स्पेशल पॉवर ऑफ एटॉर्नी
प्रेम सागर सिंह
संस्मरण -III
प्रत्येक मनुष्य जब अपनी उमर के ढलान पर बढ़ने लगता है तो बच्चों के भविष्य की चिंता, उनकी शादी, परिवार, समाज, रिश्ते, मान, अपमान, सुख-दुख, प्रेमपरक जीवन के सुहावने दिन और जवानी की हँसीन रातें स्मृति-मंजूषा में चिर संचित अतीत की सुखद एवं दुखद स्मृतियां ही उसके जीवन यात्रा की प्रथम संगी बन कर रह जाती हैं। जीवन में छोटे-छोटे अहम हमें अपनों से दूर तो कर देते हैं किंतु जीवन की सांध्य- बेला में वही रिश्ते फिर याद आने लगते हैं।
बात उन दिनों की है जब मैं भारतीय वायु सेना से रिटायर होकर कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा था। किसी कानूनी विचार- विमर्श के दौरान मेरी मुलाकात जयप्रकाश जी से हुई थी। देखने में सरल एवं मृदुभाषी व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति जय प्रकाश जी एक बहुत बडे़ हायर परचेज कंपनी के मालिक थे। उनके आग्रह पर मैनें उस कंपनी की नौकरी स्वीकार कर ली थी। मैं वहां पर कानूनी सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था। वे मुझे जरूरत से ज्यादा सम्मान देते थे एवं प्रत्येक सुझाव को ध्यान से सुनते थे। समय के प्रवाह के साथ उनका विश्वास बढ़ता गया। इसके कारण मैं दृढ़ प्रतिज्ञ होकर अपने कार्य में जुट गया था। पुराने अभिलेखों के अध्ययन के पश्चात पाया कि इस फर्म में कार्य करने वालों ने अपना कार्य सही ढंग से नही किया है। धीरे-धीरे अभिलेखों को अद्यतन करना शुरू किया एवं अंत में पाया कि इस फर्म को काफी नुकसान हुआ है। जयप्रकाश जी को फर्म की वर्तमान अवस्था से परिचित कराया तो उनका भी दिमाग चकरा गया। लगा वे मुर्क्षित हो जाएगें।मै कुछ देर तक शांत बैठा रहा। थोडी़ देर बाद माथे का पसीना पोछते हुए बोले- “सिंह जी,आपको मैं अपनी ओर से पूरी स्वतंत्रता देता हूं कि जो भी उचित लगे कीजिए एवं इस फर्म की डूबती नैया को आर्थिक भँवर से निकालें। मैं कल ही एक स्पेशल पाँवर ऑफ एटार्नी आपको दे दूंगा। अब मेरा शरीर काम नही करता है। इतने बड़े व्यवसाय का प्रबंधन अब मेरे द्वारा संभव नही है। अत मैं आपको पूरी जिम्मेदारी सौंप रहा हूं। “
अचानक इस अप्रत्याशित बात को सुनकर मैं नि:शब्द हो गया था। मन ही मन सोंचने लगा था इतना बडा उत्तरदायित्व संभाल पाऊंगा या नही। यदि कुछ सही गलत हो गया तो क्या होगा। परिवार समाज क्या कहेगा। उस समय मेरे मन में उत्पन्न हो रहे मानसिक द्वन्ध पर आत्म विश्वास ने सहजता से विजय प्राप्त कर लिया था। इस चुनौती को मैंने मन ही मन स्वीकार भी कर लिया था। कहते हैं- विधि के विधान को टाला नहीं जा सकता।“ ठीक वैसा ही हुआ। जयप्रकाश जी की शारीरिक अवस्था बिगड़ने लगी एवं ऑफिस आने जाने का क्रम प्राय बंद हो गया। बीमारी की अवस्था में एक बार उनके घऱ गया था। तिजोरी एवं अपने रूम की चाबी मुझे सौंपते हुए उन्होने कहा था-“आप मेरे रूम में ही बैठेगे एवं मालिक की हैसियत से अपना काम करेंगे।“
