हिंदी भाषा और राष्ट्र की अस्मिता
प्रेम सागर सिंह
भाषा का संसार एक जीता-जागता संसार है। भाषा एक माध्यम भर नही है, वह मनुष्य की समूची विकास परंपरा है। उसकी संपूर्ण संस्कृति की भारसाधक और आधारभूत शक्ति का नाम ‘भाषा’ होता है। भाषा के माध्यम से मनुष्य अपनी, अपने युग की, अपने परिवेश की तमाम आशाओं, आकांक्षाओं, उपलब्धियों, प्रवृतियों, सफलताओं-विफलताओं को सँजोकर ही नही रखता, बल्कि अतीत की स्मृतियों और भविष्य की नीहारिकाओं को भी अनुभव करता है। भाषा एक भौतिक माध्यम भर नही है, वह विचारों और अनुभवों के तालमेल से निर्मित एक जीवनचर्या भी है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा केवल हवा, पानी की तरह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता मात्र नही है,वह एक आवश्यकता के साथ जीवन की समग्र अर्थवत्ता भी है। भाषा में ही जातीय स्मृतियों, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति और समाज का अनुभव होता है और उसे सुरक्षित रखा जाता है।
हिंदी भाषा भी इन्ही अर्थों में भारतीय जीवन में केवल एक अभिव्यक्ति का माध्यम भर नही है, वह भारतीय जीवन की समग्रता के स्पंदनों का ध्वन्यांकन भी है। इस बात को लक्ष्य करके ही महात्मा गांधी कहा करते थे - हिंदी का प्रश्न मेरे लिए आजादी का प्रश्न है। हिंदी भाषा केवल एक भाषा मात्र नही है, वह संपूर्ण देश के संस्कार के रूप में पल्ल्वित और पुष्पित भाषा है। यदि हिंदी के इतिहास और विकास को बहुत ध्यान से देखा जाए तो यह केवल यह केवल भआषा की स्वतंत्र इकाई नही दिखती.हिंदी की जड़ें संस्कृत,प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, लोक बोलियों, अरबी-फारसी आदि देशी -विदेशी भाषाओं के रस से सींची गयी हैं। इन भाषाओं और बोलियों के तमाम शब्दों को हिंदी ने आत्मसात ही नही किया वरन् इनकी तहजीब भी अपने साथ जोड़ी। भारतीय जीवन प्रणाली का वह गुण, जिसे हम भारत की सहिष्णुता, सदाशयता और समन्वयकारी चेतना के रूप में जानते हैं,बहुत लंबे काल बाद भाषा के रूप में हिंदी अपनी संपूर्ण चेतना के साथ अभिव्यक्त हो सकी है।
हिंदी भाषा वह ताकत है,जिसने हमारे देश की विभिन्न संस्कृतियों की ऊर्जा का प्रभाव अनुभव किया जा सकता है।संस्कृत की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना,प्राकृत और अपभ्रंश की व्यापक लोक-चेतनातथा क्षेत्रीय बोलियों की मिठासउनके स्थानीय रंग-इन सबका मिश्रण हिंदी में दिखता है। इसके साथ ही अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के सत्संग से भी उसने अपने आपको निखारा है। इन भाषाओं का आंशिक शक्ति को लेकर अपने भीतर समेटनेवाली हिंदी भाषा का वातायन अभी खुला हुआ है। वह दुनिया की तमाम भाषाओं से अभी भी कुछ न कुछ ग्रहण करने के लिए सर्वदा तैयार है।
हिंदी को केवल उत्तर भारत के लोगों ने ही नही अपनाया, अपितु इसे दक्षिण भारत में भी महत्व मिला है। यदि भाषा की राजनीति का सिलसिला शुरू न हुआ होता तो आज दक्षिण में हिंदी भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका रही होती। हिंदी का विस्तार दूब की तरह हुआ है। दूब जैसी क्षमताएं हिंदी के जीवट के साथ जुड़ी हुई हैं। वह सामान्य लोगों के कारण ही भारत में एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैली हुई है। भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों जैसे पुरी, द्वारकापुरी, बद्रीनाथ, रामेश्वरम, चारों कोनों में वह तीर्थयात्रियों,बिसातियों, साधु-संतों के साथ चलती रही है और देश की सीमाओं को छूती हुई अपनी आत्मा में संपूर्ण देश को समेटती रही है।
