अतिथि
देवो भव
प्रेम सागर सिंह
अतिथि हमारी सांस्कृतिक चेतना के स्वरूप है। वे जहां जाते हैं स्वयं से श्रेष्ठ
स्थान मान कर जाते हैं, उनका विश्वास सेवा करने वाले का मंगल ही करता है। अतिथि को
जिस भाव से देखा जाता है, उसका फल तत्काल ही दिखाई पड़ता है। अतिथि का मान बढ़ाने
वाले गौरव ही पाते हैं। श्रीकृष्ण जिस तरह सुदामा का नाम सुनते ही नंगे पांव उनके
दर्शन के लिए अकुलाते हुए पहुँचते हैं, घायल पैरों को अपने हाथ से धोकर कृष्ण अपनी
महानता दिखाते हैं। टूटे तंदुल को सुदामा से मांग कर जितनी आत्मीयता में भगवान
फांका मारते हैं, वह अतिथि के प्रति सामान्य को असामान्य बनाने का दैवी भाव ही है।
समर्थ होकर भी असमर्थ को गले लगाने का करूणा भाव अतिथि सत्कार का सोपान है। अतिथि
पर हँसने वाले अतिथि का श्राप पाते हैं । अतिथि को भाव की भूख रहती है, संपत्ति की
नही। महात्मा विदुर के घर भगवान का साग खाना कौन नही जानता। दुर्योधन के घर मेवा
को विना भाव के त्याग दिया । शबरी के जूठे बेर राम प्रेम भाव से खाते हैं । बेर की
मिठास जानने के लिए शबरी अनजाने प्रेम में जूठे बेर ही राम को खिलाकर धन्य होती है।
अतिथि वह है जो दोष को गुण जाने और विना खाये अघाने की अनुभूति करे। अतिथि
बिगड़ते कार्य को संभालने का धर्म निभाने पर आदर पाते हैं। अतिथि मान के साथ गरल
पीने पर जगदीश बनते हैं। बिना सम्मान अपनी मनमानी करके अनुचित स्थान ग्रहण करने
मात्र से अमृत पान करके भी अतिथि को राहुल बन कर अपना सिर गंवाना ही पड़ता है। आसन
के पाने पर आसन छोड़ने वाले महान बनते हैं । विना समय अतिथि का प्रदर्शन मान देने
वाले के अंदर घृणा भेद बढ़ाता है। भूखे अतिथि का श्राप अभाव और कुमति बढ़ाता है ।
अतिथि की संतुष्टि असीम फलदायक है। संकोच करने वाले भूखे का पेट भरने वाले
पुण्यात्मा होते हैं । रहीम कहते हैं – “रहिमन पानी राखिए बिन
पानी सब सून।“
प्रेम का धागा तोड़ने पर गांठ पड़ ही जाती है । अत: अतिथि देवता है ।
नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की
पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य को आप सबके
समक्ष प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयासों में कहां तक एवं किस सीमा तक
सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर सार्थक एवं ज्ञानवर्धक
बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी धन्यवाद ।
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अतिथियों का बड़ा मान है भारतीय संस्कृति में..
ReplyDeleteअतिथियों का सम्मान करने से,अपना मान और यस बढता है,,,,,
ReplyDeleteप्रेम जी,,बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,,
पोस्ट पर आइये स्वागत है,,,,,
सार्थक विश्लेषण!
ReplyDeleteबेहतरीन..
ReplyDeleteअतिथि देवो भव
ReplyDeleteन जाने किस भेष में नारायण मिल जाय ...
आज सब अतिथि की परिभाषा भी भूलते जा रहे हैं..सुन्दर आलेख..
ReplyDeletevery good description!
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट , आभार .
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें, आभारी होऊंगा .
बेहद सुन्दर आलेख....बदलते वक्त में इस विषय पर सटीक रचना.
ReplyDelete'प्रेम का धागा तोड़ने पर गांठ पड़ ही जाती है'
ReplyDeleteसुन्दर सार्थक आलेख
बहुत बढ़िया आलेख...
ReplyDeleteअतिथि देवो भवः
:-)
bharii
Deleteबहुत ही अच्छा । मन को मोह ने वाला।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा । मन को मोह ने वाला।
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