नारी शक्ति और हमारा समाज
नारी और पुरूष, दोनों के बीच के दो दल है। इन दो दलों के माध्यम से ही सृष्टि-शस्य का विकास हुआ है। नारी की शक्ति को रूपा कहा गया है-‘या देबी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।‘यह केवल दुर्गा की शक्ति ही नही है,समस्त नारी जाति की स्तुति है।सभी प्राणियों में जो शक्ति रूप में उपस्थित है, हम उन्हे प्रणाम करते हैं। यही सृष्टि नारी को सृष्टि-सृजन का मूल कारण बनाती है। उसके पास पालन की अदभुत शक्ति है। शिशु को दुग्ध पालन कराने से लेकर संपूर्ण विश्व को करूणा से आप्यायित करने वाली नारी संसार की पर्याय भी है। वह चंडिका भी है। पाश्चात्य देशों में नारी को पुरूष की अर्धांगिनी नही उसे बेटर हाफ (Better Half) भी माना गया है और स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक सफल पुरूष के पीछे किसी नारी का ही हाथ होता है।‘जहाँ नारी का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं।’
शारीरिक संरचना की भिन्नता में नारी को स्वभावत: सुकोमल शरीर और मनोलोक प्रदान किया गया है। वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है। उसके आचरण में सर्वाधिक शील समाया हुआ है। इसके साथ ही उसमें शक्ति का वह स्फुल्लिंग भी प्रज्वलित होता रहता है, जो सृजन के साथ-साथ संहार की संपूर्ण संभावनाएं अपने तेज में समेटे रहता है। इस तरह नारी सौंदर्य, शील और शक्ति की त्रियामी क्षमताओं का समुच्चय है। सृष्टि के प्रारंभिक काल से लेकर पूर्व वैदिक काल तक नारी की शक्ति का सम्यक उपयोग सृष्टि को सुंदर बनाने में होता रहा है। नारी-पुरूष, का भेद उस काल तक मेधा, प्रतिभा, शक्ति आदि स्तरों पर नही था। पुरूष के समान नारी जीवन के सभी प्रसंगों में अपनी संपूर्ण शक्तियों का प्रयोग करती थी।
उत्तर वैदिक काल संपूर्ण विश्व में नारी शक्ति के अपक्षय का काल रहा है। पुरूष की बढती अहम्मन्यता ने नारी को दोयम श्रेणी का नागरिक मान लिया। उसे अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं में सुरक्षित रखने की नीति के अंतर्गत समाहित कर लिया। बचपन में पिता, यौवन में पति और बुढापे में पुत्र नारी का संरक्षक होता है। वह कभी स्वतंत्र नही रह सकती। यह दृष्टिकोण भारतीय मनु का ही नही था अपितु मिश्र, ग्रीक, रोम आदि में भी स्त्री को पण्य वस्तु जैसा स्वीकार किय़ा गया। वह गुलामों जैसी खरीदी-बेची जाने लगी थी। एक पुरूष अनेक नारियों का स्वामी य़ा पति बन सकता था। इन परिस्थितियों में नारी शक्ति का न केवल ह्वास हुआ,बल्कि लोप भी होने लगा।
मध्द्यकालीन सामंतवाद ने नारी को भोग्या बनाकर उसकी शक्तियों को कीलित कर दिया। परिणामस्वरूप, नारी शक्ति का प्रयोजन केवल पुरूष के मनोरंजन और संतान-प्रजनन तक सीमित हो गया। वह स्थायी-हीनता बोध से ग्रस्त होकर अपंग व्यक्तित्व की मालकिन बन गई। यद्यपि इस लंबे अंतराल में अनेक नारियों ने भी इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में अपना नाम दर्ज किया है, किंतु इनकी संख्या नगण्य ही रही। पिछली पूरी शताब्दी नारी शक्ति के पुनर्जागरण का काल रहा है। अमेरिका तथा यूरोप में नारी स्वतंत्रता का बिगुल पहले से ही बज रहा था, किंतु वहाँ भी नारी की पूर्ण शक्ति का उदघाटन नही हो पा रहा था। एशियाई एवं अफ्रीकी देशों में यह प्रक्रिया थोड़ी देरी से प्रारंभ हुई। भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में नारी शक्ति के जागरण के लिए संविधान के जरिए एवं स्वतंत्र संगठनों के माध्यम से अनेक प्रयास किए गए। मुस्लिम देशों में तो अभी भी नारी–चेतना के द्वार अवरूद्ध हैं।
