित्यकार बने। इनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है, जो अपने ही में एक कीर्तिमान है। आचार्य चतुरसेन मुख्यत: अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। इनके प्रमुख उपन्यासों के नाम हैं-

      1.  वैशाली की नगरबधू  2.   वयं रक्षाम, 3.   सोमनाथ, 4.    मन्दिर की नर्तकी  5.    रक्त की प्यास 6.     सोना और ख़ून (चार भागों में)  7.  आलमगीर,  8.  सह्यद्रि की चट्टानें, 9. अमर सिंह,  10.      ह्रदय की परख।

इनकी सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम और सोमनाथ हैं। हम यहाँ वैशाली की नगरवधू की विस्तृत चर्चा करेंगे, जो कि इन तीनों कृतियों में सर्वश्रेष्ठ है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक  नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में  उल्लिखित किया है - मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ। आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षाम: का मुख्य पात्र  रावण है न कि राम । यह रावण से संबन्धित घटनाओं का ज़िक्र करती है और उनका दूसरा पहलू दिखाती है। इसमें आर्य और संस्कृति  के संघर्ष के बारे में चर्चा है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के भी अपने लेखन के संबंध में कुछ ऐसे हीवक्तव्य मिल जाते हैं। 'सोमनाथ' के विषय में उन्होंने लिखा है कि  कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'जय सोमनाथ' को पढ़ कर उनके मन में आकांक्षा जागी कि वे मुंशी के नहले पर अपना दहला मारें; और उन्होंने अपने उपन्यास 'सोमनाथ' की रचना की। 'वयं रक्षाम:' की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने कुछ नवीन तथ्यों की खोज की है, जिन्हें वे पाठक के मुँह पर मार रहे हैं। परिणामत: नहले पर दहला मारने के उग्र प्रयास में 'सोमनाथ' अधिक से अधिक चमत्कारिक तथा रोमानी उपन्यास हो गया है; और अपनेज्ञान के प्रदर्शन तथा अपने खोजे हुए तथ्यों को पाठकों के सम्मुख रखने की उतावली में,उपन्यास विधा की आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा कर वे 'वयं रक्षाम:' और 'सोना और ख़ून' में पृष्ठों के पृष्ठ अनावश्यक तथा अतिरेकपूर्ण विवरणों से भरते चले गए हैं। किसी विशिष्ट कथ्य अथवा प्रतिपाद्य के अभाव ने उनकी इस प्रलाप में विशेष सहायता की है। ये कोई ऐसेलक्ष्य नहीं हैं, जो किसी कृति को साहित्यिक महत्व दिला सके अथवा वह राष्ट्र और समाज की स्मृति में अपने लिए दीर्घकालीन स्थान बना सकें। 'वैशाली की नगरवधू' तथा अन्य अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का लक्ष्य एक विशेष प्रकार के परिवेश का निर्माण करना भी हो सकता है; किंतु इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अनेक लोग 'वैशाली की नगरवधू' में स्त्री की बाध्यता और पीड़ा देखते हैं। वैसे इतिहास का वह युग, एक ऐसा काल था,  जिसमें साहित्यकार को अनेक आकर्षण दिखाई देते हैं। महात्मा बुद्ध,  आम्रपाली, सिंह सेनापति तथा अजातशत्रु के आस-पास हिन्दी साहित्य की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों ने जन्म लिया है। उसमें स्त्री की असहायता देखी जाए, या गणतंत्रों के निर्माण और उनके स्वरूप की चर्चा की जाए, वात्सल्य की कथा कही जाए, या फिर मार्क्सवादी दर्शन का सादृश्य ढूँढा जाए - सत्य यह है कि वह परिवेश कई दृष्टियों से असाधारण रूप से रोमानी था जिसके कारण साहित्यकार के  सोच को एक नया आयाम मिला और शास्त्री जी की वैशाली की नगरवधू हर संबेदनशील साहित्यकार की नगरवधू बन गयी । इस उपन्यास को जितनी बार पढ़ा उतनी बार मन में असंख्य अर्थ अपने शब्दों के क्षितिज क्रमश: विस्तृत करते गए एवं मेरे अंतस को आंदोलित कर गए । आप सबके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद।
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Tuesday, February 12, 2013