स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान तो हिंदी भाषा ने पूरे देश को एकता की डोर में बाँध दिया था। अपनी जाँबाज क्षमता को हिंदी ने उस समय कौमी तरानों और राष्ट्रीय नेताओं की तहरीरों से अभिव्यक्त किया था। हिंदी भाषा जब बोलती थी तब पूरा हिंदुस्तान बोलता था, अँगड़ाई लेता था, उत्सर्ग के लिए तैयार हो उठता था। ऐसा केवल इसलिए नही होता था कि हिंदी भाषा देश के सबसे बड़े क्षेत्र में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा थी,बल्कि इसलिए कि यह भाषा भारत की आत्मा की गहराइयों से अनुगुँजती थी। मजदूर, किसान ,सामान्यजन अपने दु:ख-दर्द इस भाषा में व्यक्त कर रहा था। यह वर्ग देश के चारो कोनों में उत्तर भारत से विस्थापित होकर फैल रहा था। फीजी, गुयाना, सुरीनाम, सुमात्रा, श्रीलंका, जावा, मारीशस आदि देशों तक ये लोग पहुँच गए। ये गिरमिटिया मजदूर, तीर्थ-क्षेत्रों के पंडे नए जगहों पर जाकर भी अपने दैनिक जीवन की भाषा में अपनी जातीय स्मृतियों, ओर परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए हुए थे।
हिंदी भाषा कभी राजाश्रय प्राप्त नही कर पाई। वह अपने सामर्थ्य के आधार पर फैली और आगे बढ़ी। हिंदी भाषा जो,पहले ‘भाखा’ थी, श्रमिक-दलित का स्नेह पाते ही पुष्ट हुई। इसलिए इस भाषा की सांस्कृतिक चेतना का आयाम बहुत विस्तृत है।गांव की माटी से लेकर शहरों के सुंदर आँगन मे यह समभाव से खेलती रही है: लेकिन इसकी भावनाएं सदैव भारत के संघर्षशील वर्ग के साथ रही हैं।मध्यकाल में इसके भक्ति आंदोलन ने वस्तुत: एक सामान्य आंदोलन को जाग्रत किया था:जिसमें दादू, नामदेव,छीपा, पीपा, आदि कवि अपना अभिव्यक्ति दे रहे थे। इन कवियों ने हिंदी के माध्यम से एक जन-चेतना का विस्तार दिया। कबीर का संपूर्ण काव्य तो सामाजिक क्रांति का पर्याय ही है। तुलसी की समन्वय-साधना का भी आधार यह भाषा रही है। जायसी और रसखान की मिठास भरी गंगा–जमुनी संस्कृति को हिंदी के माध्यम से सहसूस किया जा सकता है। एक तरह से भारतीयजावन पद्धति और उसकी अस्मिता के जो नियामक तत्व हैं, उन्हे इस भाषा ने आत्मसात् किया है।
हिंदी भाषा ने भारत की शांतिप्रिय उदार चेतना को अपने व्यक्तित्व में ढाला है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी भाषा की इस प्रवृति का उल्लेख करते हुए लिखा है-‘हिंदी संघर्ष के भाषा के रूप में नही बल्कि संसार मे शांति का संदेशवाहिका भाषा के रूप में स्वीकृत हुई है। भारतवर्ष और और विदेशों में भी यह जिन लोगों की भाषा है, वे किसी को दबाने की नियत से नहीं गए। इसीलिए हिंदी भी दबे हुए लोगों के आवाज के रूप में उभरी है।‘ हिंदी ने अपनी गतिशीलता के कारण अपने आपको बदलते जीवन –परिदृश्यों के अनुरूप और भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला है।
