Sunday, July 31, 2011

हो जाते है क्यूं आर्द्र नयन

प्रेम सागर सिंह


हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन
मन क्यूं अधीर हो जाता है.
स्वयं का अतीत लहर बन कर,
तेरी ओर बहा ले जाता है।

वे दिन भी बड़े ही स्नेहिल थे,
जब प्रेम सरोवर उफनाता था।
इसके चिर फेनिल उच्छवासों से,
स्वप्निल मन भी जरा सकुचता था।

कुछ कहकर कुंठित होता था।
तुम सुनकर केवल मुस्काती थी।
हम कितने कोरे थे उस पल,
कुछ बात समझ नही आती थी।

हम छुड़ गए दुर्भाग्य रहा
विधि का भी शायद साथ रहा।
लिखा भाग्य में जो कुछ था,
हम दोनों के ही साथ रहा।

सपने तो अब आते ही नही,
फिर भी उसे हम बुनते रहे।
जो पीर दिया था अपनों ने,
उसको ही सदा हम गुनते रहे।

अंतर्मन में समाहित रूप तुन्हारा
मन को उकसाया करता है।
लाख भुलाने पर भी वह पल,
प्रतिपल ही लुभाया करता है।

तुम जहाँ रहो आबाद रहो,
वैभव सुख-शांति साथ रहे।
पुनीत दृदय से कहता हूं,
जग की खुशियां पास रहे।

5 comments:

  1. जहाँ रहो, आबाद रहो। सुन्दरतम।

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  2. इश्क में हरचन्द रुसवाई है।
    इसी लिए आंख भर आई है॥

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  3. अच्छी रचना ....
    अगर आपके पास अज्ञेय जी की क्षणिकाएं हों तो एकत्रित कर भेज सकते हैं सरस्वती सुमन के लिए
    आपके ब्लॉग पे एक क्षणिका देख चुकी हूँ अज्ञेय जी की ....
    संग्रह करता में आपका नाम होगा ...

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  4. अंतर्मन में समाहित रूप तुन्हारा
    मन को उकसाया करता है।
    लाख भुलाने पर भी वह पल,
    प्रतिपल ही लुभाया करता है।

    bahut hi bhavatmak,aapke hradaya ki vishalta aur aseem prem ko vyakt karti , utkrasht prastuti ke lie aapka abhar.

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  5. सपने तो अब आते ही नही,
    फिर भी उसे हम बुनते रहे।
    जो पीर दिया था अपनों ने,
    उसको ही सदा हम गुनते रहे।

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