अभाव के द्वार पर
जब हम पहुंचते है अभाव के द्वार पर,
की कमी खल ही
जाती है,
और व्यथित हो जाता है
मन ।
क्योंकि,
वह भाव जिसकी आस लिए,
हम पहुंचते हैं दर
किसी के,
वहां से गायब सा हो
जाता है ।
स्वागत की वर्षों
पुरानी
तस्वीर आज बदल सी गई
है।
लोगों की संवेदनाओं
के तार,
अहर्निश झंकृत होने
के बजाए,
निरंतर टूटते और
बिखरते जा रहे हैं,
पहले बंद दरवाजे खुल
जाते थे,
आज खुले दरवाजे भी
बंद हो जाते हैं।
अभाव के द्वार पर
प्रणय गीत,
मन को अब बेजान सा
लगता है ।
गृहस्थ जीवन का भार
ढो रहे,
संवेदनशील व्यक्ति
के हृदय में भी,
प्रेम का वह भाव गोचर
होता नहीं,
क्योंकि
वह स्वयं इतना बोझिल
रहता है कि
दूसरे बोझ को ढोने के
लिए,
वह इस योग्य होता ही
नहीं ।
यादों के अतल में
आहिस्ता-आहिस्ता जाने
की
कोशिश कर ही रहा था
कि
चल रही शीतलहरी की
एक अलसाई शाम को,
हल्की धूप में तन्हा
बैठा था
कि
अचानक भूली बिसरी
स्मृतियों के झरोखे
से
उस रूपसी की याद
विचलित कर गयी ।
एक खूबसूरत अरमान को
मन में सजाए,
एक बार उसे देखने की
आश लिए,
पहुंच गया था उस
सुंदरी के दर पर,
हाथ संकोच-भाव से
दस्तक के लिए बढ गया
बंद दरवाजा भी एक
आवाज से खुल गया।
सोचा मन ही मन,
खुशहाली से भरी
जिंदगी होगी उसकी,
धन, धान्य और शांति
से संपन्न होगी,
पर वैसा कुछ नजर नही
आया,
जिसकी पहचान मेरी
अन्वेषी आखों ने किया,
कहते हैं,
अभाव किसी परिचय का
मुहताज नही होता,
शायद कुछ ऐसा ही हुआ
मेरे साथ,
नजदीक से देखा ,समझा
ओर अनुभव किया,
लगा उसकी जिंदगी के
सपने हैं,
टूटने के कगार पर
हालात को समझनें में
देर न लगी क्योंकि
मैं पहुंच गया था
अभाव के द्वार पर।
धन्यवाद सर जी।
ReplyDeleteसचमुच वक़्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है ... बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteधन्यवाद संंध्या जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : गया से पृथुदक तक
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसुन्दर प्रविष्टि
ReplyDeleteकटु अनुभव से हालातों को समझने में देर नहीं लगती
ReplyDeleteदिल को छूने वाली रचना
ReplyDeleteवक्त के साथ हम कितना बदले हैं... अब तो ये ख़बर भी नहीं
ReplyDeletehttp://savanxxx.blogspot.in
बहुत सुन्दर प्रेम जी ! वाकई हम सब संवेदना - शून्य होते जा रहे हैं । मनुष्य यदि ऑख खोलकर देखे तो उसे पता चलेगा कि संवेदना ही मानव को मानव बनाता है । सुख एवम् दुख का अनुभव करवाता है । भाव- पूर्ण , रचना ।
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