स्मृतियों की गवाही में
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(प्रेम सागर सिंह)
यहां हर दिन हर पल मैं
गुनाह होते देख रहा हूं।
मजबूरी यह है मेरे दोस्तों,
गुनाह होते देख रहा हूं।
मजबूरी यह है मेरे दोस्तों,
कि
इस घटना की गवाही देना,
इस घटना की गवाही देना,
मेरे लिए मुमकिन नहीं।
फिर भी इसे मन में सहेज रखता हूं,
ऐसा न हो कि शायद किसी दिन,
मुझे गवाह के रूप में,
कठघरे में खड़ा कर दिया जाए।
जाने कब जमाने की हरकतें,
तकदीर की लकीरों पर कुछ लिख कर,
मेरे सिद्धांतों को बहका जाए,
मेरे सही कदमो को गलत दिशा ना मिले,
इसलिए संभल कर चलना,
इसलिए संभल कर चलना,
मेरी आदत सी बन गई है !
अब तो राहों में मूक मुसाफिर बनकर,
अब तो राहों में मूक मुसाफिर बनकर,
अपने छोड़े पदचिन्हों पर चलते जाना ही,
मेरी नियत सी बन गई है।
चलते-चलते कितने शब्द कहाँ लिख डाले,
स्मृति-मंजूषा में कुछ तो संचित रहे,
पर कुछेक को जमाने की चाहत को,
देखते हुए भूल जाने पर मजबूर हुआ।
जो याद रहा वो पास रहा,
जो भूल गया सो भूल गया,
पर कुछ को सहेज यहाँ तक लाया,
पर कुछ को सहेज यहाँ तक लाया,
जिसने मन को काफी बहलाया।
दिन के उजियारे में,
जब आकाश उतर आता है,
मन न जाने क्यूं धूप के दूर कोने में,
मन न जाने क्यूं धूप के दूर कोने में,
खुशियों का दामन पकड़ कर,
अतीत में खोने लगता है।
स्मृतियों की गवाही में,
अजनबी सायों के चेहरे,
अजनबी सायों के चेहरे,
अब मायूस से कर जाते हैं
अब डर सा लगता है, कहीं,
अब डर सा लगता है, कहीं,
इनमें से कोई मेरा हमसफर,
न मिल जाए।
यादों के अतल में,
कई चेहरे गुम से हो जाते हैं
कुछ तो याद रहते हैं,
कुछ तो याद रहते हैं,
और कुछ विस्मृत से हो जाते हैं,
खामोश मन में भूली –बिसरी,
यादों का ऊभर आना,
अब इस ढलती वय में,
कुछ परेशान सा कर जाता है,
कुछ भाव मन को दोलायमान करते है,
तो कुछ सितारों- जड़ित करके,
मन में सहसा फिसल जाते हैं।
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