Monday, January 11, 2010

हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन

हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन
- प्रेम सागर सिंह
हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन,
मन क्यूं अधीर हो जाता है ।
स्वयं का अतीत लहर बनकर,
तेरी ओर बहा ले जाता है ।

वे दिन भी बड़े ही स्नेहिल थे।
जब प्रेम सरोवर स्वतः उफनाता था।
उसके चिर फेनिल उच्छवासों से,
स्वप्निल मन भी सकुचाता था ।

कुछ कहकर कुंठित होता था,
तुम सुनकर केवल मुस्काती थी ।
हम कितने कोरे थे उस पल,
जब कुछ बात समझ नहीं आती थी ।

हम बिछुड़ गए दुर्भाग्य रहा,
विधि का भी शायद हाथ रहा ।
लिखा भाग्य में जो कुछ था,
हम दोनों के ही साथ रहा ।

सपने तो अब आते ही नहीं,
फिर भी उसे हम बुनते रहे ।
जो पीर दिया था अपनों ने,
उसको ही सदा हम गुनते रहे ।

अंतर्मन में समाहित रूप तुम्हारा,
अचेतन मन को उकसाया करता है ।
लाख भुलाने पर भी वह मन,
प्रतिपल ही लुभाया करता है ।

तुम जहां भी रहो आबाद रहो,
वैभव, सुख-शांति साथ रहे ।
पुनीत हृदय से कहता हूं ,
जग की खुशियां पास रहे ।

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Friday, January 1, 2010

प्रेम बटोही

आज की युवा पीढ़ी मिथ्‍या प्रेम संबंधों के भंवर में फँसती जा रही है । परिणाम स्‍वरूप, यह संबंध उन्‍हें आदर्शोन्‍मुखी राह से पथ विचलित कर देता है । ‘प्रेम बटोही’ कविता के माध्‍यम से मैनें वर्तमान पीढ़ी के नवयुवकों को एक संदेश देने का प्रयास किया है जिसके माध्‍यम से मेरी बात शायद उनके अन्‍तर्मन में थोड़ी सी जगह पा जाए । अन्‍त में, इस ब्‍लॉग से जुड़े समस्‍त साहित्‍यानुरागियों, सुधी पाठकों को मेरी ओर से नव वर्ष की अशेष शुभकामनाएं !

प्रेम बटोही
--- --- प्रेम सागर सिंह

प्रेम मोम का बन्धन है,
परिणति इसका क्रन्दन है ।
सोच समझ कर आगे बढ़ना,
यह मात्र हृदय स्पन्दन है ।

हे बटोही ! सजग ही रहना
डगर बड़ा ही दुर्गम है ।
पथ भरे पडे़ हैं शूलों से,
बाट बडा ही निर्गम है ।

इस प्रेममयी स्वार्थी दुनिया में,
मायावी छलनाएं हैं कायल ।
अपनी कपट पूर्ण मुस्कानों से,
सबको कर देती है घायल ।

हे प्रेम पिपासु !बच के रहना
इन स्वार्थी छलनाओं से ।
बहुतों को बर्बाद किया है,
अपने कुटिल स्वभावों से ।

हे प्रेम रसिक ! वश में रखना,
निज भ्रमित और चंचल मन को ।
कौन जाने किस पागल घड़ी में,
पथ विचलित कर जाए तुझको ।

प्रेम पथिक ! अब पथ्यांतर कर,
एक पृथक पथ का सृजन करो ।
दिग्भ्रमित बटोही उस राह चले,
ऐसा ही सुदृढ़ संकल्‍प करो ।
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