Tuesday, June 28, 2011

नारी शक्ति और हमारा समाज


नारी और पुरूष, दोनों के बीच के दो दल है। इन दो दलों के माध्यम से ही सृष्टि-शस्य का विकास हुआ है। नारी की शक्ति को रूपा कहा गया है-‘या देबी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।‘यह केवल दुर्गा की शक्ति ही नही है,समस्त नारी जाति की स्तुति है।सभी प्राणियों में जो शक्ति रूप में उपस्थित है, हम उन्हे प्रणाम करते हैं। यही सृष्टि नारी को सृष्टि-सृजन का मूल कारण बनाती है। उसके पास पालन की अदभुत शक्ति है। शिशु को दुग्ध पालन कराने से लेकर संपूर्ण विश्व को करूणा से आप्यायित करने वाली नारी संसार की पर्याय भी है। वह चंडिका भी है। पाश्चात्य देशों में नारी को पुरूष की अर्धांगिनी नही उसे बेटर हाफ (Better Half) भी माना गया है और स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक सफल पुरूष के पीछे किसी नारी का ही हाथ होता है।‘जहाँ नारी का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं।’
शारीरिक संरचना की भिन्नता में नारी को स्वभावत: सुकोमल शरीर और मनोलोक प्रदान किया गया है। वह सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है। उसके आचरण में सर्वाधिक शील समाया हुआ है। इसके साथ ही उसमें शक्ति का वह स्फुल्लिंग भी प्रज्वलित होता रहता है, जो सृजन के साथ-साथ संहार की संपूर्ण संभावनाएं अपने तेज में समेटे रहता है। इस तरह नारी सौंदर्य, शील और शक्ति की त्रियामी क्षमताओं का समुच्चय है। सृष्टि के प्रारंभिक काल से लेकर पूर्व वैदिक काल तक नारी की शक्ति का सम्यक उपयोग सृष्टि को सुंदर बनाने में होता रहा है। नारी-पुरूष, का भेद उस काल तक मेधा, प्रतिभा, शक्ति आदि स्तरों पर नही था। पुरूष के समान नारी जीवन के सभी प्रसंगों में अपनी संपूर्ण शक्तियों का प्रयोग करती थी।
उत्तर वैदिक काल संपूर्ण विश्व में नारी शक्ति के अपक्षय का काल रहा है। पुरूष की बढती अहम्मन्यता ने नारी को दोयम श्रेणी का नागरिक मान लिया। उसे अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं में सुरक्षित रखने की नीति के अंतर्गत समाहित कर लिया। बचपन में पिता, यौवन में पति और बुढापे में पुत्र नारी का संरक्षक होता है। वह कभी स्वतंत्र नही रह सकती। यह दृष्टिकोण भारतीय मनु का ही नही था अपितु मिश्र, ग्रीक, रोम आदि में भी स्त्री को पण्य वस्तु जैसा स्वीकार किय़ा गया। वह गुलामों जैसी खरीदी-बेची जाने लगी थी। एक पुरूष अनेक नारियों का स्वामी य़ा पति बन सकता था। इन परिस्थितियों में नारी शक्ति का न केवल ह्वास हुआ,बल्कि लोप भी होने लगा।
मध्द्यकालीन सामंतवाद ने नारी को भोग्या बनाकर उसकी शक्तियों को कीलित कर दिया। परिणामस्वरूप, नारी शक्ति का प्रयोजन केवल पुरूष के मनोरंजन और संतान-प्रजनन तक सीमित हो गया। वह स्थायी-हीनता बोध से ग्रस्त होकर अपंग व्यक्तित्व की मालकिन बन गई। यद्यपि इस लंबे अंतराल में अनेक नारियों ने भी इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में अपना नाम दर्ज किया है, किंतु इनकी संख्या नगण्य ही रही। पिछली पूरी शताब्दी नारी शक्ति के पुनर्जागरण का काल रहा है। अमेरिका तथा यूरोप में नारी स्वतंत्रता का बिगुल पहले से ही बज रहा था, किंतु वहाँ भी नारी की पूर्ण शक्ति का उदघाटन नही हो पा रहा था। एशियाई एवं अफ्रीकी देशों में यह प्रक्रिया थोड़ी देरी से प्रारंभ हुई। भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में नारी शक्ति के जागरण के लिए संविधान के जरिए एवं स्वतंत्र संगठनों के माध्यम से अनेक प्रयास किए गए। मुस्लिम देशों में तो अभी भी नारी–चेतना के द्वार अवरूद्ध हैं।
बीसवीं शताब्दी में भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बाँगलादेश, आदि देशों में नारियों ने राजनीतिक शक्ति के रूप में सर्वोत्तम प्रदर्शन किया है और आज विश्व स्तर पर जीवन के सभी क्षेत्रों में नारी शक्ति उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही है।विज्ञान,उद्योग, व्यवसाय,शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, ऱक्षा, क्रीड़ा, कला, संस्कृति आदि क्षेत्रों में महिलाएं अपना सफलतम प्रदर्शन कर रही हैं।
