Saturday, October 27, 2012

इस पार उस पार



इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!



                                                    
                                                हरिवंश राय बच्चन


यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा*एँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थ बना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर भरभरन सुने जाएँगे,
अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज टलमल’, सरिता अपना कलकलगायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोती धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


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Wednesday, October 24, 2012

नई यादें एवं पुराने परिप्रेक्ष्य



       हिंदी नवजागरण के अंतिम मार्तंडरामविलास शर्मा   

         (जन्म: 10 अक्तूबर, 1912 निधन: 30 मई, 2000)



                                        
                                        (प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह)

  
(रामविलाश शर्मा हिंदी ही नही, भारतीय आलोचना के शिखर व्यक्तित्व हैं। उनके लेखन से पता चलता है,आलोचना का अर्थ क्या है और इसका दायरा कितना विस्तृत हो सकता है। वे हिंदी भाषा और साहित्य की समस्याओं पर चर्चा करते हुए बिना कोई भारीपन लाए जिस तरह इतिहास, समाज, विज्ञान, भाषाविज्ञान, दर्शन, राजनीति यहां तक कि कला संगीत की दुनिया तक पहुंच जाते हैं, इससे उनकी आलोचना के विस्तार के साथ बहुज्ञता उजागर होती है। आज शिक्षा के हर क्षेत्र में विशेषज्ञता का महत्व है। ऐसे में रामविलास शर्मा की बहुज्ञता,जो नवजागरणकालीन बुद्धिजीवियों की एक प्रमुख खूबी है, किसी को भी आकर्षित कर सकती है)  ---  प्रेम सागर सिंह

मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले हिंदी के मूर्ध्न्य लेखक रामविलास शर्मा का लेखन साहित्य तक सामित नही है, बल्कि उससे इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र आदि अनेक अकादमिक क्षेत्र भी समृद्ध हैं। साहित्य के इस पुरोधा ने हिंदी साहित्य के करोड़ों  हिंदी पाठकों को साहित्य की राग वेदना को समझने और इतिहास के घटनाक्रम को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने में सक्षम बनाया है, इसलिए भी उनका युगांतकारी महत्व है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से वे यह बता गए हैं कि कोई भी चीज द्वंद्व से परे नही है, हर चीज सापेक्ष है और हर संवृत्ति (Phenomena) गतिमान है। साहित्यिक आस्वाद की दृष्टि से उन्होंने इंद्रियबोध, भाव और विचार के पारस्परिक तादाम्य का विश्लेषण करना भी सिखाया।
रामविलाश शर्मा के संपूर्ण कृतित्व पर अगर अचूक दृष्टि डाली जाए तो यह स्पष्ट होगा कि प्रचलित अर्थों में वे मात्र साहित्यिक समालोचक न थे। वे साहित्य, कला एवं ज्ञान विज्ञान के विभिन्न अनुशासन के क्षेत्र में बौद्धिक हस्तक्षेप करने वाले अग्रणी कृतिकार, विद्वान और चिंतक थे। हालांकि, उनका साहित्यिक जीवन कविता लिखने के क्रम में हुआ था। झांसी में इंटरमीडिएट कक्षा के जब वे क्षात्र थे, तभी अंग्रेजी राज्य के विरूद्ध हम गोरे हैं शीर्षक कविता लिखी थी। जब वे लखनउ विश्वविद्यालय से बी.ए (आनर्स) कर रहे थे, उस समय अंग्रेजी और फ्रांसीसी काव्यधाराओं से प्रभावित होकर उन्होंने कुछ सॉनेट (Sonnet) और गीत लिखे थे। 26 साल की उम्र होते ही उनका संपर्क निराला के अतिरिक्त केदारनाथ अग्रवाल, गिरिजाकुमार माथुर, अमृलाल नागर, शिवमंगल सिंह सुमन आदि से हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि वे नियमित रूप से कविताएं लिखने लगे। इस दौर की अधिकांश कविताएं सुमित्रानंदन पंत के संपादन में प्रकाशित पत्रिका रूपाभ के पृष्ठों पर प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा उन्होंने अगिया बैताल और निरंजन के उपनाम से वे राजनीतिक व्यंग कविताएं लिख रहे थे।यहां उल्लेखनीय है कि साहित्यिक सृजन के इस प्रारंभिक दौर  में रामविलाश जी का एक उपन्यास चार दिन के नाम से 1936 में प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा उनके द्वारा कुछ लिखित नाटकों का रंगमंचीय प्रदर्शन भी हुआ था। इन नाटकों में सूर्यास्त, पाप के पुजारी, तुलसी दास, जमींदार कुलबोरन सिंह और कानपुर के हत्यारे प्रमुख है। साहीत्यिक सृजनशीलता के क्षेत्र से हट कर रामविलाश जी की अभिरूचि धीरे-धीरे आलोचना कर्म के प्रति जाग्रत हुई,खासकर इस कारण कि उस समय निराला जी पर चौतरफा हमला हो रहा था और रामविलाश जी इस बात को लेकर काफी क्षुब्ध थे। इसलिए 1938-39  के दिनों में उन्होंने निराला पर हो रहे आक्रमणों का जबाव देने के मकसद से एक लेख लिखा था जो उसी समय चाँद में प्रकाशित हुआ। उन्हीं दिनों शरतचंद्र पर भी एक आलोचनात्मक निबंध लिखा जिसमें वर्गीय दृष्टिकोण से शरतचंद्र के कथा साहित्य की विवेचना की गई थी।
1938 से 1939  के इन तीन चार सालों में रामविलास ने प्रेमचंद पर किताब लिखने का पूरी तैयारी करने के साथ-साथ समालोचना की एक नई विश्लेषण प्रणाली का सूत्रपात करने के उद्देश्य से भारतेंदु के साथ साथ बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त  के साहित्य की मूल्यवत्ता और गद्य शैली को नया स्वरूप देने का प्रयास किया। आलोचनात्मक कृति के रूप में उनकी पहली पुस्तक प्रेमचंद के नाम से 1941 में प्रकाशित हुई। 1940-41  के इसी दौर में मार्क्सवाद-लेनिनवाद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ से घनिष्ठ रूप में वे जुड़ गए।
समालोचना एक ऐसी प्रणाली है, जो यथार्थ के द्वंद्व के व्याख्या में सहायक हो और इतिहास चेतना के आलोक में विश्लेषण कर सके, रामविलास शर्मा की चिंतन प्रक्रिया का हिस्सा बन गई। उस दौर में हिंदी समालोचना में एक ओर यदि रीतिवादीशास्त्रवादी छाय़े थे और दूसरी ओर रोमांटिक भावोच्छ्वासवादी आलोचकों की भरमार थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विवेचना पद्धति के प्रबल आधारों को रेखांकित किए बिना नई प्रगतिशील समालोचना की नींव नही रखी जा सकती थी। इस सिलसिले में उन्होंने सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता की व्याख्या के औजार प्रस्तुत किए। इस समय प्रगतिशील लेखकों के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि परंपरा का मूल्यांकन किस तरह किया जाए और परंपरा के सकारात्मक पक्षों को नई उद्भावनाओं के सांचे में किस तरह परिस्कृत किया जाए। आलोचना की इस चुनौती को देखते हुए ही रामविलास जी के आगे एक बड़ा दायित्व आ खड़ा हुआ। यही वह संदर्भ था जिसकी वजह से शिवदान सिंह चौहान, राहुल सांकृत्यान, यशपाल, रांगेय गाघव आदि से उनकी टकराहट हुई। इतिहास का कौन सा तत्व अग्रगामी है और कौन सा तत्व प्रतिगामी है- इस प्रश्न को लेकर उस समय गंभीर विवाद आरंभ हो गया। उस दौर के उनके और आलोचकों  के लेखनों का प्रभाव यह पड़ा कि आलोचना पर चढी हुई शास्त्रीयता का कवच उतार दिया गया और आलोचना कर्म की भाषा पूरी तरह बदल गई जिसे कालांतर में अपनी राह मिली।
हिंदी जागरण की अवधारणा का श्रेय भी उन्हे ही दिया जाता है। लेकिन,1956 के बाद उनके लेखन का क्षेत्र बदलने लगा। इसका पहला प्रमाण है 1956 में प्रकाशित मानव सभ्यता का विकास। अब रामविलास शर्मा, विश्लेषण की दिशा मूलभूत रूप से समाजविज्ञान, दर्शन,भाषा विज्ञान और इतिहास की ओर उन्मुख हो गई। जब 1857 की सौवीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी, उस समय उन्होंने सन् सत्तावन की राज्य क्रांति नामक पुस्तक लिखी थी जो उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गई।
रामविलाश शर्मा के संपूर्ण कृतित्व का लेखा जोखा रखने के क्रम में यह बताना आवश्यक है कि दो खंडों में लिखी गई उनकी पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश की विषय सामग्री राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के व्यापक प्रश्नों की व्याख्या प्रस्तुत करती है। साहित्यकार का जब कोई बड़ा मकसद होता है और वह छोटे आरोप- प्रत्यारोप से ऊपर उठकर कोई बड़ निशाना बनाता है, तभी वह ऐसा साहित्य दे पाता है, जो इतना सुगठित हो, विपुल और सार्थक भी। रामविलाश शर्मा जी कि निम्नलिखित कुछ प्रमुख कृतियां हमें उनकी विचारधारा एवं संघर्षशीलता के दस्तावेज के रूप उनका परिचय प्रदान कर जाती हैं। दोस्तों, यह पोस्ट उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की संपूर्ण प्रस्तुति नही है बल्कि उन्हे याद करने का एक माध्यम है जिसे मैंने आपके सबके समक्ष सार-संक्षेप में प्रस्तुत किया है। आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए इस क्षेत्र में प्रकाशस्तंभ का कार्य करेगी। धन्यवाद सहित।