बीसवीं शताब्दी में भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बाँगलादेश, आदि देशों में नारियों ने राजनीतिक शक्ति के रूप में सर्वोत्तम प्रदर्शन किया है और आज विश्व स्तर पर जीवन के सभी क्षेत्रों में नारी शक्ति उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही है।विज्ञान,उद्योग, व्यवसाय,शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, ऱक्षा, क्रीड़ा, कला, संस्कृति आदि क्षेत्रों में महिलाएं अपना सफलतम प्रदर्शन कर रही हैं।
आज भी दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से के देहाती इलाकों में नारी की श्रम-शक्ति कृषि और घरेलू उत्पादों में पुरूष से अधिक उपार्जित कर रही हैं। इधर वैज्ञानिक विकास के फलस्वरूप टेलीफोन आपरेटर, कंप्यूटर, साफ्टवेयर उद्योगों में क्रियाशील सेवाओं में नारी शक्ति का अधिक नियोजन हो रहा है।पाश्चात्य देशों में जहाँ नारी की शिक्षा का स्तर बढ़ा है वहाँ नारियां पुरूष क्षेत्र में भी पूर्ण दक्षता के साथ कार्य कर रही हैं।चिकित्सा, शिक्षा, कानून आदि क्षेत्रों में उनकी संख्या पर्याप्त है। भारत में नारी शिक्षा के स्तर में सुधार के फलस्वरूप उनके लिए नौकरियों के नए-नए अवसर सामने आ रहे हैं। आँगनवाड़ी कार्यकर्ता से लेकर पायलट तक के रूप में नारी कार्यशील है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 16 में नारी को पुरूष के समान ही अधिकार दिए गए हैं। विगत 64 वर्षों में समय-समय पर नारी के उत्थान और उसके अधिकारों के विस्तारों के लिए कई अधिनियम भी पारित किए गए। दहेज-समस्या,देह व्यापार समस्या आदि के साथ-साथ पैतृक संपत्ति मे भागीदारी और पिता की तरह माता के नाम का उल्लेख करने संबंधी अधिनियम भी पारित किए गए।
पाश्चात्य देशों में नारियों द्वारा चलाए गए ‘वूमेन्स लीव’ या ‘फेमिनिस्ट मूवमेंट’ इस बात की ओर संकेत करते हैं कि पश्चिम में कई नारियां अपनी शक्ति के विकाश की सही दिशा नहीं तलाश पा रही हैं और स्वयं अंतर्द्वन्धों से ग्रस्त हैं। मूल प्रश्न उस पुरूष मानसिकता का है, जिसमें नारी को देह से अधिक और कुछ नहीं माना जा रहा है। नारी शक्ति के जागरण में पुरूष के वे संस्कार आड़े आ रहे हैं जो शताब्दियों से उनमें सक्रिय हैं।
आज हमारे देश में नारी देह-दोहन प्रकरण में बेहताशा वद्धि क्यों हो रही है! अनेक युवतियां दहेज के दानव की बलि क्यों चढ रही हैं! आज भी गांव-देहातों में नारी को चारदीवारी के अंदर घूँघट डालकर असूर्यपश्या बनाने की कोशिश क्यों की जाती है! तलाक के बाद नारी के गुजारा भत्ता की राशि इतना कम क्यों ऱखी जाती है कि उससे अकेले भी उसका भरण-पोषण न हो सके! क्यों किशोरियों को बेचकर उनको वेश्यालय के नरक में ढकेला जा रहा है! बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं तक से सरेआम बलात्कार के कुत्सित कृत्य क्यों हो रहे हैं!