आज भी दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से के देहाती इलाकों में नारी की श्रम-शक्ति कृषि और घरेलू उत्पादों में पुरूष से अधिक उपार्जित कर रही हैं। इधर वैज्ञानिक विकास के फलस्वरूप टेलीफोन आपरेटर, कंप्यूटर, साफ्टवेयर उद्योगों में क्रियाशील सेवाओं में नारी शक्ति का अधिक नियोजन हो रहा है।पाश्चात्य देशों में जहाँ नारी की शिक्षा का स्तर बढ़ा है वहाँ नारियां पुरूष क्षेत्र में भी पूर्ण दक्षता के साथ कार्य कर रही हैं।चिकित्सा, शिक्षा, कानून आदि क्षेत्रों में उनकी संख्या पर्याप्त है। भारत में नारी शिक्षा के स्तर में सुधार के फलस्वरूप उनके लिए नौकरियों के नए-नए अवसर सामने आ रहे हैं। आँगनवाड़ी कार्यकर्ता से लेकर पायलट तक के रूप में नारी कार्यशील है।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 16 में नारी को पुरूष के समान ही अधिकार दिए गए हैं। विगत 64 वर्षों में समय-समय पर नारी के उत्थान और उसके अधिकारों के विस्तारों के लिए कई अधिनियम भी पारित किए गए। दहेज-समस्या,देह व्यापार समस्या आदि के साथ-साथ पैतृक संपत्ति मे भागीदारी और पिता की तरह माता के नाम का उल्लेख करने संबंधी अधिनियम भी पारित किए गए।
पाश्चात्य देशों में नारियों द्वारा चलाए गए ‘वूमेन्स लीव’ या ‘फेमिनिस्ट मूवमेंट’ इस बात की ओर संकेत करते हैं कि पश्चिम में कई नारियां अपनी शक्ति के विकाश की सही दिशा नहीं तलाश पा रही हैं और स्वयं अंतर्द्वन्धों से ग्रस्त हैं। मूल प्रश्न उस पुरूष मानसिकता का है, जिसमें नारी को देह से अधिक और कुछ नहीं माना जा रहा है। नारी शक्ति के जागरण में पुरूष के वे संस्कार आड़े आ रहे हैं जो शताब्दियों से उनमें सक्रिय हैं।
आज हमारे देश में नारी देह-दोहन प्रकरण में बेहताशा वद्धि क्यों हो रही है! अनेक युवतियां दहेज के दानव की बलि क्यों चढ रही हैं! आज भी गांव-देहातों में नारी को चारदीवारी के अंदर घूँघट डालकर असूर्यपश्या बनाने की कोशिश क्यों की जाती है! तलाक के बाद नारी के गुजारा भत्ता की राशि इतना कम क्यों ऱखी जाती है कि उससे अकेले भी उसका भरण-पोषण न हो सके! क्यों किशोरियों को बेचकर उनको वेश्यालय के नरक में ढकेला जा रहा है! बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं तक से सरेआम बलात्कार के कुत्सित कृत्य क्यों हो रहे हैं!
यद्यपि यह कहना भी उचित नही है कि मात्र पुरूष ही इसके लिए दोषी हैं।महिलाएं विज्ञापनों, फिल्मों एवं अन्य कार्यक्रमों में अपने आपको जिस तरह प्रस्तुत कर रही हैं, उसमें देह उत्तेजक वातावरण बनाने की संभावनाएं प्रबल रही हैं। उपभोक्तावाद ने नारी देह को नए सिरे से भुनाने का प्रचार तंत्र बनाया है और यह एक तरह का आधुनिकीकृत सामंतवाद है, जिसके जाल मे स्वयं पढ़ी लिखी नारिय़ां भी फँस रही हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं वेश्यालयों की संचालिका बन रही हैं।
आर्थिक प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दौड़ में नारी और पुरूष, दोनों इतने मशगूल हो गए हैं कि सारी नैतिकताएं ताक पर रख दी गई हैं। जब नैतिकता रहित समाज तैयार होता है तब उसका पहला आघात भी नारी को ही भोगना पड़ता है। आज नारी को संरक्षण या आरक्षण की जरूरत नही है। वह अपने भीतर से नारी होने की कुंठा का त्याग कर दे-इतना ही काफी है।
शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियों को बेहतर अवसर उपलब्ध हो सके: सामाजिक स्तर पर दहेज समस्या, भ्रूण-परीक्षण आदि पर कड़े प्रतिबंध हो और सामाजिक संगठन इन पर नियंत्रण रखे तो नारी शक्ति की संपूर्णता का लाभ समाज उठा सकेगा, अन्यथा उभरती हुई नारी शक्ति को सही परिप्रेक्ष्य नही मिल पाएगा, जिससे सृजन की बजाय ध्वंस की आर्थिक संभावना बनी रहेगी।
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Friday, June 24, 2011

