Sunday, July 31, 2011

हो जाते है क्यूं आर्द्र नयन

प्रेम सागर सिंह


हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन
मन क्यूं अधीर हो जाता है.
स्वयं का अतीत लहर बन कर,
तेरी ओर बहा ले जाता है।

वे दिन भी बड़े ही स्नेहिल थे,
जब प्रेम सरोवर उफनाता था।
इसके चिर फेनिल उच्छवासों से,
स्वप्निल मन भी जरा सकुचता था।

कुछ कहकर कुंठित होता था।
तुम सुनकर केवल मुस्काती थी।
हम कितने कोरे थे उस पल,
कुछ बात समझ नही आती थी।

हम छुड़ गए दुर्भाग्य रहा
विधि का भी शायद साथ रहा।
लिखा भाग्य में जो कुछ था,
हम दोनों के ही साथ रहा।

सपने तो अब आते ही नही,
फिर भी उसे हम बुनते रहे।
जो पीर दिया था अपनों ने,
उसको ही सदा हम गुनते रहे।

अंतर्मन में समाहित रूप तुन्हारा
मन को उकसाया करता है।
लाख भुलाने पर भी वह पल,
प्रतिपल ही लुभाया करता है।

तुम जहाँ रहो आबाद रहो,
वैभव सुख-शांति साथ रहे।
पुनीत दृदय से कहता हूं,
जग की खुशियां पास रहे।

Saturday, July 30, 2011

हार
(रामधारी सिंह दिनकर)

हार कर मेरा मन पछताता है।
क्योंकि हारा हुआ आदमी
तुम्हे पसंद नही आता है।

लेकिन लड़ाई में मैंने कोताही कब की !
कोई दिन याद है,
जब मैं गफलत में खोया हूँ !
यानी तीर धनुष सिरहाने रख कर
कहीं छाँह में सोया हूँ !
हर आदमी की किस्मत में लिखी है।
जीत केवल संयोग की बात है।
किरणें कभी-कभी कौंध कर
चली जाती हैं,
नहीं तो पूरी जिंदगी
अंधेरी रात है।
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः


Wednesday, July 27, 2011




इस बार प्रस्तुत है अज्ञेय जी की कविता “तुम्हे क्या ”। आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह कविता भी अन्य कविताओं की तjह आपके मन को दोलायमान करने में सफल सिद्ध होगी। आपकी प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी।

तुम्हे क्या
(सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय)

तुम्हे क्या
अगर मैं दे देता हूँ अपना यह गीत
उस बाघिन को
जो हर रात दबे पाँव आती है
आस-पास फेरा लगाती है
और मुझे सोते सूँघ जाती है,
वह नींद, जिसमे मैं देखता हूँ सपने
जिन में ही उभरते हैं सब अपने
छंद तुक ताल बिंब
मौतों की भट्ठियों में तपाए हुए,
त्रास की नदियों के बहाव में बुझाए हुए ;
मिलते हैं शब्द मुझे आग में नहाए हुए !
और तो और
यही मैं कैसे मानूँ
कि तुम्ही हो वधू, राजकुमारी,
अगर पहले यह न पहचानूँ
कि वही बाघिन है मेरी असली माँ !
कि मैं उसी का बच्चा हूँ !
अनाथ, वनैला .........
देता हूँ, उसे
वासना में डूबे,अपने लहू में सने,
सारे बचकाने मोह और भ्रम अपने .....
गीत सब मन सूबे, सपने—
इसी में सच्चा हूँ:
अकेला.......
तुम्हे क्या, तुम्हे क्या, तुम्हे क्या .....

Saturday, July 23, 2011


अपने पिछले पोस्टों में मैने ‘अज्ञेय” जी की रचनाओं को पोस्ट किया था एव लोगों ने इस प्रयास को सराहा था। इस बार मैं सुदामा प्रसाद पाण्डेय,’धूमिल’ जी की बहुचर्चित रचना ‘ कविता ’ पोस्ट कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ की यह रचना भी अन्य रचनाओं की तरह आपके अंतर्मन को सप्तरंगी भावनाओं के धरातल पर आंदोलित करने के साथ उनके तथा मेरे प्रति भी आप सब के दिल में थोड़ी सी जगह पा जाए। मुझे आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप सब अपना COMMENT देकर मुझे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ अपनी प्रतिक्रियाओं को भी एक नयी दिशा और दशा देंगे। धन्यवाद।।
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कविता