हिंदी का आधुनिक साहित्य विश्व स्तरीय क्षमताओं से परिपूर्ण है। आजका हिंदी साहित्य हमारे बदलते सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक पक्षों को अपनी रचनात्मकता के माध्यम से सफलता के साथ प्रस्तुत कर रहा है। हमारे देश की बौद्धिक और दार्शनिक चेतना को हिंदी ने अपने स्तर पर महत्व प्रदान किया है। करोड़ों जनों की पैरोकारी करती यह भाषा इस देश को मजबूत करने का बहुत बड़ा आधार है। शिक्षा, न्यायालय और सरकारी कामकाज में जहाँ इस भाषा को माध्यम बनाया जा रहा है वहाँ स्वतंत्रता की सही अनुभूति से लोग अनुप्राणित हैं।हिंदी क्षेत्रीय तथा प्रांतीय भाषाओं को समुचित आदर दे रही है।
हिंदी की ग्राह्यता और सरलता को फिल्मों के माध्यम से भी अनुभव किया जा सकता है। हिंदी फिल्मों के गानों ने तो भारत के कोने-कोने में अपनी पैठ बना ली है।हिंदी भारत की अस्मिता की अभिव्यक्ति ही नही है,वह भारतीय अस्मिता को संरक्षित करने वाली भाषा भी है। आज इस बात को बहुत गहराई से अनुभव किया जा रहा है कि जब अंग्रेजी भाषा ने हमे भारताय संस्कारों से अलग-थलग कर दिया है तो ऐसे समय में यदि किसी भाषा में भारतीय संस्कारों को सुदृढ रखने व उन्हें युगानुकुल विकल्प देने की क्षमता है, तो वह भाषा हिंदी ही है; क्योंकि उसमें अपनी विकास-यात्रा में समूचे देश की समूची संस्कृति को अपनी अस्मिता में समेटा है।
प्रेम सागर सिंह
भाषा का संसार एक जीता-जागता संसार है। भाषा एक माध्यम भर नही है, वह मनुष्य की समूची विकास परंपरा है। उसकी संपूर्ण संस्कृति की भारसाधक और आधारभूत शक्ति का नाम ‘भाषा’ होता है। भाषा के माध्यम से मनुष्य अपनी, अपने युग की, अपने परिवेश की तमाम आशाओं, आकांक्षाओं, उपलब्धियों, प्रवृतियों, सफलताओं-विफलताओं को सँजोकर ही नही रखता, बल्कि अतीत की स्मृतियों और भविष्य की नीहारिकाओं को भी अनुभव करता है। भाषा एक भौतिक माध्यम भर नही है, वह विचारों और अनुभवों के तालमेल से निर्मित एक जीवनचर्या भी है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा केवल हवा, पानी की तरह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता मात्र नही है,वह एक आवश्यकता के साथ जीवन की समग्र अर्थवत्ता भी है। भाषा में ही जातीय स्मृतियों, ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति और समाज का अनुभव होता है और उसे सुरक्षित रखा जाता है।
हिंदी भाषा भी इन्ही अर्थों में भारतीय जीवन में केवल एक अभिव्यक्ति का माध्यम भर नही है, वह भारतीय जीवन की समग्रता के स्पंदनों का ध्वन्यांकन भी है। इस बात को लक्ष्य करके ही महात्मा गांधी कहा करते थे - हिंदी का प्रश्न मेरे लिए आजादी का प्रश्न है। हिंदी भाषा केवल एक भाषा मात्र नही है, वह संपूर्ण देश के संस्कार के रूप में पल्ल्वित और पुष्पित भाषा है। यदि हिंदी के इतिहास और विकास को बहुत ध्यान से देखा जाए तो यह केवल यह केवल भआषा की स्वतंत्र इकाई नही दिखती.हिंदी की जड़ें संस्कृत,प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, लोक बोलियों, अरबी-फारसी आदि देशी -विदेशी भाषाओं के रस से सींची गयी हैं। इन भाषाओं और बोलियों के तमाम शब्दों को हिंदी ने आत्मसात ही नही किया वरन् इनकी तहजीब भी अपने साथ जोड़ी। भारतीय जीवन प्रणाली का वह गुण, जिसे हम भारत की सहिष्णुता, सदाशयता और समन्वयकारी चेतना के रूप में जानते हैं,बहुत लंबे काल बाद भाषा के रूप में हिंदी अपनी संपूर्ण चेतना के साथ अभिव्यक्त हो सकी है।