शमशेर बहादुर सिंह :जन्मशति पर विशेष

यह हिंदी के अप्रतिम कवि शमशेर बहादुर सिंह का जन्मशती वर्ष है। उन्होंने एक बहुत सरल-सीधा जीवन जिया। लोग उन्हे जानें, उनकी कविताओं का प्रचार-मूल्यांकन हो उन्हे परवाह नही रही।अपने जीवन के दुखों और अकेलेपन को उन्होंने एक पारदर्शी भाषा में बदल दिया। उनकी कविता हिंदी की विशाल काव्य-परंपरा में अलग ही नजर आती है। उसमें उदात्त भावों का गुंफन है, गहरी संवेदना और मन को छू देने वाली सादगी है। वे जीवन के अनुभवों को बिंबों में बदल देते हैं।सागर की लहरें चमकती धूप में पछाड़ खाती हों -इस तरह उनके बिंब भाषा की सतह से उठते हैं और संवेदना का अनूठा ही संसार रच देते हैं। उनके भावों की दुनिया बड़ी ही निष्पाप है,कोमल और सघन है। वे सौंदर्य और प्रेम के कवि थे--पर सामान्य अर्थों में नहीं। उन्होंने सौंदर्य और प्रेम का एक भव्य,विराट और स्तब्ध कर देने वाला संसार रचा था। उनकी कविताएं कहीं-कहीं सुश्किल और जटिल संरचनाओं वाली लगती हैं, वे पाठक से भी धैर्य, साधना और निर्मल अंतस की मांग करती हैं। परंतु एक बार उनके काव्य-संसार में पहुँचने के बाद कोई भी उनके जादू से बच नही सकता। उनके शब्द बहुत धीमे बहुत आहिस्ता आपके सौंदर्यबोध को रूपांतरित करना और सीधे आपके अभ्यंतर से संवाद करना शुरू कर देते हैं। वे हिंदी के उस विस्मृत और दिनोंदिन खत्म होती गई साहित्य परंपरा के आखिरी लोगों में थे,जिनके लिए विचारों और मूल्यों के अनुरूप जीना ही जीवन का एकमात्र तरीका था-जो इस भाषा और देश को बनाने के संघर्ष में टूटते और एकाकी होते चले गए।
विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