उसे मालूम है कि शव्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रूचि नही-
आदत बन चुकी है

वह किसी गँवार आदमी की उब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी

एक संपूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिस में भींगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है और कविता।
हर तीसरे पाठ के बाद

नही-अब वहां अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, हो सके तो बगल से गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलुस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक्त इतना ही काफी है

वह बहुत पहले की बात है
जब कही, किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।
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Friday, July 22, 2011

जो पुल बनायेंगे
‘अज्ञेय’

जो पुल बनायेंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जायेंगे।
सेनाएँ हो जायेंगी पार
मारे जायेंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलायेंगे।

Thursday, July 21, 2011


परंपरा भंजक अज्ञेय : एक महाकाव्य सा जीवन
(जन्म शती पर विशेष)
(जन्म 07 मार्च, 1911 देवरिया जनपद (उ.प्र।)


इस हसीन जिंदगी के सप्तरंगी इंद्रधनुष की तरह “अज्ञेय” जी की रचनाओं के रंग भी बेशुमार हैं। जिंदगी को जितने रंगों में जिया जा सकता है, “अज्ञेय’ को उससे कहीं ज्यादा रंगों मे कहा जा सकता है। उनकी रचनाओं का चोला कुछ इस अंदाज का है कि जिंदगी का बदलता हुआ हर एक रंग उस पर सजने लगता है और उसकी फबन में चार चाँद लगा देता है। इसीलिए साहित्य जगत में एक लंबी दूरी तय करने तथा पर्दा करने के बाद भी “अज्ञेय” आज भी ताजा दम है, हसीन हैं और दिल नवाज भी। "

प्रेम सागर सिंह


अज्ञेय हिंदी कविता के ऐसे पुरूष हैं जिनकी जड़े हिंदी कविता में बड़े गहरे समाई हैं। 1937 ई. में अज्ञेय ने ‘सैनिक” पत्रिका और पुन: कोलकाता से निकलने वाले “विशाल भारत” के सम्पादन का कार्य किया। हिंदी साहित्य जगत में पदार्पण के पूर्व सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ सन 1943 में सेना में भर्ती हो गए लेकिन सन 1947 में सेना की नौकरी छोड़ कर “प्रतीक” नामक हिंदी पत्र के संपादन कार्य में जुट गए और अपना संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य के चतुर्दिक विकास के लिए समर्पित कर दिया। इसी पत्रिका के माध्यम से वे सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन के नाम से साहित्य–जगत में प्रतिष्ठित हुए। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के अवसर पर आयोजित समारोह में अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा था –“ लेखक परंपरा तोड़ता है जैसे किसान भूमि तोड़ता है। मैंने अचेत या मुग्धभाव से नही लिखा :जब परंपरा तोड़ी है तब यह जाना है कि परंपरा तोड़ने के मेरे निर्णय का प्रभाव आने वाली पीढियों पर भी पड़ेगा ”इस तरह अपने को “परंपराभंजक” कहे जाने के आरोप को भी साधार ठहराने वाले अज्ञेय का व्यक्तित्व कालजयी है।

अज्ञेय हिंदी कविता में नए कविता के हिमायती ऐसे कवियों में हैं, जिन्होंने कविता के इतिहास पर युगव्यापी प्रभाव छोड़ा है। कविता, कथा साहित्य, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, यात्रा-वृत, सभी विधाओं में एक सी गति रखने वाले अज्ञेय अपने जीवन में साहित्य की ऐसी किंवदंती बन गए थे, जिनकी शख्सियत, विचारधारा और काव्यात्मक फलश्रुति को केंद्र मे रख कर एक लंबे काल तक बहसें चलाई गई हैं। हिंदी कविता जिस तरह प्रगतिवाद मार्क्सवादी दर्शन की अवधारणाओं को रचनाधार बनाकर सामने आई, उसी तरह अज्ञेय ने पश्चिम के कला-आंदोलनों की भूमि पर प्रयोगवाद की नींव स्थापित की। प्रगतिवादी कविता को कलात्मक मानदंडों के निकष पर खारिज करने वाले अज्ञेय ने 1943 में सात कवियों का एक प्रयोगवादी काव्य-संकलन “तारसप्तक”शीर्षक से संपादित किया। इसी क्रम में दूसरा सप्तक (1957), तीसरा सप्तक (1959) तथा चौथा सप्तक (1979) का प्रकाशन हुआ। इन सप्तकों को लेकर उनके और प्रगतिवादी खेमे के साहित्यकारों के बीच लगातार खिंचाव बना रहा। इनकी निम्नलिखित रचनाएं इन्हे एक सजग रूपवादी कलाकार सिद्ध करती हैं।

