इस बार प्रस्तुत है अज्ञेय जी की कविता “तुम्हे क्या ”। आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह कविता भी अन्य कविताओं की तjह आपके मन को दोलायमान करने में सफल सिद्ध होगी। आपकी प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी।
तुम्हे क्या
(सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय)
तुम्हे क्या
अगर मैं दे देता हूँ अपना यह गीत
उस बाघिन को
जो हर रात दबे पाँव आती है
आस-पास फेरा लगाती है
और मुझे सोते सूँघ जाती है,
वह नींद, जिसमे मैं देखता हूँ सपने
जिन में ही उभरते हैं सब अपने
छंद तुक ताल बिंब
मौतों की भट्ठियों में तपाए हुए,
त्रास की नदियों के बहाव में बुझाए हुए ;
मिलते हैं शब्द मुझे आग में नहाए हुए !
और तो और
यही मैं कैसे मानूँ
कि तुम्ही हो वधू, राजकुमारी,
अगर पहले यह न पहचानूँ
कि वही बाघिन है मेरी असली माँ !
कि मैं उसी का बच्चा हूँ !
अनाथ, वनैला .........
देता हूँ, उसे
वासना में डूबे,अपने लहू में सने,
सारे बचकाने मोह और भ्रम अपने .....
गीत सब मन सूबे, सपने—
इसी में सच्चा हूँ:
अकेला.......
तुम्हे क्या, तुम्हे क्या, तुम्हे क्या .....
अज्ञेय जी की एक बेहतरीन रचना पढ़वाने के लिए आभार।
ReplyDeleteआभार उत्कृष्ट रचना पढ़वाने का।
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