इस दायित्व ने मुझे आत्म-विश्वासी एवं संयमी बना दिया। मैं समय से ऑफिस आता एवं अपने द्वारा निर्धारित रूटीन के अनुसार कार्य निष्पादन का आदेश फर्म में कार्यरत कर्मचारियों को देता था। कार्य समीक्षा के दौरान पाया कि किसी ने भी अपना कार्य सही ढंग से नही किया है। कारण जानने पर सबने एक स्वर में नाना प्रकार के कारण दिखाए। मैं असमंजस में पड़ गया था। इस स्थिति में कोई निर्णय लेना आसान काम नहीं था।
दूसरे दिन सबको अपने कमरे में बुलाया एवं कार्य के प्रति उदासीनता का कारण जानना चाहा। मैं भी कुछ महसूस कर रहा था कि इतने सारे स्टाफ हैं पर काम क्यूं नही आगे बढ़ रहा है। चर्चा के दौरान पाया कि उस फर्म के सबसे विश्वासी कर्मचारी प्रभुनाथ जी ने बताया कि सर,हम लोगों को समय से न वेतन मिलता है,न बोनस, न एडवांस। यही कारण है कि हम लोग सक्रिय होकर भी निष्क्रिय हो जाते हैं। मैंने सबके सामने कैशियर को बुलाया एवं उसी दिन वेतन देने का आदेश दे दिय़ा एवं साथ- साथ यह भी निदेश दिया कि पूजा के पहले सभी लोगों को 500 रूपये बोनस भी दिया जाए। इसे सुनकर सभी लोग प्रसन्न मुद्रा में कमरे से बाहर आ गए।
कुछ ही दिनों में फर्म के काम में काफी प्रगति होने लगी। सभी लोग अपना काम सुचारू रूप से करने लगे थे। वसूली का कार्य भी तेजी से होने लगा। फर्म की चरमरा चुकी स्थिति में काफी सुधार होने लगा एवं कुछ ही महीनों में फर्म का काया पलट हो गया। मुझे भी अब अच्छा लगने लगा था।
एक दिन ऑफिस में खबर आया कि जयप्रकाश जी का निधन नर्सिंग होम में हो गया। हम सभी हतप्रभ होकर रह गए। मेरा भी मन घोर पीडा़ से व्यथित हो गया था। सारे अरमान अधूरे रह गए थे।‘श्राद्ध’ के दिन मै अन्य कर्मचारियों के साथ मालिक के निवास स्थान पर गया था। उनके अनेक रिश्तेदार दूर से आए थे। उनमें मालिक के दामाद रमेश जी से मेरा परिचय करवाया गया। इस शोक संतप्त एवं उदासी की घड़ी में उनसे कोई बात नहीं हुई। गमी के भोजन के पश्चात हम सभी अपन-अपने घर वापस आ गए थे। घर आकर मैं काफी चिंतित रहा। कुछ सोचते-सोचते न जाने कब निंद्रा देवी की गोद में सो गया। पता ही न चला। दूसरे दिन से रोजमर्रा की जिंदगी प्रारंभ हो गयी एवं कार्यालय में हर काम पूर्ववत होने लगा। हम सब इस फर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुचाने के लिए कटिबद्ध हो गए। मालिक तो रहे नहीं, मालकिन हम सब के लिए मुख्य चिंता का विषय बन गयी थी। श्राद्ध के दिन वापस आते वक्त उन्होंने कहा था –“बेटा, अब तो मैं अभागिन बनकर रह गयी हूं, न जाने उस जनम में कौन सा पाप किया था जो आज सब कुछ रहने के बाद भी एक नारकीय जीवन से गुजरना पड़ेगा। ले देकर एक बेटा था वह भी जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही स्वर्गवासी हो गया। घर में जवान विधवा बहू है। उसके सामने जाने का मन नही करता है। “ इतना कहते हुए वे अत्यंत बोझिल हो गई थी एवं बगल के अधखुले दरवाजे पर अचानक नजर पड़ी तो देखा कि सौंदर्य की साक्षात प्रतिमूर्ति श्वेत वस्त्र में मुझे निहार रही थी। उसकी आखों में कितना दर्द छिपा था, मै समझ गया था। मैं आश्वासन देकर विदा हो गया था।
