Sunday, December 21, 2014

Mathematics of love

                                                                         
                                           Dreamy mathematics of love

 

While sitting on the bank of
The sole pond of your village,
When you used to pelt Small
 Pebbles one by one into the pond,
Every time taking my name
I also used to go much deeper
Alongwith those stones in the pond.
While calculating the well preserved letters
Wherein all our emotional exchanges
Just formed part of memorable
Repository of past days,
You used to say
That your words in the old letters
Still gave fragrance and seems that
Those words give fragrance of  sandalwood
Like you
Today while sitting,
 on the de facto ground of reality,
when I ponder profoundly,
your feelings and emotion,
The same automatically vanishes
Because ………………..
Those days we were not apt,

In the love of mathematics.

Saturday, December 13, 2014

अभाव के द्वार पर

अभाव के द्वार पर




जब हम पहुंचते है अभाव के द्वार पर,
की कमी खल ही जाती है,
और व्यथित हो जाता है मन ।
क्‍योंकि,
वह भाव जिसकी आस लिए,
हम पहुंचते हैं दर किसी के,
वहां से गायब सा हो जाता है ।
स्‍वागत की वर्षों पुरानी
तस्‍वीर आज बदल सी गई है।
लोगों की संवेदनाओं के तार,
अहर्निश झंकृत होने के बजाए,
निरंतर टूटते और बिखरते जा रहे हैं,
पहले बंद दरवाजे खुल जाते थे,
आज खुले दरवाजे भी बंद हो जाते हैं।
 अभाव के द्वार पर प्रणय गीत,
मन को अब बेजान सा लगता है ।
गृहस्‍थ जीवन का भार ढो रहे,
संवेदनशील व्‍यक्ति के हृदय में भी,
प्रेम का वह भाव गोचर होता नहीं,
क्‍यों‍कि
वह स्‍वयं इतना बोझिल रहता है कि
दूसरे बोझ को ढोने के लिए,
वह इस योग्‍य होता ही नहीं ।
यादों के अतल में
आहिस्ता-आहिस्ता जाने की
कोशिश कर  ही रहा था
कि
चल रही शीतलहरी की
एक अलसाई शाम को,
हल्की धूप में तन्हा बैठा था
कि
अचानक भूली बिसरी
स्मृतियों के झरोखे से
उस रूपसी की याद
विचलित कर गयी ।
एक खूबसूरत अरमान को
मन में सजाए,
एक बार उसे देखने की आश लिए,
पहुंच गया था उस सुंदरी के दर पर,
हाथ संकोच-भाव से दस्तक के लिए  बढ गया
बंद दरवाजा भी एक आवाज से खुल गया।
सोचा मन ही मन,
खुशहाली से भरी जिंदगी होगी उसकी,
धन, धान्य और शांति से संपन्न होगी,
पर वैसा कुछ नजर नही आया,
जिसकी पहचान मेरी अन्वेषी आखों ने किया,
कहते हैं,
अभाव किसी परिचय का मुहताज नही होता,
शायद कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ,
नजदीक से देखा ,समझा ओर अनुभव किया,
लगा उसकी जिंदगी के सपने हैं,
टूटने के कगार पर
हालात को समझनें में देर न लगी क्योंकि
मैं पहुंच गया था अभाव के द्वार पर।







Monday, November 17, 2014

INDELIBLE MEMORY OF LOVE


Tease of feeling

PREM SAGAR SINGH


It would have been quite better,
Had your company been hidden,
Like roses between the pages of the book.
It gives sweet fragrance,
Sometimes says something
Sometimes starts teasing
You get yourself entwined
With the twist of the pages
And O, my femme fatal
I felt your presence
Just By touching
You by  my hand.
Embracing you in my arms
Retire to bed with tickling feelings,
To  stare at your juvenescence.
What a peaceful night,
That would have been!
Really true and one of its kind
Love reads and by saying love
I spent my whole life
With the twist of the  pages of book.
Immense love exists
in our fascinating  world of love,
Neither  you remained afraid
To be away from me
Nor i would have pain of your separation.
I  and you always remain afresh like rose

In the indelible memory of our love.

