इस बार मैं ‘अज्ञेय’ जी की निम्नलिखित कविता प्रस्तुत कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ कि अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी आपके दिल में उनके तथा मेरे प्रति भी थोड़ी सी जगह पा जाए।
जाने वाले चले जाते हैं, केवल उनकी यादें ही रह जाती हैं। उनको याद करने के बहाने ही सही, अपनी टिप्प्णी देकर उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करना ही हम सब के लिए दिवंगत आत्मा के प्रति एक समर्पण होगा एक सच्ची विनम्र श्रद्धांजलि होगी अन्यथा हम सब के लिए हिंदी ब्लाग से जुड़ा रहना अर्थहीन सिद्ध होगा।सुझाव है-इस क्षेत्र में प्रवेश करते समय हमें इस वास्तविक को स्वीकार करना पड़ेगा कि हम अपने प्रकाशस्तम्भों के चिर-सामीप्य में रहकर ही साहित्य की सच्ची सेवा कर सकते हैं।
कितनी नावों में कितनी बार
कितनी दूरियों से कितना बार
कितनी डगमग नावों में बैठकर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हे न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रूपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नही बनते
केवल चौधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य -
सत्य नही अंतहीन सच्चाइयां.......
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त......
कितनी बार!
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जाने वाले चले जाते हैं, केवल उनकी यादें ही रह जाती हैं। उनको याद करने के बहाने ही सही, अपनी टिप्प्णी देकर उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करना ही हम सब के लिए दिवंगत आत्मा के प्रति एक समर्पण होगा एक सच्ची विनम्र श्रद्धांजलि होगी अन्यथा हम सब के लिए हिंदी ब्लाग से जुड़ा रहना अर्थहीन सिद्ध होगा।सुझाव है-इस क्षेत्र में प्रवेश करते समय हमें इस वास्तविक को स्वीकार करना पड़ेगा कि हम अपने प्रकाशस्तम्भों के चिर-सामीप्य में रहकर ही साहित्य की सच्ची सेवा कर सकते हैं।
कितनी नावों में कितनी बार
कितनी दूरियों से कितना बार
कितनी डगमग नावों में बैठकर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हे न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रूपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नही बनते
केवल चौधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य -
सत्य नही अंतहीन सच्चाइयां.......
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त......
कितनी बार!
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बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगती है यह कविता।
ReplyDeleteअभी अनुसरण कर लूँ ..टिप्पणी बाद में करूँगा ...आखिर ‘अज्ञेय’ जी की कविता है
ReplyDeleteजहाँ नंगे अंधेरों को
ReplyDeleteऔर भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नही बनते
केवल चौधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य -
सत्य नही अंतहीन सच्चाइयां.......
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त......
कितनी बार!
अज्ञेय जी की लेखनी को नमन !
प्रेम जी, अज्ञेय जी की सुख्यात रचना लगाए के लिए आपका आभार !
अज्ञेयजी की यह रचना जीवन के कटु अनुभवों से साक्षात्कार सा करवाती प्रतीत हो रही हैं । आभार इस प्रस्तुति के लिये...
ReplyDeleteयह कविता अज्ञेय की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में एक है.. एक बार फिर पाठ करवाने के लिए बहुत बहुत आभार..
ReplyDeleteअज्ञेय जी की सुन्दर रचना से रूबरू करवाने के लिए बहुत-बहुत आभार !
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई!
ReplyDeleteमंगल कामना के साथ.......साधुवाद!
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
main bhi agya ji ki lekni ko naman karti hoon ,ye mere priy kavi hai ,inki rachna man ko chhooti hai ,main to inhe aankho se dekhi hoon aur saamne inke baith kar inki rachna suni hoon ye mera saubhagya hai .bahut gahrai hai shabdo me .
ReplyDeleteसरल शब्दों में मन के भाव..