Sunday, June 19, 2011

हिंदी भाषा और राष्ट्र की अस्मिता
प्रेम सागर सिंह

भाषा का संसार एक जीता-जागता संसार है। भाषा एक माध्यम भर नही है, वह मनुष्य की समूची विकास परंपरा है। उसकी संपूर्ण संस्कृति की भारसाधक और आधारभूत शक्ति का नाम ‘भाषा’ होता है। भाषा के माध्यम से मनुष्य अपनी, अपने युग की, अपने परिवेश की तमाम आशाओं, आकांक्षाओं, उपलब्धियों, प्रवृतियों, सफलताओं-विफलताओं को सँजोकर ही नही रखता, बल्कि अतीत की स्मृतियों और भविष्य की नीहारिकाओं को भी अनुभव करता है। भाषा एक भौतिक माध्यम भर नही है, वह विचारों और अनुभवों के तालमेल से निर्मित एक जीवनचर्या भी है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा केवल हवा, पानी की तरह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता मात्र नही है,वह एक आवश्यकता के साथ जीवन की समग्र अर्थवत्ता भी है। भाषा में ही जातीय स्मृतियों, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति और समाज का अनुभव होता है और उसे सुरक्षित रखा जाता है।
हिंदी भाषा भी इन्ही अर्थों में भारतीय जीवन में केवल एक अभिव्यक्ति का माध्यम भर नही है, वह भारतीय जीवन की समग्रता के स्पंदनों का ध्वन्यांकन भी है। इस बात को लक्ष्य करके ही महात्मा गांधी कहा करते थे - हिंदी का प्रश्न मेरे लिए आजादी का प्रश्न है। हिंदी भाषा केवल एक भाषा मात्र नही है, वह संपूर्ण देश के संस्कार के रूप में पल्ल्वित और पुष्पित भाषा है। यदि हिंदी के इतिहास और विकास को बहुत ध्यान से देखा जाए तो यह केवल यह केवल भआषा की स्वतंत्र इकाई नही दिखती.हिंदी की जड़ें संस्कृत,प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, लोक बोलियों, अरबी-फारसी आदि देशी -विदेशी भाषाओं के रस से सींची गयी हैं। इन भाषाओं और बोलियों के तमाम शब्दों को हिंदी ने आत्मसात ही नही किया वरन् इनकी तहजीब भी अपने साथ जोड़ी। भारतीय जीवन प्रणाली का वह गुण, जिसे हम भारत की सहिष्णुता, सदाशयता और समन्वयकारी चेतना के रूप में जानते हैं,बहुत लंबे काल बाद भाषा के रूप में हिंदी अपनी संपूर्ण चेतना के साथ अभिव्यक्त हो सकी है।
हिंदी भाषा वह ताकत है,जिसने हमारे देश की विभिन्न संस्कृतियों की ऊर्जा का प्रभाव अनुभव किया जा सकता है।संस्कृत की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना,प्राकृत और अपभ्रंश की व्यापक लोक-चेतनातथा क्षेत्रीय बोलियों की मिठासउनके स्थानीय रंग-इन सबका मिश्रण हिंदी में दिखता है। इसके साथ ही अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के सत्संग से भी उसने अपने आपको निखारा है। इन भाषाओं का आंशिक शक्ति को लेकर अपने भीतर समेटनेवाली हिंदी भाषा का वातायन अभी खुला हुआ है। वह दुनिया की तमाम भाषाओं से अभी भी कुछ न कुछ ग्रहण करने के लिए सर्वदा तैयार है।