काव्य- भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर छड़ भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनुष रौंदे हुए थे, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार-द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि उसे मैं जानता हूँ, सागर मुद्रा, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ,।

उपन्यास- शेखर एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।

कहानी–संग्रह- विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जय दोल, ये तेरे प्रतिरूप आदि।

गीति-नाट्य- उत्तर प्रियदर्शी

निबंध-संग्रह- त्रिशंकु, आत्मनेपद, हिंदी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, सब रंग और कुछ राग, भवन्ती, अंतरा, लिखी कागद कोरे, जोग लिखी, अद्यतन, आल-बाल, वत्सर आदि।

यात्रा-वृतांत- अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली।

अनुवाद- त्याग पत्र (जैनेन्द्र) और श्रीकांत (शरतचंद्र) उपन्यासों का अंग्रेजी अनुवाद।

लगभग पिछले छह दशकों तक अज्ञेय के प्रयोगवाद की काफी धूम रही है। इस बीच उनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। पूर्वा, इत्यलम, बावरा अहेरी, हरी घास पर छड़ भर, असाध्य वीणा, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि उसे मैं जानता हूं, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं, तथा ऐसा कोई घर आपने देखा है आदि। उनकी “शेखर एक जीवनी” तथा “नदी के द्वीप” तो उपन्यास साहित्य में इस शती की मानक कृतियाँ हैं। उनकी कहानियों, निबंधों एवं यात्रा संस्मरणों ने उनके व्यक्तित्व को एक अलग ही आभा दी है। प्रभूत लेखन के बावजूद प्राय: उनकी कलावादी प्रवृतियों के कारण उनके प्रति खास तरह के नकार का भाव भी साहित्यकारों में जड़ जमाए रहा है.परंतु प्रयोगवादी कविता को कोसते हुए अक्सर आलोचक इस तथ्य को नकार जाते हैं कि विषम परिस्थितियों में भी अज्ञेय ने प्रयोगवादी कविता की एक नयी जमीन तैयार की। छायावादी रूढ़ियों को तोड़ कर एक नयी लीक बनायी। हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार करना होगा कि प्रयोगवादी कविता अपने वस्तु और रूप में पर्याप्त नयापन लेकर सामने आयी, यह और बात है कि प्रयोगवाद की भी अपनी सीमाएं थीं और अज्ञेय की भी। उनका कहना था कि आज की कविता का मुहावरा वक्तव्यप्रधान रहा है, जिसे साठोत्तर कविता के नायक “धूमिल’ ने सार्थक काव्य-परिणति दी ।

सदैव बहसों के केन्द्र में रहे अज्ञेय के व्यक्तित्व की कृतियाँ नि:सदेह लोगों को आकृष्ट करती रही हैं। उनकी काव्य-यात्रा के साथ-साथ साहित्यिक सांस्कृतिक अंतर्यात्राएं-साहित्यिक गतिविधियाँ नवोन्मेष का परिचायक हैं। उनके अंतिम दिनों की कविता में एक खुलापन दिखाई देता है। अज्ञेय ने अपने अंतिम संकलन “ऐसा कोई घर आपने देखा है”–इस ओर संकेत भी किय़ा है।

“मैं सभी ओर से खुला हूँ,
वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ,
शब्दों में मेरी समाई नही होगी,
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।“

अज्ञेय जैसे कवि युग की धरोहर हैं। युग का तापमान हैं। ऐसे कवि कभी मरते नही। वे तो बस दूसरा शरीर धारण करते हैं। अज्ञेय ने काल पर अपनी एक ऐसी सनातन छाप छोड़ी है जो सदियों तक मिटने वाली नही है। वे निरंतर अपने शिल्प को तोड़ कर आगे बढते हैं, यहाँ तक की जटिलता तथा नव्यतम प्रयोगों से भरी पूरी उनकी कविता “ऐसा कोई घर आपने देखा है”-के कुछ अंश नीचे दिए गए हैं।

“फिर आउंगा मै भी
लिए झोली में अग्निबीज
धारेगी जिसको धरा
ताप से होगी रत्नप्रसू।‘.