ReplyDeleteअज्ञेय को पढना सदैव सुखद ही लगता है..... यह सुंदर रचना पढवाने का आभार......
ReplyDeleteअज्ञेय जी की कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteअज्ञेय जी की रचना से हो कर गुज़रना हमेशा सुखद लगता है।
ReplyDelete‘कितनी नावों में कितनी बार’ पढ़वाने के लिए धन्यवाद ।
कितनी बार यह कविता पढ़ी है और जब भी पढ़ी, आनंद में कोई कमी नहीं आती... आभार प्रेम बाबू!!
ReplyDeleteअज्ञेय जी की कविता आप सब के मन में थोड़ी सी जगह पा गयी,मेरे लिए यही काफी है।आप सभी को मैं तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूं।
ReplyDeleteNice ONE
ReplyDeleteKindly visit http://ahsaskiparten-sameexa.blogspot.com/
मैं तो उनकी जबरदस्त प्रशंसकों में से हूं....मैने उन्हें खूब पढ़ा है...मुझे बहुत पसंद है ये....आभार
ReplyDeleteअब जरा अपनी कविता भी तो डालिए, प्रेमसरोवर जी
ReplyDeleteरीता जी,(आपके लिए मेरे पास कोई संबोधन नही है)
ReplyDelete"मैं आपको किस विशेषण से अलंकृत करू,
मुझे कोई समीचीन विशेषण नही मिलता है।
उस विशेषण को अहर्निश ढूढ़ने के प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।"
आप कविता तो पढ़ लेती है लेकिन कवि के अंतर्मन को नही।सुझाव है -कवि की भावनाओं की कद्र कीजिए। आपने जब चुनौती दे ही दिया है तो मेने एक छोटी सी कविता जो वर्तमान में सृजनाधीन है,शीघ्र ही पेश करूंगा।
यही कामना है कि-
हर पल यहां जी भर जिय़ो। धन्यवाद। लेकिन.......
"कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी ,
खांच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बांह मेरी।"
शुभ रात्रि।
वैसे तो अज्ञेय जी को हिंदी साहित्य में अस्तित्ववादी कवि के रूप में जाना जाता है ..लेकिन उनकी कवितायेँ अध्यात्म का सुंदर नमूना हमारे सामने पेश करती हैं ....चाहे वो "सत्य तो बहुत मिले" हो यह फिर "असाध्य वीणा".."कितनी नावों में कितनी बार" में भी यही भाव हमारे सामने उपस्थित किया है ...आपका आभार प्रेमसरोवर जी
ReplyDeleteकेवल राम जी,
ReplyDeleteमुझे बेहद खुशी हुई की अज्ञेय जी की रचना आपके दिल में थोड़ी सी जगह पा गयी। मुझे प्रोत्साहित करने के लिए आपको कोटिश:धन्यवाद।सादर।
Agey jee ke ye to sarwkalik rachna hai, padhwane ke liye dhanyawad.......:)
ReplyDeleteसभी लोगों को मेरी ओर से अशेष शुभकामनाएं।
ReplyDeleteउन्हें पढ़ना हमेश एक सुखद अनुभूति होती है...
ReplyDeleteरचनाएँ पढवाने हेतु धन्यवाद...
अज्ञेय जी की यह रचना पढ़वाने के लिये आभार। अज्ञेय जी के पूर्वसैनिक होने के बारे में जानकारी नई रही। उनके प्रति सम्मान की मात्रा और बढ़ गई। धन्यवाद।
ReplyDeleteये कविता जाने किस लोक में खींच ले गयी मुझे
ReplyDeleteपढवाने के लिए आभारी हूँ.
अज्ञेय जी की सुन्दर रचना से रूबरू करवाने के लिए बहुत-बहुत आभार !
ReplyDeleteआप सब को तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूं।धन्यवाद।
ReplyDeleteacchi kavita dhanyawad
ReplyDeleteacchi prastuti dhanyawad
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