हिंदी को केवल उत्तर भारत के लोगों ने ही नही अपनाया, अपितु इसे दक्षिण भारत में भी महत्व मिला है। यदि भाषा की राजनीति का सिलसिला शुरू न हुआ होता तो आज दक्षिण में हिंदी भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका रही होती। हिंदी का विस्तार दूब की तरह हुआ है। दूब जैसी क्षमताएं हिंदी के जीवट के साथ जुड़ी हुई हैं। वह सामान्य लोगों के कारण ही भारत में एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैली हुई है। भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों जैसे पुरी, द्वारकापुरी, बद्रीनाथ, रामेश्वरम, चारों कोनों में वह तीर्थयात्रियों,बिसातियों, साधु-संतों के साथ चलती रही है और देश की सीमाओं को छूती हुई अपनी आत्मा में संपूर्ण देश को समेटती रही है।
स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान तो हिंदी भाषा ने पूरे देश को एकता की डोर में बाँध दिया था। अपनी जाँबाज क्षमता को हिंदी ने उस समय कौमी तरानों और राष्ट्रीय नेताओं की तहरीरों से अभिव्यक्त किया था। हिंदी भाषा जब बोलती थी तब पूरा हिंदुस्तान बोलता था, अँगड़ाई लेता था, उत्सर्ग के लिए तैयार हो उठता था। ऐसा केवल इसलिए नही होता था कि हिंदी भाषा देश के सबसे बड़े क्षेत्र में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा थी,बल्कि इसलिए कि यह भाषा भारत की आत्मा की गहराइयों से अनुगुँजती थी। मजदूर, किसान ,सामान्यजन अपने दु:ख-दर्द इस भाषा में व्यक्त कर रहा था। यह वर्ग देश के चारो कोनों में उत्तर भारत से विस्थापित होकर फैल रहा था। फीजी, गुयाना, सुरीनाम, सुमात्रा, श्रीलंका, जावा, मारीशस आदि देशों तक ये लोग पहुँच गए। ये गिरमिटिया मजदूर, तीर्थ-क्षेत्रों के पंडे नए जगहों पर जाकर भी अपने दैनिक जीवन की भाषा में अपनी जातीय स्मृतियों, ओर परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए हुए थे।
हिंदी भाषा कभी राजाश्रय प्राप्त नही कर पाई। वह अपने सामर्थ्य के आधार पर फैली और आगे बढ़ी। हिंदी भाषा जो,पहले ‘भाखा’ थी, श्रमिक-दलित का स्नेह पाते ही पुष्ट हुई। इसलिए इस भाषा की सांस्कृतिक चेतना का आयाम बहुत विस्तृत है।गांव की माटी से लेकर शहरों के सुंदर आँगन मे यह समभाव से खेलती रही है: लेकिन इसकी भावनाएं सदैव भारत के संघर्षशील वर्ग के साथ रही हैं।मध्यकाल में इसके भक्ति आंदोलन ने वस्तुत: एक सामान्य आंदोलन को जाग्रत किया था:जिसमें दादू, नामदेव,छीपा, पीपा, आदि कवि अपना अभिव्यक्ति दे रहे थे। इन कवियों ने हिंदी के माध्यम से एक जन-चेतना का विस्तार दिया। कबीर का संपूर्ण काव्य तो सामाजिक क्रांति का पर्याय ही है। तुलसी की समन्वय-साधना का भी आधार यह भाषा रही है। जायसी और रसखान की मिठास भरी गंगा–जमुनी संस्कृति को हिंदी के माध्यम से सहसूस किया जा सकता है। एक तरह से भारतीयजावन पद्धति और उसकी अस्मिता के जो नियामक तत्व हैं, उन्हे इस भाषा ने आत्मसात् किया है।
हिंदी भाषा ने भारत की शांतिप्रिय उदार चेतना को अपने व्यक्तित्व में ढाला है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी भाषा की इस प्रवृति का उल्लेख करते हुए लिखा है-‘हिंदी संघर्ष के भाषा के रूप में नही बल्कि संसार मे शांति का संदेशवाहिका भाषा के रूप में स्वीकृत हुई है। भारतवर्ष और और विदेशों में भी यह जिन लोगों की भाषा है, वे किसी को दबाने की नियत से नहीं गए। इसीलिए हिंदी भी दबे हुए लोगों के आवाज के रूप में उभरी है।‘ हिंदी ने अपनी गतिशीलता के कारण अपने आपको बदलते जीवन –परिदृश्यों के अनुरूप और भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला है।