उनकी एक कविता “कलगी बाजरे की” का नीचे दिया गया एक अंश उनके सप्तरंगी उदगार को कितना प्रभावित कर जाता हैं-

‘अगर मैं तुमको ललाती साँझ की नभ की अकेली तारिका
अब नही कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,
टटकी कली चंपे की, वगैरह तो
नही कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।“

अज्ञेय के जीवन काल से ही उन्हे और मुक्तिबोध को आमने-सामने खड़ा कर देखने की कोशिशें की जाती हैं। यह सच है कि मुक्तिबोध की आलोचनात्मक स्थापनाएं साहसिक एवं सामयिक हैं तथा उनकी कविताओं में युगीन विसंगतियों का प्रभाव देखने को मिलता है। उन्होंने अपने हर अनुभव को वागर्थ की मार्मिकता से संपन्न करना चाहा है, अर्थ के नए स्तरों को स्पर्श करना चाहा है तथा ऐसा कर पाने में वे सफल रहे हैं। अज्ञेय इस भववादी संसार में जीवन के आखिरी छोर पर पहुँच कर ऐसे अद्वितीय, अज्ञेय प्रश्नों से टकराने लगे थे, जिनके उत्तर सहजता से पाए नही जा सकते। एक महाकाव्य की तरह फैले अज्ञेय के जीवन और रचना फलक की भले ही आज अनदेखी की जा रही हो, यह सच है कि अज्ञेय के रचना संसार ने एक ऐसा अद्वितीय अनुभव-लोक रचा है जिसकी प्रासंगिता सदैव रहेगी।
विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

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Wednesday, July 20, 2011

भारत भारती (अतीत खंड से)

(मैथिली शरण गुप्त)

चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
वह सदगुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी।
इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था !
क्या इस पतन को ही हमारा वह अतुल उत्थान था!
उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी।
हँसते प्रथम जो पद्म हैं, तम पंक में ,
मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अंत में हँसते वही।।

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियन एक अखण्ड है,
चढता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तंड है।
अतएव हमारी उन्नति ही कह रही उन्नति-कला,
उत्थान ही जिसका नही उसका पतन हो क्या भला।

होता समुन्नति के अनंतर सोच अवनति का नही,
हाँ, सोच तो है किसी की फिर न हो उन्नति कहीं।
चिंता नही जो व्योम-विस्तृत चंद्रिका का हास हो
चिंता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो।।

है ठीक वैसी ही दशा हत-भाग्य भारतवर्ष की,
कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की।
पर सोच है केवल यही वह नित्य गिरता ही गया,
जब से फिरा है दैव इससे, नित्य फिरता ही गया।।

यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ,
प्रकटित हुए पीछे उन्ही के लहलहे पल्लव वहाँ।
पर हाय ! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है,
पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है !
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Sunday, July 17, 2011

इसके पूर्व मैं नई कविता का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया था। इस विधा को आगे की ओर ले जाते हुए ‘नई कविता की विकास की पृष्ठभूमि ’ प्रस्तुत कर रहा हूँ एवं आप सबका प्रोत्साहन मिला तो अंतिम कड़ी तक इसे प्रस्तुत करता रहूँगा। प्रबुद्ध व्लागर बंधुओं एवं सुधी पाठकों के मार्गदर्शन एवं प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी। यदि मेरा यह प्रयास आप सबको अच्छा लगा तो मैं समझूँगा कि मेरा श्रम सार्थक सिद्ध हुआ। अशेष शुभकामनाओं के साथ, सादर।

