Wednesday, July 20, 2011

भारत भारती (अतीत खंड से)

(मैथिली शरण गुप्त)

चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
वह सदगुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी।
इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था !
क्या इस पतन को ही हमारा वह अतुल उत्थान था!
उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी।
हँसते प्रथम जो पद्म हैं, तम पंक में ,
मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अंत में हँसते वही।।

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियन एक अखण्ड है,
चढता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तंड है।
अतएव हमारी उन्नति ही कह रही उन्नति-कला,
उत्थान ही जिसका नही उसका पतन हो क्या भला।

होता समुन्नति के अनंतर सोच अवनति का नही,
हाँ, सोच तो है किसी की फिर न हो उन्नति कहीं।
चिंता नही जो व्योम-विस्तृत चंद्रिका का हास हो
चिंता तभी है जब न उसका फिर नवीन विकास हो।।

है ठीक वैसी ही दशा हत-भाग्य भारतवर्ष की,
कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की।
पर सोच है केवल यही वह नित्य गिरता ही गया,
जब से फिरा है दैव इससे, नित्य फिरता ही गया।।

यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ,
प्रकटित हुए पीछे उन्ही के लहलहे पल्लव वहाँ।
पर हाय ! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है,
पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है !
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6 comments:

  1. गुप्त जी की कविता मुझे हमेशा प्रिय रही है। इसमें तो बहुत ही सारगर्भित बात है। आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए।

    चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
    वह सदगुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी।
    इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था !
    क्या इस पतन को ही हमारा वह अतुल उत्थान था!

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  2. अवनत से अब उन्नत होना ही है।

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  3. gupt ji ki rachna padhvane ka aabhar..!

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  4. कालजयी रचना है यह....

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