Thursday, May 12, 2011

भारत, भ्रष्टाचार और साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार दानव के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठित करते जा रहा है। हमारे देश में यह एक बहुत बड़े भयावह रूप में अपने आयाम को विस्तृत करते जा रहा है और हम सबके सामने एक मुद्दे के रूप में उभर रहा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नही रहा। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय बाबा नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नही वल्कि संपूर्ण क्रांति पर लिखा, इंदिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नही लगता। जबकि हास्य-व्यंग के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जम कर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नही मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्मसमर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य, नैतिकता, परिवार और राजनैतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नही लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचार की धुरी है।यह प्रतिवाद को खत्म करता है। उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं मे संपदा संचय की प्रवृति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धाराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी गुट का पराभव हुआ।
अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े़ शासकों में पूंजी एकत्र करने, येन-केन-प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया मे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी है।आज व्यव्स्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सेलीब्रिटी पुरूष चलाते रहे हैं।ये मूलत:मीडिया इवेंट हैं।ये जन-आदोलन नही है। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण आदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं। य़े मीडिया तथा इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं।प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता संबोधित होते हैं।जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जनसमस्यओं को मीडिया टाक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्या जनता में कम टी वी टाक शो में ज्यादी देखी और सुनी जाती है। इनमे जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा समर्थन हासिल है। उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिली भगत से हुई है। आज के इस बदलते परिदृश्य में साहित्य से जुड़े लोगों का यह कर्तव्य हो जाता है कि इस दिशा में कुछ साहित्यिक योगदान देकर अपनी भूमिका का निर्वाह करें और इस देश की डूबती नैया को बचाने के साथ-साथ लोगों की मानसिकता में भी आमूल परिवर्तन लाने का प्रयास करें। जब हर उपाय कारगर सिद्ध नही होते हैं तब साहित्य ही कारगर सिद्ध होता है।
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3 comments:

  1. साहित्य में भी मानसिक भ्रष्टाचार है कुछ हद तक।

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  2. pata nahi kab ye bhrastachar khatm hoga..!
    hamne bhi bhrastachar pe kuchh likha hai, kabhi blog pe ayen sir!

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  3. बहुत बढ़िया लिखा है आपने भ्रष्टाचार पर! उम्मीद है की भ्रष्टाचार जल्द ही ख़त्म हो जाए! उम्दा पोस्ट!

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