प्रेम सागर सिंह
नई कविता की विकास की पृष्ठभूमि

कोई भी काव्य-धारा सहसा आकाश से टपक नही पड़ती, बल्कि सहज ही विकसित होती है। उसके विकास की पृष्ठभूमि में वे परिस्थितियां विद्यमान रहती है, जिनसे रचनाकार अनवरत साक्षात्कार करते रहता है। परिस्थिति और रचनाकार के संपर्क से उत्पन्न अनुभव जब कविता में ढलने लगते हैं तब सहज विकास का चक्र पूरा होता है और नई काव्य-धारा अपने अस्तित्व की घोषणा करती है। अत; यह आवश्यक है कि किसी काव्य-धारा को संपूर्ण रूप से पहचानने के लिए उसके विकास की पृष्ठभूमि का गहन अध्ययन आवश्यक है। नयी कविता नयी परिस्थितियों की उपज है। उसके मूल में आधुनिक युग का वह संपूर्ण परिवेश है, जिसने एक ओर हमारी वैयक्तिक व सामाजिक जीवन पद्धति को प्रभावित किया और तथा दूसरी ओर संवेदनशील कलाकार की मानसिकता को प्रभावित करके कविता को नयी दिशा प्रदान कर दी। नयी कविता की पृष्ठभूमि के स्तरों को हमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय धरातलों पर परखना पड़ेगा, क्योंकि हिंदी की नयी कविता का स्वरूप इन दोनों धरातलों ने निर्मित किया है।

नोट:-- (इसके क्रम को आगे की ओर बढ़ाते हुए अगला पोस्ट ' नयी कविता की राजनीतिक पष्ठभूमि' होगी। अगले पोस्ट की प्रतीक्षा करें।)

Saturday, July 16, 2011






हम सब अपने-अपने जीवन में कभी-कभी इतने संत्रस्त और विकल हो जाते हैं कि छोटी-छोटी बातों पर अपना मन खिन्न कर लेते हैं लेकिन क्या हम इस सत्य से विमुख हो सकते हैं कि मानव जीवन ही दुखों से भरा पड़ा है ! अपनी-अपनी मंजिल की तलाश में हम कहाँ से कहाँ भटकते रहते हैं एवं हर मोड़ पर कभी खुशी मिलती है तो कभी गम। इन हालातों मे हम खुशियों को तो एक दूसरे से बाँट तो लेते हैं किंतु गम को मन के किसी अनजान कोने में असहेजे ही रख देते हैं। कुछ ऐसे ही असहेजे भावों को सहेज कर कविता के रूप में आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ - इस आशा और विश्वास के साथ कि मेरे अंतस की बात शायद आप सबके दिल में थोड़ी सी जगह पा सके।
प्रेम सागर सिंह

तेरी मेहरबानी से

जीवन ही हमारा जुड़ा है, दुख भरी कहानी से।
सहमे-सहमे रहते हैं हम, अपनी ही नादानी से।।

किसी ने गहरा घात किया , अपनी बुद्धिमानी से।
उसने ही फिर महसूस किया,किसकी मेहरबानी से।।

पाषाण-हृदय वालों में, कोमल भाव कैसे आ गए।
पिघल गए उनके दिल, रब की थोड़ी मेहरबानी से।।
आँसूओं से जीने का, मिला जरा सहारा है।
किसी तरह काटेंगे, दिन कालापानी से।।

पंचतत्व काया में, पंचतत्व माया में।

मनु को तलाश रही, श्रद्धा हैरानी से।।

कब नई भोर होगी, कब नया जग बसेगा।
भीतियों ने किया प्रश्न, रात टूटी छानी से।।

शिव और सुंदर से,सत्य जब अलग हुआ।
उसी दिन सौदे हुए, भ्रष्ट बेईमानी से।।

आह गुमराह हुई, आत्म अवसान निकट।
पिया बिन झीनी हुई,चुनर खींचातानी से।।

जिंदगी में जो दुख मिले, दुनिया की कहानी से।
पर जिंदगी जी लिया, तेरी थोड़ी सी मेहरबानी से।।
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Thursday, July 14, 2011

नयी कविता





एक अपील-
मैने नयी कविती की वकालत करने या उसकी स्तुति करने के उद्देश्य से इसे नही लिखा है। अध्ययन एवं इस संबंध में कुछ संकलन करने के पश्चात नयी कविता के विभिन्न पक्षों के संबंध में जो प्रतिक्रियाएं मेरे भीतर इकट्ठी हो गयी थीं -उन्हे ही तरतीब देकर आपके सामने ऱख दिया है।
प्रेम सागर सिंह