कृतिया : -

आलोचना एवं भाषाविज्ञान : -1.प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं 2. भाषा, साहित्य और संस्कृति 3.लोक जीवन और साहित्य 4.रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना 5.स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य 6. आस्था और सौंदर्य 7. स्थायी साहित्य की मूल्यांकन की समस्या 8.निराला की साहित्य साधना (तीन खंड) 9.नई कविता और अस्तित्ववाद 10.सन् सत्तावन की राज्य क्रांति 11.भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद 12. भारत के प्राचीन भाषा परिवार 13 ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा 14 मार्क्स और पिछड़े हुए समाज 15.भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।

नाटक: - 1.सूर्यास्त 2.पाप के पुजारी 3. तुलसीदास 4. जमींदार कुलबोरन सिंह 5. कानपुर के हत्यारे

उपन्यास : - चार दिन

अनुवाद:- स्वामी विवेकानंद की तीन पुस्तकों का 1. भक्ति और वेदांत 2.कर्मयोग और राज रोग एवं स्टालिन द्वारा लिखित सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी

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Saturday, October 20, 2012

शाहिर की याद में


                            
  
     मेरे हम सफर उदास न होः साहिर लुधियानवी
           
     
     (जन्मः 08मार्च,1921-निधनः25अक्तूबर,1980)


‘‘पर जिंदगी में तीन समय ऐसे आए हैं- जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को  जी भर कर देखा है । उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया-दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिरमेरे घर  आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था । उसके गले में दर्द था-सांस खिंचा-खिंचा था, उस दिन उसके गले और छाती पर मैने  विक्स  मली थी । कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़-खडे़ पोरों से , उंगिलयों से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार सकती हूं  मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता  नहीं थी। --(अमृता प्रीतम)
           
             
                                                  
                                        प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह

साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म 8 मार्च 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। हाँलांकि इनके पिता बहुत धनी थे पर माता-पिता में अलगाव होने के कारण उन्हें माता के साथ रहना पड़ा और गरीबी में गुजर करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। सन् 1939 में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा । कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे और अमृता इनकी प्रशंसक । लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब । बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लिये उन्होंने तरह तरह की छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं। सन् 1943 में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह तल्खियाँ छपवायी। 'तल्खियाँ' के प्रकाशन के बाद से ही उन्हें ख्याति प्राप्त होने लग गई। सन्  1945  में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़  और शाहकार  (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान  सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। उनके विचार साम्यवादी थे। सन् 1949 में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली  में रहकर वे मुंबई आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका  शाहराह और  प्रीतलड़ी के सम्पादक बने। फिल्म आजादी की राह पर (1949) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार  सचिनदेव वर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली। फिल्म नौजवान का गाना  ठंडी हवायें लहरा के आयें ,बहुत लोकप्रिय हुआ और आज तक है। बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी-कभी  जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिये गीत लिखे। सचिनदेव वर्मन के अलावा एल.दत्ता, शंकरजयकिशन आदि संगीतकारों ने उनके गीतों की धुनें बनाई हैं। 59 वर्ष की अवस्था में 25 अक्टूबर 1980 को दिल का दौरा पड़ने से साहिर लुधियानवी का निधन हो गया। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जितना ध्यान औरों पर दिया उतना खुद पर नहीं । वे एक नास्तिक थे तथा उन्होंने आजादी के बाद अपने कई हिन्दू तथा सिख मित्रों की कमी महसूस की जो लाहौर में थे । उनको जीवन में दो प्रेम असफलता मिली-पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ जब अमृता के घरवालों ने उनकी शादी न करने का फैसला ये सोचकर लिया कि साहिर एक तो मुस्लिम हैं दूसरे ग़रीब, और दूसरी सुधा मल्होत्रा से।वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया । उनके जीवन की कटुता इनके लिखे शेरों में झलकती है ।
                            
                मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े़ में
   तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है
   न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
                                 ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है ।
                        
                (www.premsarovar.blogspot.com)
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Sunday, October 14, 2012

अंधेर नगरी चौपट राजा


 लगता है बेकार गए हम


                                        
               (प्रेम सागर सिंह)


एक दिन अचानक प्रेमचंद के होरी से
हो गया मेरा सामना
शहर के एक नामी बार के बाहर
हाथ फैलाए बैठा था वह अनमाना
मैंने कहा -
देखा तुमने,
हम कितना आगे बढ़ गए हैं
विकास के अनेक सोपानों को पार कर गए हैं
देश का कितना बदल गया है हर रंग
कितना बदल गया है हमारे जीने का ढंग
हर तरफ कितनी खुशहाली है
मानो हर दिन होली रात दिवाली है
इतना सुनना था
कि
उसके होठों पर आ गई मुस्कान हल्की
पर आँखों से उसकी बेचारगी सी झलकी
यूं तो वह मुस्कुरा रहा था
पर रोम-रोम उसका कराह रहा था
डूबती सी आवाज में बोला-
वक्त कहां बदला है, साहब
बदला तो है बस इंसान
जिसकी नीयत खोटी हो गई है
और घट गया है ईमान
मैंने कहा क्या कह रहे हो तुम !”
देखते नहीं की हमने क्या कर दिया
अंग्रेजों को देश से किया बाहर और
राजाओं का राजपाठ है जनता को दिया
अब न रहा है राजतंत्र और न रही है अंग्रेज सरकार
लोगों का है लोकतंत्र और जनता की है सरकार
क्यों दिल्लगी करते हो मेरे यार...
होरी बोला
विकास होता तो सबके चेहरे पर होती मुस्कान
चंद सिक्कों के खातिर न मरता कोई इंसान
घोटालों के काऱण देश होता नही बदनाम
मुझको तो कल और आज में लगता नही कोई फर्क
मेरी जिंदगी तो जैसे पहले थी वैसे ही है आज
पहले भी मैं दुनिया को खिलाता था
खाली रहता था मेरा पेट
आज भी उगाता हूं मैं और खा जाते हैं
सब जमींदार और सेठ
मेरी उगाई फसलं का दाम वही तय करते हैं
मेरे पसीने की कमाई से वे ही तिजोरी भरते हैं
कुछ भी नही बदला है जनाब..
यह भी कहना है बेकार
बस नेताओं की टोपी बन गए हैं जो राजाओं के थे ताज
आज भी यह राजसुख ही भोगते हैं
करते हैं राज
पहले राज पुश्त दर पुश्त चलते थे
अब भी
नेता अपनी वंश परंपरा को ही आगे हैं बढ़ाते
बस राजाओं ने बदला है नेताओं का चोला
कहां से आती है इतनी दौलत यह राज आज तक नही
खोला
कानून से भी लंबे हैं इनके हाथ
जनता को लुटने मे करते हैं
डाकूओं को मात
बेशर्मी की आँखों पे इतना पर्दा पडा है
दौलत का नशा इनके सर पर चढ़ा है
लबालब भरा इनके पापों का घड़ा है
इनके कुत्तों के पट्टों पर भी हीरा जड़ा है
आवाज उठाने वालों को Mango people
और अपने देश को कहते हैं Banana Republic
इसके बावजूद भी इनका मिजाज कड़ा है
पर प्रेमचंद का होरी
आज भी उसी पायदान पर खड़ा है!
विकास के खंभों को भी है गम,
जिन्हे आधे-अधूरे एवं नंगे देख कर,
लगता है बेकार गए हम।

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