कुछ दिन कार्यालय में आने के बाद मालिक की स्मृतियां विस्म़तृ सी होने लगी थी। इसी बीच अचानक गांव पर बीमार चल रहे मेरे चाचा की शारीरिक अवस्था बिगड़ गई थी एवं घर वालों के आग्रह पर मुझे गांव जाना पड़ गया था। वहां सब कुछ व्यवस्थित कर एक सप्ताह बाद कोलकाता लौट आया था।
दूसरे दिन कार्यालय पहुंचा तो सभी लोग विस्मित होकर मुझे देखने लगे थे। कार्यालय में नीरवता छायी हुई थी। कमरे में एक अजनबी जैसे लगने वाले व्यक्ति को देखा तो भांप गया कि सिक्का बदल गया है अन्यथा कौन व्यक्ति इस कुर्सी पर बैठ सकता है। मालिक ने तो बैठने का अधिकार मुझे दिया था एवं मालकिन यशोदा देवी इसकी गवाह थी। फिर भी, कुछ देर बाद कमरे में प्रवेश किया तो देखा कि मिस्टर रमेश रॉयल चैलेंज की बोतल से ग्लास में पेग बनाने के लिए शराब उड़ेल रहे थे एवं दूसरे हाँथ में सिगरेट लिए थे। इसके पूर्व कि मै कुछ कहता- वे स्वयं कहने लगे-“मिस्टर सिंह कल से आप बाहर वाली अपनी कुर्सी पर बैठेगें एवं बिना बुलाए इस कमरे में नहीं आएगे।“ मेरा मन तिलमिला उठा। एक गजब सी बेचैनी और आंतरिक व्यथा ने मुझे संयम खोने पर वाध्य कर दिया एवं इसी वाध्यता के वशीभूत होकर मेरी धैर्य की सीमा भी टूट गयी। मेर तन-मन विद्रोह भाव से ज्वलित हो उठा। फिर भी संयम रखते हुए कहा- मिस्टर रमेश कान खोलकर सुन लीजिए कि मै एक भूतपूर्व-सैनिक हूँ। आत्म–सम्मान, ईमानदारी, अनुशासन, समर्पण एवं सत्यनिष्ठा मेरे जीवन का अविभाज्य अंग है। यहाँ काम करना मेरी मजबूरी नही है। मैं एक इंसानी रिश्ते को ढो रहा था। सोचने लगा था कि जिस घर को कितने कष्ट और समय देकर बनाया था उसी घर को कैसे विधाता ने नष्ट कर दिया। व्यथित हृदय से कहा था “रमेश जी इसमें मालिक का फोटो एवं गणेश जी की मूर्ति है. क्या आपको इसका भी ध्यान नही है?” इतना कहकर मैं वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया था। कुछ देर बाद आवश्यक कागजात प्रभुनाथ जी के हाथों उनको भेज दिया एवं साथ- साथ यह भी कहला भेजा कि कल से मैं इस फर्म में नही आऊँगा। मैं यह नौकरी छोड़ रहा हूँ। मिस्टर रमेश से बर्दाश्त नही हुआ और बाहर निकल कर बोले कि नकदी, तिजोरी की चाबी एवं स्पेशल पॉवर ऑफ एटर्नी देकर जाइए। मुझ से भी बर्दाश्त नही हुआ एवं कहा-“इन सारी चीजों को मालिक ने मुझे दिया था। आप कौन होते हैं? मै सब कुछ मालकिन को घर जाते समय सौंप दूँगा।“
सब कुछ सहेज कर ब्रीफकेश में रख लिया था। बाहर निकलने की तैयारी कर रहा था। ठीक उसी वक्त प्रभुनाथ जी मेरे पास आए एवं बोले- साहब,यह जगह काम करने लायक नही है। अच्छा होगा, आप यहां से वास्तव में चले जाए। यह नया मालिक हम सबको भी कई बार अपशब्द निकाल चुका है। हो सके तो मेरे लिए भी कोई काम मिले तो देखिएगा। अचानक मुझे याद आया कि प्रभुनाथ जी की बेटी की शादी अगले महीने में है एवं उन्हे सात महीने का बकाया वेतन भी देना है। मैं घोर मानसिक दबाव के बावजूद भी चेक बुक निकाला एवं 25 हजार रू का चेक काटकर उन्हे दे दिया। उनकी ऑखें सजल हो उठी एवं बड़े ही आत्मीय ढंग से उन्होने कहा था सिंह जी ,शायद ही मैं आपको भूल पाउँ। ऑफिस से बाहर निकलते समय अन्य स्टाफ से विदा लिया। सभी लोग कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही थे। केवल प्रभुनाथ जी मेरे साथ चटर्जी इन्टरनेशनल बिल्डिंग से नीचे आए। उत्सुकतावश उन्होने पूछा कि सिंह साहब,आपने मुझे चार हजार रूपये ज्यादा दिया है। प्रत्युत्तर में मैने केवल इतना ही कहा था कि वह मेरी ओर से था। इस पर वे अत्यंत द्रवित हो गए थे।