Saturday, October 11, 2014

प्रेम का स्वप्निल गणित

प्रेम का स्वप्निल गणित


प्रेम सागर सिंह

अपने गांव के,
इकलौते सरोवर के किनारे
जब तुम मेरा नाम लेकर,
फेंकती थी कंकण,
पानी की हिलोंरों के संग,
तब,
डूब जाया करता था मैं,
बहुत गहरे तक.....
सहेज कर रखे मेरे खतों का,
मेरे अहसासों का,
हिसाब किताब करते समय,
कहते थे,
तुम्हारी तरह
चंदन से महकते हैं,
तुम्हारे शब्द ...
आज जब,
यथार्थ की जमीन पर,
सोच की मुद्रा में बैठता हूं तो,
शून्य में,
लापता हो जाते हैं सारे अहसास,
सारी संवेदनाए,
क्योंकि ...
प्रेम के गणित में,
बहुत कमजोर थे हम दोनों।


Thursday, October 2, 2014

राही मासूम रजा

लेकिन मेरा लावारिस दिल

राही मासूम रजा

हिन्दी - उर्दू साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ राही मासूम रजा  का जन्म 1 सितम्बर 1927 ,को गाजीपुर (उत्तर प्रदेश ) के गंगोली गाँव में हुआ था। राही की प्रारंभिक शिक्षा गाजीपुर शहर में हुई।  इंटरकरने के बाद ये अलीगढ आ गए और यही से इन्होने उर्दू साहित्य में एम .ए.करने के बाद " तिलिस्म- -होशरुबा " पर पी.एच .डी.की डिग्री प्राप्त की । "तिलिस्म -ए -होशरुबा" उन कहानियो  का संग्रह है जिन्हें घर की नानी-दादी ,छोटे बच्चो को सुनाती है । पी .एच.डी करने के बाद ,ये  विश्वविद्यालय में उर्दू साहित्य के अध्यापक हो गए । अलीगढ में रहते हुए इन्होने अपने प्रसिद्ध उपन्यास " आधा-गाँव "की रचना की ,जोकि भारतीय साहित्य के इतिहास का एक मील का पत्थर साबित हुई। उन्हें रोज़गार के लिए फ़िल्म लेखन का काम शुरू किया। इसके लिए इन्हे कई बार बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा । लेकिन इन्होने बड़ी सफलतापूर्बक सबका निर्वाह किया फ़िल्म लेखन के साथ-साथ ये साहित्य रचना भी करते रहे । इन्होने जीवन को बड़े नजदीक से देखा और उसे साहित्य का विषय बनाया। इनके पात्र साधारण जीवन के होते और जीवन की समस्यों से जूझते हुए बड़ी जीवटता का परिचय देते है । इन्होने हिंदू -मुस्लिम संबंधो और बम्बई के फिल्मी जीवन को अपने साहित्य का विषय बनाया। इनके लिए भारतीयता आदमियत का पर्याय थी । इन्होने उर्दू साहित्य को देवनागरी लिपि में लिखने की शुरुआत की और जीवन पर्यंत इसी तरह साहित्य के सेवा करते रहे और इस तरह वे आम-आदमी के अपने सिपाही बने रहे । इस कलम के सिपाही का देहांत 15मार्च 1972 को हुआ। आईए, डालते हैं एक नजर उनकी एक कविता लेकिन मेरा लावारिस दिल   पर जो उनके विचारों को एक नया आयाम देती हैं ।


लेकिन मेरा लावारिस दिल  
:
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी 
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब 
कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल, ये मेरा दिल
ये लावारिस, ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला 
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बंदा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है
या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस खून और आँसू, चीखें, शोले
घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से कुछ दरवाजे
खून में लिथड़े कमसिन कुरते
जगह जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी
सहमी चूड़ी 
दरवाजों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव, ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम
ये आपकी दौलत आप सम्हालें
मैं बेबस हूँ
आग और खून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
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