नयी कविता: एक सामान्य परिचय

नयी कविता अभिव्यक्ति और अनुभूति की नयी व्यवस्था की कविता है। यह एक उर्जावान संलाप है, जिसने साहित्य तथा जीवन की प्रासांगिक, सार्थक मानव-मूल्य प्रदान किए हैं, युग की प्रकृति के अनुसार काव्य-दृष्टियों में क्रांतिकारी परिवर्तन करने का प्रयास किया है तथा मानव-मुक्ति के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
भारतेंदु ने पहली बार सही अर्थ में कविता को जीवन यथार्थ से संपन्न करने का उपक्रम किया किंतु वे परंपरागत संस्कारों से पूर्णत: मुक्त न हो सके। द्विवेदी-युग में मैथिलीशरण गुप्त ने अपने चरित्रों से मानवीय स्वरूप को एक निश्चित सीमा में पकड़ा किंतु वहाँ भी आधुनिक मनुष्य उपेक्षित ही रहा। इसके बाद भी मनुष्य को किसी न किसी विशेष संदर्भ के साथ जोड़कर देखा गया। परिणामस्वरूप अभिव्यक्ति ने स्वयं ही रचना के भीतर संघर्ष किया और नए मूल्य-बोध, उर्वर रचनाशक्ति तथा आधुनिक-बोध से संपन्न नयी कविता का विकास हुआ।
नयी कविता ने कविता की पूर्वप्रचलित समस्त अवधारणाओं को युग-जीवन की आवश्यकतानुसार ढालकर नयी अर्थवत्ता देते हुए अपना स्वरूप निर्धारित किया। इस स्वरूप में समाज तथा व्यक्ति संबंधी किसी भी सिद्धांत के प्रर्ति दुराग्रह नही है,वरन व्यक्ति को, व्यक्ति-संभव देखने की प्रवृति, उसके भविष्य के प्रति आस्था,सामाजिकता का व्यावहारिक निर्वाह तथा यथार्थ को पूरी ईमानदारी से अभिव्यक्त करने की आकांक्षा विद्यमान है। गिरिजाकुमार माथुर ने नयी कविता की परिभाषा करते हुए लिखा है-“मौजूदा कविता के अंतर्गत वह दोनों ही प्रकार की कविताएँ कही जाती रही हैं,जिनमें एक ओर या तो शैली, शिल्प और माध्यमों के प्रयोग होते रहे हैं या दूसरी ओर समाजोन्मुखता पर बल दिया जाता रहा है। लेकिन नयी कविता हम उसे मानते हैं, जिसमें इन दोनों के स्वरूप तत्वों का संतुलन और समन्वय है। यह नयी कविता नये शिल्प और उपमानों के प्रयोग के साथ समाजोन्मुखता और मानवता को एक साथ अंजलि में भरे भविष्य की ओर अग्रसर हो रही है।“ इसी प्रकार केदारनाथ अग्रवाल ने मानवमूल्यों की उदात्त परंपरा को ध्यान में रखकर नयी कविता को यथार्थ, शक्ति और जीवनेच्छा आदि विशेषताओं से युक्त माना है।
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Sunday, July 3, 2011

परंपरा भंजक अज्ञेय : एक महाकाव्य सा जीवन (जन्म शती पर विशेष)
(जन्म 07 मार्च, 1911 देवरिया जनपद (उ.प्र।)

“इस हसीन जिंदगी के सप्तरंगी इंद्रधनुष की तरह “अज्ञेय” जी की रचनाओं के रंग भी बेशुमार हैं। जिंदगी को जितने रंगों में जिया जा सकता है,“अज्ञेय’ को उससे कहीं ज्यादा रंगों मे कहा जा सकता है। उनकी रचनाओं का चोला कुछ इस अंदाज का है कि जिंदगी का बदलता हुआ हर एक रंग उस पर सजने लगता है और उसकी फबन में चार चाँद लगा देता है। इसीलिए साहित्य जगत में एक लंबी दूरी तय करने तथा पर्दा करने के बाद भी “अज्ञेय” आज भी ताजा दम है, हसीन हैं और दिल नवाज भी। “
प्रेम सागर सिंह

