Thursday, February 6, 2014

एक टुकड़ा अडोल मन

                     सपनों की भी उम्र होती है         
                         
                              
                                                                      ( प्रेम सागर सिंह)
               
 आज मेरे मन का समुद्र,
बहुत शांत और अडोल है-
मेरे भीतर का आक्रोश और शोर भी,
बिल्कुल थम सा गया है-
यानि,
मैं मुकम्मल समुद्र हो गया हूँ,
अभी - इस वक्त।

मैं उन संगमर्मरी पत्थरों पे,
बैठ तो गया हूँ -
जिन पे बैठ कर मैं,
भविष्य के सपने तराशा करता था
पर,
मुझे उन सपनों के
तराशे हुये कतरे,
कहीं नहीं दिख रहे
इसे देख कर महसूस हो रहा है,
शायद,
सपनों की भी उम्र होती है।
इस वय में सपनों को निहारता हूं,
तो कई सवाल जहन में उतर जाते हैं,
और उतर जाता है एक मीठा सा दर्द,
जिसे अब चुपचाप सहते रहना,
मेरी नीयत सी बन गई है।
दिन उतरते ही सुहानी शाम उतर आती है,
नैराश्य भाव से उजाले को याद करते-करते,
जब मेरी निगाहें आकाश की ओर उठती हैं,
तब कविता का रंग खिलता नजर आता है,
डूब जाता है मन अतीत के समुद्र में,
और कविता मेरे माथे का पसीना पोछ देती है।
 ऐसा लगता है
साँझ के बाद सुबह आने की उम्मीद,
पिघल कर मन के समुद्र में,
धीरे-धीरे घुलती सी जा रही है.
कुछ देर तक यह एहसास सालता रहता है
और-
फिर अहले सुबह की उम्मीद में,
कि
सूरज की लालिमा में कविता का वजूद,
थके मन को सहारा देगा,
और मेरी कल्पना को प्राणवान करेगा।

बस – अकेले ही, मन ही मन
यूँ ही मैं गुनगुना रहा था,
और....
मेरी कविता बुनती जा रही थी,
बहती जा रही थी,
मझदार में फंसती जा रही थी
मेरी मजबूरी सिर्फ यह थी
कि
उस समय चाह कर भी मैं,
अपनी कविता को
बचा पाने में काफी कमजोर था,
क्योंकि जमाने की अनगिनत चाहतों के सामने,
मेरी चाहत की कद कुछ छोटी पड़ गई थी।

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