हिंदी भाषा वह ताकत है,जिसने हमारे देश की विभिन्न संस्कृतियों की ऊर्जा का प्रभाव अनुभव किया जा सकता है।संस्कृत की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना,प्राकृत और अपभ्रंश की व्यापक लोक-चेतनातथा क्षेत्रीय बोलियों की मिठासउनके स्थानीय रंग-इन सबका मिश्रण हिंदी में दिखता है। इसके साथ ही अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के सत्संग से भी उसने अपने आपको निखारा है। इन भाषाओं का आंशिक शक्ति को लेकर अपने भीतर समेटनेवाली हिंदी भाषा का वातायन अभी खुला हुआ है। वह दुनिया की तमाम भाषाओं से अभी भी कुछ न कुछ ग्रहण करने के लिए सर्वदा तैयार है।
हिंदी को केवल उत्तर भारत के लोगों ने ही नही अपनाया, अपितु इसे दक्षिण भारत में भी महत्व मिला है। यदि भाषा की राजनीति का सिलसिला शुरू न हुआ होता तो आज दक्षिण में हिंदी भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका रही होती। हिंदी का विस्तार दूब की तरह हुआ है। दूब जैसी क्षमताएं हिंदी के जीवट के साथ जुड़ी हुई हैं। वह सामान्य लोगों के कारण ही भारत में एक दिशा से दूसरी दिशा तक फैली हुई है। भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों जैसे पुरी, द्वारकापुरी, बद्रीनाथ, रामेश्वरम, चारों कोनों में वह तीर्थयात्रियों,बिसातियों, साधु-संतों के साथ चलती रही है और देश की सीमाओं को छूती हुई अपनी आत्मा में संपूर्ण देश को समेटती रही है।
स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान तो हिंदी भाषा ने पूरे देश को एकता की डोर में बाँध दिया था। अपनी जाँबाज क्षमता को हिंदी ने उस समय कौमी तरानों और राष्ट्रीय नेताओं की तहरीरों से अभिव्यक्त किया था। हिंदी भाषा जब बोलती थी तब पूरा हिंदुस्तान बोलता था, अँगड़ाई लेता था, उत्सर्ग के लिए तैयार हो उठता था। ऐसा केवल इसलिए नही होता था कि हिंदी भाषा देश के सबसे बड़े क्षेत्र में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा थी,बल्कि इसलिए कि यह भाषा भारत की आत्मा की गहराइयों से अनुगुँजती थी। मजदूर, किसान ,सामान्यजन अपने दु:ख-दर्द इस भाषा में व्यक्त कर रहा था। यह वर्ग देश के चारो कोनों में उत्तर भारत से विस्थापित होकर फैल रहा था। फीजी, गुयाना, सुरीनाम, सुमात्रा, श्रीलंका, जावा, मारीशस आदि देशों तक ये लोग पहुँच गए। ये गिरमिटिया मजदूर, तीर्थ-क्षेत्रों के पंडे नए जगहों पर जाकर भी अपने दैनिक जीवन की भाषा में अपनी जातीय स्मृतियों, ओर परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए हुए थे।