अज्ञेय हिंदी कविता के ऐसे पुरूष हैं जिनकी जड़े हिंदी कविता में बड़े गहरे समाई हैं। 1937 ई. में अज्ञेय ने ‘सैनिक” पत्रिका और पुन: कोलकाता से निकलने वाले “विशाल भारत” के सम्पादन का कार्य किया। हिंदी साहित्य जगत में पदार्पण के पूर्व सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ सन 1943 में सेना में भर्ती हो गए लेकिन सन 1947 में सेना की नौकरी छोड़ कर “प्रतीक” नामक हिंदी पत्र के संपादन कार्य में जुट गए और अपना संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य के चतुर्दिक विकास के लिए समर्पित कर दिया। इसी पत्रिका के माध्यम से वे सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन के नाम से साहित्य–जगत में प्रतिष्ठित हुए। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के अवसर पर आयोजित समारोह में अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा था –“ लेखक परंपरा तोड़ता है जैसे किसान भूमि तोड़ता है। मैंने अचेत या मुग्धभाव से नही लिखा :जब परंपरा तोड़ी है तब यह जाना है कि परंपरा तोड़ने के मेरे निर्णय का प्रभाव आने वाली पीढियों पर भी पड़ेगा ”इस तरह अपने को “परंपराभंजक” कहे जाने के आरोप को भी साधार ठहराने वाले अज्ञेय का व्यक्तित्व कालजयी है।
अज्ञेय हिंदी कविता में नए कविता के हिमायती ऐसे कवियों में हैं, जिन्होंने कविता के इतिहास पर युगव्यापी प्रभाव छोड़ा है। कविता, कथा साहित्य, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, यात्रा-वृत, सभी विधाओं में एक सी गति रखने वाले अज्ञेय अपने जीवन में साहित्य की ऐसी किंवदंती बन गए थे, जिनकी शख्सियत, विचारधारा और काव्यात्मक फलश्रुति को केंद्र मे रख कर एक लंबे काल तक बहसें चलाई गई हैं। हिंदी कविता जिस तरह प्रगतिवाद मार्क्सवादी दर्शन की अवधारणाओं को रचनाधार बनाकर सामने आई, उसी तरह अज्ञेय ने पश्चिम के कला-आंदोलनों की भूमि पर प्रयोगवाद की नींव स्थापित की। प्रगतिवादी कविता को कलात्मक मानदंडों के निकष पर खारिज करने वाले अज्ञेय ने 1943 में सात कवियों का एक प्रयोगवादी काव्य-संकलन “तारसप्तक”शीर्षक से संपादित किया। इसी क्रम में दूसरा सप्तक (1957), तीसरा सप्तक (1959) तथा चौथा सप्तक (1979) का प्रकाशन हुआ। इन सप्तकों को लेकर उनके और प्रगतिवादी खेमे के साहित्यकारों के बीच लगातार खिंचाव बना रहा। इनकी निम्नलिखित रचनाएं इन्हे एक सजग रूपवादी कलाकार सिद्ध करती हैं।

काव्य- भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर छड़ भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनुष रौंदे हुए थे, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार-द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि उसे मैं जानता हूँ, सागर मुद्रा, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ,।

उपन्यास - शेखर एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।

कहानी–संग्रह- विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जय दोल, ये तेरे प्रतिरूप आदि।


गीति-नाट्य- उत्तर प्रियदर्शी

निबंध-संग्रह- त्रिशंकु, आत्मनेपद, हिंदी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, सब रंग और कुछ राग, भवन्ती, अंतरा, लिखी कागद कोरे, जोग लिखी, अद्यतन, आल-बाल, वत्सर आदि।

यात्रा-वृतांत- अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली।

अनुवाद- त्याग पत्र (जैनेन्द्र) और श्रीकांत (शरतचंद्र) उपन्यासों का अंग्रेजी अनुवाद।