एक चिंतन -आजीवन कारावास


आजीवन कारावास की सजा के कानूनी मायने

                                              
                                                         प्रेम सागर सिंह
                   
दिल्ली मे 16 दिसंबर,2012 को हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद कानूनों  में संशोधन सुझाने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायधीश जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में बनाई गई समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। इस रिपोर्ट में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से संबंधित कानूनों और कानूनी प्रक्रिया में जनभावनाओं के अनुरूप परिवर्तन करने की अनेक स्वागत-योग्य सिफारिशें की गई हैं। समिति के अनुसार बलात्कारी की आजीवन कारावास की सजा का मतलब मृत्यु-पर्यंत कारावास होना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में आजीवन कारावास की सजा के कानूनी मायने पर गौर करना जरूरी है।
भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 53 के अनुसार अपराधियों को पांच प्रकार के दण्ड - यानि मृत्युदण्ड, आजीवन करावास, सश्रम या साधारण कारावास, संपत्ति की कुर्की और आर्थिक जुर्माना देने का प्रावधान किया गया है। इस धारा में आजीवन कारावास की सजा को परिभाषित नही किया गया है और इसका साधारण अर्थ प्राकृतिक मृत्यु तक का कारावास ही है।
 जेल और कैदियों से संबंधित मामले संविधान की सातवीं सूची में दी गई राज्यों के अधिकार क्षेत्र से संबंधित दूसरी सूची में चौथे विषय के रूप में शामिल है। इसका सीधा अर्थ है कि राज्य सरकारें जेल और कैदियों की व्यवस्था और रख-रखाव से संबंधित कानून बना सकती है। कानूनी प्रक्रिया का तकाजा है कि अदालत कानूनों में निर्धारित सजा सुनाए और राज्य सरकारें कानून के अनुसार अदालत द्वारा दी गई सजा को लागू करे। संविधान, भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता -1973, जेल अधिनियम-1894 और राज्यों द्वारा बनाई गई जेल नियमावली में उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार ही जेल में कैदी के साथ व्यवहार किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार राष्ट्रपति और अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्यपाल आजीवन कारावास की सजा को इससे कम किसी अन्य प्रकार की सजा में बदल सकते हैं। इसमें अदालती हस्तक्षेप की सीमित संभावना रहती है। सामान्यतया जनहित, कैदी के पुनर्वास, मानवता और न्याय के हित में मंत्रिमंडल की सलाह पर ही इन संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
 भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 433 में प्रावधान है कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार, अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में किसी भी कैदी की आजीवन कारावास की सजा को इससे कम किसी अन्य प्रकार की सजा में बदल सकती हैं। कालांतर में यह सामने आया कि इस प्रावधान के कारण संगीन अपराधों में लिप्त कुछ अपराधी भी बहुत कम सजा यानि आठ-दस साल बाद जेल से रिहा हो जाते हैं। विधायिका फिर सक्रिय हुई और वर्ष 1978 में भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में एक और धारा 433A जोड़ दी गई। इस धारा के अनुसार मृत्युदण्ड को कम करके आजीवन कारावास में परिवर्तित सजा और उन अपराधों में दी गई आजीवन कारावास की सजा जहां मृत्युदण्ड दिया जा सकता था, को चौदह वर्ष से कम की सजा में परिवर्तित नही किया जा सकता।
जेल अधिनियम 1894 की धारा 59(5) में राज्य सरकार को सजा कम करने का अधिकार दिया गया है। जेल में खाना बनाने, बाल काटने, सफाई करने और और अन्य प्रकार के काम करने वाले कैदियों, अच्छा आचरण और व्यवहार करने वाले बंदियों और जेल प्रशासन की मदद करने वाले कैदियो की सजा में छूट देने के नियम राज्य सरकार द्वारा बनाए गए हैं। इन नियमों के अंतर्गत एक कैदी कुल सजा के एक तिहाई भाग के बराबर छूट प्राप्त कर सकता है। धारा 433A के आने के बाद आजीवन कारावास की सजा काट रहे संगीन जुर्म के सजाय़ाफ्ता कैदी को कम से कम चौदह वर्ष तक जेल में रहना पड़ेगा।
आधुनिक सभ्य समाज में दोषियों को कारावास की सजा देने  का एक सार्थक उद्देश्य है। अपराधशास्त्रियों का मत है कि कारावास का मात्र एक उद्देश्य कैदी को सुधार कर पुन: समाज में रहने योग्य बनाना होता है। कारावास समाज विरोधी तत्त्व को सभ्य समाज में रहने लायक बनाने की प्रयोगशाला है। अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1920 में बनाई गई ईंडियन जेल कमेटी ने सिफारिश की थी कि कैदियों की सुधार और पुनर्वास करना कारावास का उद्देश्य होना चाहिए। कारावास व्यक्तित्व सुधारने का साधन है, व्यक्ति को नष्ट करने का नही।
बीभत्स अपराध बीमार मानसिकता का परिचायक है, सोच-समझ कर कोई व्यक्ति ऐसे अपराध नही करता और जो सोचने समझने की शक्ति खो बैठता है,उसके लिए कोई भी सजा कारगर नही है या तो ऐसे लोगों की मानसिकता बदलने के उपाय किए जाएं, और अगर ऐसा करना संभव नही है, तो उन्हे मृत्यु दण्ड दिया जाए। किसी को भी मरने के लिए जेल में बंद कर देने से न्याय का परचम नही फहराया जा सकता। मुझे आशा है कि वर्मा समिति की रिपोर्ट पर गहन विचार कर के ही सरकार कानून में संशोधन का कोई फैसला करेगी। कानून में संशोधन ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी को राष्ट्र की प्रगतिशील विचारधारा का दर्शन हो। कानून न्याय व्यवस्था की मूलभूत अवधारणाओं का संदेशवाहक होता है। इन अवधारणाओं की सुसंगत रक्षा करना प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य होता है।

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