हिंदी का आधुनिक साहित्य विश्व स्तरीय क्षमताओं से परिपूर्ण है। आजका हिंदी साहित्य हमारे बदलते सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक पक्षों को अपनी रचनात्मकता के माध्यम से सफलता के साथ प्रस्तुत कर रहा है। हमारे देश की बौद्धिक और दार्शनिक चेतना को हिंदी ने अपने स्तर पर महत्व प्रदान किया है। करोड़ों जनों की पैरोकारी करती यह भाषा इस देश को मजबूत करने का बहुत बड़ा आधार है। शिक्षा, न्यायालय और सरकारी कामकाज में जहाँ इस भाषा को माध्यम बनाया जा रहा है वहाँ स्वतंत्रता की सही अनुभूति से लोग अनुप्राणित हैं।हिंदी क्षेत्रीय तथा प्रांतीय भाषाओं को समुचित आदर दे रही है।
हिंदी की ग्राह्यता और सरलता को फिल्मों के माध्यम से भी अनुभव किया जा सकता है। हिंदी फिल्मों के गानों ने तो भारत के कोने-कोने में अपनी पैठ बना ली है।हिंदी भारत की अस्मिता की अभिव्यक्ति ही नही है,वह भारतीय अस्मिता को संरक्षित करने वाली भाषा भी है। आज इस बात को बहुत गहराई से अनुभव किया जा रहा है कि जब अंग्रेजी भाषा ने हमे भारताय संस्कारों से अलग-थलग कर दिया है तो ऐसे समय में यदि किसी भाषा में भारतीय संस्कारों को सुदृढ रखने व उन्हें युगानुकुल विकल्प देने की क्षमता है, तो वह भाषा हिंदी ही है; क्योंकि उसमें अपनी विकास-यात्रा में समूचे देश की समूची संस्कृति को अपनी अस्मिता में समेटा है।

Tuesday, June 7, 2011







अज्ञेय जी को सादर नमन
अज्ञेय जी की निम्नलिखित रचना मन के किसी कोने मे स्थायी भाव के रूप में अहर्निश झकझोर कर चली जाती थी।आप सबको यह रचना कितनी आंदोलित कर गयी,यह तो आप सबके प्रतिक्रिया से ही समझा जा सकता है।यदि यह रचना आपके मन के किसी भी कोने में थोड़ी सी जगह पाने मे समर्थ हुई हो तो अपनी काबिले-तारीफ प्रतिक्रिया देने की कोशिश करें-


ब्राह्म-मुहुर्त

उस प्यार में जियो
जो मैंने तुम्हे दिया है,
उस दु:ख में नही जिसे
बेझिझक मैं ने पिया है।

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हे सुनाया है,
उस आह में नही जिसे
मैने तुमसे छिपाया है।

उस द्वार से गुजरो
जो मैने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अंधकार से नही
जिसकी गहराई को
बार-बार मैने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं आशीशों से बुनता हूं,बुनुँगा:
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हे मैं राह से चुनता हूँ,चुनुँगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ,बनाता रहूँगा:
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।
सागर के किनारे तक
तुम्हे पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो:
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरूण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्य!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।
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