लगभग पिछले छह दशकों तक अज्ञेय के प्रयोगवाद की काफी धूम रही है। इस बीच उनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। पूर्वा, इत्यलम, बावरा अहेरी, हरी घास पर छड़ भर, असाध्य वीणा, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि उसे मैं जानता हूं, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं, तथा ऐसा कोई घर आपने देखा है आदि। उनकी “शेखर एक जीवनी” तथा “नदी के द्वीप” तो उपन्यास साहित्य में इस शती की मानक कृतियाँ हैं। उनकी कहानियों, निबंधों एवं यात्रा संस्मरणों ने उनके व्यक्तित्व को एक अलग ही आभा दी है। प्रभूत लेखन के बावजूद प्राय: उनकी कलावादी प्रवृतियों के कारण उनके प्रति खास तरह के नकार का भाव भी साहित्यकारों में जड़ जमाए रहा है.परंतु प्रयोगवादी कविता को कोसते हुए अक्सर आलोचक इस तथ्य को नकार जाते हैं कि विषम परिस्थितियों में भी अज्ञेय ने प्रयोगवादी कविता की एक नयी जमीन तैयार की। छायावादी रूढ़ियों को तोड़ कर एक नयी लीक बनायी। हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार करना होगा कि प्रयोगवादी कविता अपने वस्तु और रूप में पर्याप्त नयापन लेकर सामने आयी, यह और बात है कि प्रयोगवाद की भी अपनी सीमाएं थीं और अज्ञेय की भी। उनका कहना था कि आज की कविता का मुहावरा वक्तव्यप्रधान रहा है, जिसे साठोत्तर कविता के नायक “धूमिल’ ने सार्थक काव्य-परिणति दी ।

सदैव बहसों के केन्द्र में रहे अज्ञेय के व्यक्तित्व की कृतियाँ नि:सदेह लोगों को आकृष्ट करती रही हैं। उनकी काव्य-यात्रा के साथ-साथ साहित्यिक सांस्कृतिक अंतर्यात्राएं-साहित्यिक गतिविधियाँ नवोन्मेष का परिचायक हैं। उनके अंतिम दिनों की कविता में एक खुलापन दिखाई देता है। अज्ञेय ने अपने अंतिम संकलन “ऐसा कोई घर आपने देखा है”–इस ओर संकेत भी किय़ा है।
“मैं सभी ओर से खुला हूँ,
वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ,
शब्दों में मेरी समाई नही होगी,
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।“

अज्ञेय जैसे कवि युग की धरोहर हैं। युग का तापमान हैं। ऐसे कवि कभी मरते नही। वे तो बस दूसरा शरीर धारण करते हैं। अज्ञेय ने काल पर अपनी एक ऐसी सनातन छाप छोड़ी है जो सदियों तक मिटने वाली नही है। वे निरंतर अपने शिल्प को तोड़ कर आगे बढते हैं, यहाँ तक की जटिलता तथा नव्यतम प्रयोगों से भरी पूरी उनकी कविता “ऐसा कोई घर आपने देखा है”-के कुछ अंश नीचे दिए गए हैं।
“फिर आउंगा मै भी
लिए झोली में अग्निबीज
धारेगी जिसको धरा
ताप से होगी रत्नप्रसू।‘.
उनकी एक कविता “कलगी बाजरे की” का नीचे दिया गया एक अंश उनके सप्तरंगी उदगार को कितना प्रभावित कर जाता हैं-
‘अगर मैं तुमको ललाती साँझ की नभ की अकेली तारिका
अब नही कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,
टटकी कली चंपे की, वगैरह तो
नही कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।“

अज्ञेय के जीवन काल से ही उन्हे और मुक्तिबोध को आमने-सामने खड़ा कर देखने की कोशिशें की जाती हैं। यह सच है कि मुक्तिबोध की आलोचनात्मक स्थापनाएं साहसिक एवं सामयिक हैं तथा उनकी कविताओं में युगीन विसंगतियों का प्रभाव देखने को मिलता है। उन्होंने अपने हर अनुभव को वागर्थ की मार्मिकता से संपन्न करना चाहा है, अर्थ के नए स्तरों को स्पर्श करना चाहा है तथा ऐसा कर पाने में वे सफल रहे हैं। अज्ञेय इस भववादी संसार में जीवन के आखिरी छोर पर पहुँच कर ऐसे अद्वितीय, अज्ञेय प्रश्नों से टकराने लगे थे, जिनके उत्तर सहजता से पाए नही जा सकते। एक महाकाव्य की तरह फैले अज्ञेय के जीवन और रचना फलक की भले ही आज अनदेखी की जा रही हो, यह सच है कि अज्ञेय के रचना संसार ने एक ऐसा अद्वितीय अनुभव-लोक रचा है जिसकी प्रासंगिता सदैव रहेगी।