Wednesday, April 21, 2010

अभिशप्त जिंदगी

अभिशप्त जिंदगी

प्रेम सागर सिंह

तुम्हारे सामीप्यबोध एवं

सौंदर्य- पान के वृत में

सतत परिक्रमा करते -करते

व्यर्थ कर दी मैने

न जाने कितनी उपलब्धियां।

तुमसे दुराव बनाए रखना

मेरा स्वांग ही था महज।

तुम वचनवद्ध होकर भी,

प्रवेश नही करोगी मेरे जीवन में,

फिर भी मैं चिर प्रतीक्षारत रहूं।

इस अप्रत्याशित अनुबंध में,

अंतर्निहित परिभाषित प्रेम की,

आशावादी मान्यताओं का

पुनर्जन्म कैसे होता चिरंजीवि।

जीवन की सर्वोत्तम कृतियों

एवं उपलब्धियों से,

चिर काल तक विमुख होकर

मात्र प्रेम परक संबंधों के लिए

केवल जीना भी

एक स्वांग ही तो है।

तुम ही कहो-

प्रणय -सूत्र में बंधने के बाद

इस सत्य से उन्मुक्त हो पाओगी

और सुनाओगी प्रियतम से कभी

इस अविस्मरणीय़ इतिवृत को

जिसका मूल अंश कभी-कभी,

कोंध उठता है, मन में ।

बहुत अप्रिय और आशावादी लगती हो

जब पश्चाताप में स्वीकार करती हो

कि अब असाधारण विलंब हो चुका है।

मेरी अपनी मान्यता है

उतना भी विलंब नही हुआ है

कि तमाम सामाजिक वर्जनाओं को त्याग कर,

हम जा न पाए किसी देवालय के द्वार पर

और

उस पवित्र परिसर को

अपवित्र करने के अपराध में,

हम जी न सकें,

एक अभिशप्त जिंदगी ही सही

मगर साथ- साथ------