हिंदी भाषा कभी राजाश्रय प्राप्त नही कर पाई। वह अपने सामर्थ्य के आधार पर फैली और आगे बढ़ी। हिंदी भाषा जो,पहले ‘भाखा’ थी, श्रमिक-दलित का स्नेह पाते ही पुष्ट हुई। इसलिए इस भाषा की सांस्कृतिक चेतना का आयाम बहुत विस्तृत है।गांव की माटी से लेकर शहरों के सुंदर आँगन मे यह समभाव से खेलती रही है: लेकिन इसकी भावनाएं सदैव भारत के संघर्षशील वर्ग के साथ रही हैं।मध्यकाल में इसके भक्ति आंदोलन ने वस्तुत: एक सामान्य आंदोलन को जाग्रत किया था:जिसमें दादू, नामदेव,छीपा, पीपा, आदि कवि अपना अभिव्यक्ति दे रहे थे। इन कवियों ने हिंदी के माध्यम से एक जन-चेतना का विस्तार दिया। कबीर का संपूर्ण काव्य तो सामाजिक क्रांति का पर्याय ही है। तुलसी की समन्वय-साधना का भी आधार यह भाषा रही है। जायसी और रसखान की मिठास भरी गंगा–जमुनी संस्कृति को हिंदी के माध्यम से सहसूस किया जा सकता है। एक तरह से भारतीयजावन पद्धति और उसकी अस्मिता के जो नियामक तत्व हैं, उन्हे इस भाषा ने आत्मसात् किया है।
हिंदी भाषा ने भारत की शांतिप्रिय उदार चेतना को अपने व्यक्तित्व में ढाला है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी भाषा की इस प्रवृति का उल्लेख करते हुए लिखा है-‘हिंदी संघर्ष के भाषा के रूप में नही बल्कि संसार मे शांति का संदेशवाहिका भाषा के रूप में स्वीकृत हुई है। भारतवर्ष और और विदेशों में भी यह जिन लोगों की भाषा है, वे किसी को दबाने की नियत से नहीं गए। इसीलिए हिंदी भी दबे हुए लोगों के आवाज के रूप में उभरी है।‘ हिंदी ने अपनी गतिशीलता के कारण अपने आपको बदलते जीवन –परिदृश्यों के अनुरूप और भारतीय समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला है।
हिंदी का आधुनिक साहित्य विश्व स्तरीय क्षमताओं से परिपूर्ण है। आजका हिंदी साहित्य हमारे बदलते सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक पक्षों को अपनी रचनात्मकता के माध्यम से सफलता के साथ प्रस्तुत कर रहा है। हमारे देश की बौद्धिक और दार्शनिक चेतना को हिंदी ने अपने स्तर पर महत्व प्रदान किया है। करोड़ों जनों की पैरोकारी करती यह भाषा इस देश को मजबूत करने का बहुत बड़ा आधार है। शिक्षा, न्यायालय और सरकारी कामकाज में जहाँ इस भाषा को माध्यम बनाया जा रहा है वहाँ स्वतंत्रता की सही अनुभूति से लोग अनुप्राणित हैं।हिंदी क्षेत्रीय तथा प्रांतीय भाषाओं को समुचित आदर दे रही है।
हिंदी की ग्राह्यता और सरलता को फिल्मों के माध्यम से भी अनुभव किया जा सकता है। हिंदी फिल्मों के गानों ने तो भारत के कोने-कोने में अपनी पैठ बना ली है।हिंदी भारत की अस्मिता की अभिव्यक्ति ही नही है,वह भारतीय अस्मिता को संरक्षित करने वाली भाषा भी है। आज इस बात को बहुत गहराई से अनुभव किया जा रहा है कि जब अंग्रेजी भाषा ने हमे भारताय संस्कारों से अलग-थलग कर दिया है तो ऐसे समय में यदि किसी भाषा में भारतीय संस्कारों को सुदृढ रखने व उन्हें युगानुकुल विकल्प देने की क्षमता है, तो वह भाषा हिंदी ही है; क्योंकि उसमें अपनी विकास-यात्रा में समूचे देश की समूची संस्कृति को अपनी अस्मिता में समेटा है।
एक सारगर्भित आलेख के द्वारा आपने विषय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला है। बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteजो भी राजनीति में लपेट लिया जाता है, अपना स्वरूप खो देता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख....
ReplyDeleteअच्छा आलेख। यदि उर्दू बोली को भी शामिल किया जाये तो हिन्दी शायद आज विश्व में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होगी!
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