यद्यपि यह कहना भी उचित नही है कि मात्र पुरूष ही इसके लिए दोषी हैं।महिलाएं विज्ञापनों, फिल्मों एवं अन्य कार्यक्रमों में अपने आपको जिस तरह प्रस्तुत कर रही हैं, उसमें देह उत्तेजक वातावरण बनाने की संभावनाएं प्रबल रही हैं। उपभोक्तावाद ने नारी देह को नए सिरे से भुनाने का प्रचार तंत्र बनाया है और यह एक तरह का आधुनिकीकृत सामंतवाद है, जिसके जाल मे स्वयं पढ़ी लिखी नारिय़ां भी फँस रही हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं वेश्यालयों की संचालिका बन रही हैं।
आर्थिक प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दौड़ में नारी और पुरूष, दोनों इतने मशगूल हो गए हैं कि सारी नैतिकताएं ताक पर रख दी गई हैं। जब नैतिकता रहित समाज तैयार होता है तब उसका पहला आघात भी नारी को ही भोगना पड़ता है। आज नारी को संरक्षण या आरक्षण की जरूरत नही है। वह अपने भीतर से नारी होने की कुंठा का त्याग कर दे-इतना ही काफी है।
शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को बेहतर अवसर उपलब्ध हो सके: सामाजिक स्तर पर दहेज समस्या, भ्रूण-परीक्षण आदि पर कड़े प्रतिबंध हो और सामाजिक संगठन इन पर नियंत्रण रखे तो नारी शक्ति की संपूर्णता का लाभ समाज उठा सकेगा, अन्यथा उभरती हुई नारी शक्ति को सही परिप्रेक्ष्य नही मिल पाएगा, जिससे सृजन की बजाय ध्वंस की आर्थिक संभावना बनी रहेगी।
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नारी और पुरूष, दोनों के बीच के दो दल है। इन दो दलों के माध्यम से ही सृष्टि-शस्य का विकास हुआ है। नारी की शक्ति को रूपा कहा गया है-‘या देबी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।‘यह केवल दुर्गा की शक्ति ही नही है,समस्त नारी जाति की स्तुति है।सभी प्राणियों में जो शक्ति रूप में उपस्थित है, हम उन्हे प्रणाम करते हैं। यही सृष्टि नारी को सृष्टि-सृजन का मूल कारण बनाती है। उसके पास पालन की अदभुत शक्ति है। शिशु को दुग्ध पालन कराने से लेकर संपूर्ण विश्व को करूणा से आप्यायित करने वाली नारी संसार की पर्याय भी है। वह चंडिका भी है। पाश्चात्य देशों में नारी को पुरूष की अर्धांगिनी नही उसे बेटर हाफ (Better Half) भी माना गया है और स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक सफल पुरूष के पीछे किसी नारी का ही हाथ होता है।‘जहाँ नारी का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं।’
शारीरिक संरचना की भिन्नता में नारी को स्वभावत: सुकोमल शरीर और मनोलोक प्रदान किया गया है। वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है। उसके आचरण में सर्वाधिक शील समाया हुआ है। इसके साथ ही उसमें शक्ति का वह स्फुल्लिंग भी प्रज्वलित होता रहता है, जो सृजन के साथ-साथ संहार की संपूर्ण संभावनाएं अपने तेज में समेटे रहता है। इस तरह नारी सौंदर्य, शील और शक्ति की त्रियामी क्षमताओं का समुच्चय है। सृष्टि के प्रारंभिक काल से लेकर पूर्व वैदिक काल तक नारी की शक्ति का सम्यक उपयोग सृष्टि को सुंदर बनाने में होता रहा है। नारी-पुरूष, का भेद उस काल तक मेधा, प्रतिभा, शक्ति आदि स्तरों पर नही था। पुरूष के समान नारी जीवन के सभी प्रसंगों में अपनी संपूर्ण शक्तियों का प्रयोग करती थी।
