Saturday, July 16, 2011






हम सब अपने-अपने जीवन में कभी-कभी इतने संत्रस्त और विकल हो जाते हैं कि छोटी-छोटी बातों पर अपना मन खिन्न कर लेते हैं लेकिन क्या हम इस सत्य से विमुख हो सकते हैं कि मानव जीवन ही दुखों से भरा पड़ा है ! अपनी-अपनी मंजिल की तलाश में हम कहाँ से कहाँ भटकते रहते हैं एवं हर मोड़ पर कभी खुशी मिलती है तो कभी गम। इन हालातों मे हम खुशियों को तो एक दूसरे से बाँट तो लेते हैं किंतु गम को मन के किसी अनजान कोने में असहेजे ही रख देते हैं। कुछ ऐसे ही असहेजे भावों को सहेज कर कविता के रूप में आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ - इस आशा और विश्वास के साथ कि मेरे अंतस की बात शायद आप सबके दिल में थोड़ी सी जगह पा सके।
प्रेम सागर सिंह

तेरी मेहरबानी से

जीवन ही हमारा जुड़ा है, दुख भरी कहानी से।
सहमे-सहमे रहते हैं हम, अपनी ही नादानी से।।

किसी ने गहरा घात किया , अपनी बुद्धिमानी से।
उसने ही फिर महसूस किया,किसकी मेहरबानी से।।

पाषाण-हृदय वालों में, कोमल भाव कैसे आ गए।
पिघल गए उनके दिल, रब की थोड़ी मेहरबानी से।।
आँसूओं से जीने का, मिला जरा सहारा है।
किसी तरह काटेंगे, दिन कालापानी से।।

पंचतत्व काया में, पंचतत्व माया में।

मनु को तलाश रही, श्रद्धा हैरानी से।।

कब नई भोर होगी, कब नया जग बसेगा।
भीतियों ने किया प्रश्न, रात टूटी छानी से।।

शिव और सुंदर से,सत्य जब अलग हुआ।
उसी दिन सौदे हुए, भ्रष्ट बेईमानी से।।

आह गुमराह हुई, आत्म अवसान निकट।
पिया बिन झीनी हुई,चुनर खींचातानी से।।

जिंदगी में जो दुख मिले, दुनिया की कहानी से।
पर जिंदगी जी लिया, तेरी थोड़ी सी मेहरबानी से।।
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5 comments:

  1. शिव और सुंदर से,सत्य जब अलग हुआ।
    उसी दिन सौदे हुए, भ्रष्ट बेईमानी से।।
    वाह! वाह!
    प्रेम जी क्या बात कही है! बहुत अच्छे भाव से लिखी गई यह रचना बहुत पसंद आई।

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  2. पंचतत्व काया में, पंचतत्व माया में।
    मनु को तलाश रही, श्रद्धा हैरानी से।।
    कब नई भोर होगी, कब नया जग बसेगा।
    भीतियों ने किया प्रश्न, रात टूटी छानी से।।

    बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति....

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  3. यह उपकार हम सब पर है।

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  4. गम्भीर वैचारिक सोच से उद्भूत एक सुंदर कविता !

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  5. बहुत सुन्दर आकलन ||
    सर्वथा सत्य ||
    बधाई ||

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