उत्तर वैदिक काल संपूर्ण विश्व में नारी शक्ति के अपक्षय का काल रहा है। पुरूष की बढती अहम्मन्यता ने नारी को दोयम श्रेणी का नागरिक मान लिया। उसे अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं में सुरक्षित रखने की नीति के अंतर्गत समाहित कर लिया। बचपन में पिता, यौवन में पति और बुढापे में पुत्र नारी का संरक्षक होता है। वह कभी स्वतंत्र नही रह सकती। यह दृष्टिकोण भारतीय मनु का ही नही था अपितु मिश्र, ग्रीक, रोम आदि में भी स्त्री को पण्य वस्तु जैसा स्वीकार किय़ा गया। वह गुलामों जैसी खरीदी-बेची जाने लगी थी। एक पुरूष अनेक नारियों का स्वामी य़ा पति बन सकता था। इन परिस्थितियों में नारी शक्ति का न केवल ह्वास हुआ,बल्कि लोप भी होने लगा।
मध्द्यकालीन सामंतवाद ने नारी को भोग्या बनाकर उसकी शक्तियों को कीलित कर दिया। परिणामस्वरूप, नारी शक्ति का प्रयोजन केवल पुरूष के मनोरंजन और संतान-प्रजनन तक सीमित हो गया। वह स्थायी-हीनता बोध से ग्रस्त होकर अपंग व्यक्तित्व की मालकिन बन गई। यद्यपि इस लंबे अंतराल में अनेक नारियों ने भी इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में अपना नाम दर्ज किया है, किंतु इनकी संख्या नगण्य ही रही। पिछली पूरी शताब्दी नारी शक्ति के पुनर्जागरण का काल रहा है। अमेरिका तथा यूरोप में नारी स्वतंत्रता का बिगुल पहले से ही बज रहा था, किंतु वहाँ भी नारी की पूर्ण शक्ति का उदघाटन नही हो पा रहा था। एशियाई एवं अफ्रीकी देशों में यह प्रक्रिया थोड़ी देरी से प्रारंभ हुई। भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में नारी शक्ति के जागरण के लिए संविधान के जरिए एवं स्वतंत्र संगठनों के माध्यम से अनेक प्रयास किए गए। मुस्लिम देशों में तो अभी भी नारी–चेतना के द्वार अवरूद्ध हैं।
बीसवीं शताब्दी में भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बाँगलादेश, आदि देशों में नारियों ने राजनीतिक शक्ति के रूप में सर्वोत्तम प्रदर्शन किया है और आज विश्व स्तर पर जीवन के सभी क्षेत्रों में नारी शक्ति उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही है।विज्ञान,उद्योग, व्यवसाय,शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, ऱक्षा, क्रीड़ा, कला, संस्कृति आदि क्षेत्रों में महिलाएं अपना सफलतम प्रदर्शन कर रही हैं।
आज भी दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से के देहाती इलाकों में नारी की श्रम-शक्ति कृषि और घरेलू उत्पादों में पुरूष से अधिक उपार्जित कर रही हैं। इधर वैज्ञानिक विकास के फलस्वरूप टेलीफोन आपरेटर, कंप्यूटर, साफ्टवेयर उद्योगों में क्रियाशील सेवाओं में नारी शक्ति का अधिक नियोजन हो रहा है।पाश्चात्य देशों में जहाँ नारी की शिक्षा का स्तर बढ़ा है वहाँ नारियां पुरूष क्षेत्र में भी पूर्ण दक्षता के साथ कार्य कर रही हैं।चिकित्सा, शिक्षा, कानून आदि क्षेत्रों में उनकी संख्या पर्याप्त है। भारत में नारी शिक्षा के स्तर में सुधार के फलस्वरूप उनके लिए नौकरियों के नए-नए अवसर सामने आ रहे हैं। आँगनवाड़ी कार्यकर्ता से लेकर पायलट तक के रूप में नारी कार्यशील है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 16 में नारी को पुरूष के समान ही अधिकार दिए गए हैं। विगत 64 वर्षों में समय-समय पर नारी के उत्थान और उसके अधिकारों के विस्तारों के लिए कई अधिनियम भी पारित किए गए। दहेज-समस्या,देह व्यापार समस्या आदि के साथ-साथ पैतृक संपत्ति मे भागीदारी और पिता की तरह माता के नाम का उल्लेख करने संबंधी अधिनियम भी पारित किए गए।
पाश्चात्य देशों में नारियों द्वारा चलाए गए ‘वूमेन्स लीव’ या ‘फेमिनिस्ट मूवमेंट’ इस बात की ओर संकेत करते हैं कि पश्चिम में कई नारियां अपनी शक्ति के विकाश की सही दिशा नहीं तलाश पा रही हैं और स्वयं अंतर्द्वन्धों से ग्रस्त हैं। मूल प्रश्न उस पुरूष मानसिकता का है, जिसमें नारी को देह से अधिक और कुछ नहीं माना जा रहा है। नारी शक्ति के जागरण में पुरूष के वे संस्कार आड़े आ रहे हैं जो शताब्दियों से उनमें सक्रिय हैं।
आज हमारे देश में नारी देह-दोहन प्रकरण में बेहताशा वद्धि क्यों हो रही है! अनेक युवतियां दहेज के दानव की बलि क्यों चढ रही हैं! आज भी गांव-देहातों में नारी को चारदीवारी के अंदर घूँघट डालकर असूर्यपश्या बनाने की कोशिश क्यों की जाती है! तलाक के बाद नारी के गुजारा भत्ता की राशि इतना कम क्यों ऱखी जाती है कि उससे अकेले भी उसका भरण-पोषण न हो सके! क्यों किशोरियों को बेचकर उनको वेश्यालय के नरक में ढकेला जा रहा है! बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं तक से सरेआम बलात्कार के कुत्सित कृत्य क्यों हो रहे हैं!
यद्यपि यह कहना भी उचित नही है कि मात्र पुरूष ही इसके लिए दोषी हैं।महिलाएं विज्ञापनों, फिल्मों एवं अन्य कार्यक्रमों में अपने आपको जिस तरह प्रस्तुत कर रही हैं, उसमें देह उत्तेजक वातावरण बनाने की संभावनाएं प्रबल रही हैं। उपभोक्तावाद ने नारी देह को नए सिरे से भुनाने का प्रचार तंत्र बनाया है और यह एक तरह का आधुनिकीकृत सामंतवाद है, जिसके जाल मे स्वयं पढ़ी लिखी नारिय़ां भी फँस रही हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं वेश्यालयों की संचालिका बन रही हैं।
आर्थिक प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दौड़ में नारी और पुरूष, दोनों इतने मशगूल हो गए हैं कि सारी नैतिकताएं ताक पर रख दी गई हैं। जब नैतिकता रहित समाज तैयार होता है तब उसका पहला आघात भी नारी को ही भोगना पड़ता है। आज नारी को संरक्षण या आरक्षण की जरूरत नही है। वह अपने भीतर से नारी होने की कुंठा का त्याग कर दे-इतना ही काफी है।
शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को बेहतर अवसर उपलब्ध हो सके: सामाजिक स्तर पर दहेज समस्या, भ्रूण-परीक्षण आदि पर कड़े प्रतिबंध हो और सामाजिक संगठन इन पर नियंत्रण रखे तो नारी शक्ति की संपूर्णता का लाभ समाज उठा सकेगा, अन्यथा उभरती हुई नारी शक्ति को सही परिप्रेक्ष्य नही मिल पाएगा, जिससे सृजन की बजाय ध्वंस की आर्थिक संभावना बनी रहेगी।
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