हर विषम परिस्थितियों में चिर प्रसन्न रहने वाले प्रभुनाथ जी आज अत्यंत उदासीन नजर आ रहे थे। उनसे विदा लेते समय मै भी भावुकता के अथाह सागर में अकस्मात फिसल गया। चाहकर भी हम दोनों ऑसुओं के अविरल प्रवाहित सैलाब को न रोक सके। इसके पूर्व कि हम दोनों भावनात्मक डोरी की गिरह में बध जाते,मिनी बस आ गई एवं संयमपूर्वक अश्रु-प्लावित ऑखों को पोछते हुए बस में चढ़ गया था सीट पर बैठने के बाद खिड़की से झांक कर देखा तो वे भी आसूँओं को पोछते हुए बेजान कदमों से ‘चटर्जी इन्टरनेशनल’ के मुख्य द्वार में प्रवेश कर रहे थे। उनका सामीप्य एवं सहज व्यक्तित्व मुझे अच्छा लगता था। वे कभी-कभी अवकाश के क्षणों में मेरे आग्रह पर भोजपुरी गीत गाया करते थे। उनकी आवाज में दर्द एवं मधुर स्वर लहरी थी। अपने पद-प्रतिष्ठा को भूलकर मै भी अन्य बिहारी लोगों के साथ उनके गीत का आनंद उठाता था। उनका एक प्रिय भोजपुरी गीत-“जा बेटी ससुराल तू जा,रो्अला से रीत न बदलेला, सेनुरा पड़ते ही मंगिया में नईहर से नाता टूटेला” मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। बस चली जा रही थी एवं स्म़ृतियां पीछे छूटती जा रही थी। कुछ देर बाद मालिक का घर आ गया था। मैं घर में जाकर मालकिन से सारी स्थिति का जिक्र किया एवं बुखार से ग्रस्त रहने के कारण उन्होने बहू को बुला लिया। उन्हे भी इस बात को कहा। उनकी बहू भी काफी समझदार थी। बड़े ही संजीदगी से कहा था -प्रेम जी, हम सब भी अब मजबूर हैं, दुखी हैं। मिस्टर रमेश जो कुछ भी कर रहे हैं, हम सब जानते हैं। वे हम सब का भला नही अनिष्ट करने आए हैं। अच्छा होगा कि आप हम सबके लिए कष्ट क्यों सहेगें। पढ़े लिखे आदमी हैं- आपको कही भी नौकरी मिल जाएगी। मैं मजबुरी को समझ गया। चेक बुक,पास बुक एवं करीब तीन लाख रूपये बहू के हांथ सुपुर्द कर दिया। इसके साथ वह ‘स्पेशल पॉवर ऑफ एटार्नी’ भी जिसे मालिक ने मुझे दिया था।
चलते वक्त बहू नो मुझे रोक लिया था। इसके पूर्व कि कुछ कह पाता उन्होने अपने एकाउन्ट से दिनांक, मेरा नाम भरा हुआ एवं स्वयं हस्ताक्षरित चेक मना करने पर भी मेरे पॉकेट में डाल दिया था। घर आकर देखा तो उस पर राशि लिखने वाली जगह खाली थी। आज भी वह चेक मेरे फाइल में वैसे ही पड़ा है। जब कभी उधर जाता हूं ‘चटर्जी इन्टरनेशनल’ आने के पहले ही अपनी दृष्टि विपरीत दिशा में कर लेता हूं।
आज करीब-करीब आठ साल बाद मैं पार्क स्ट्रीट कुछ कार्यवश गया था। घर लौटते वक्त अचानक मेरे कदम ‘चटर्जी इन्टरनेशनल बिल्डींग की तरफ मुड़ गए थे। वैसे तो उस फर्म की नौकरी छोड़ने के बाद फिर मुड़कर भी नही देखा था, न कुछ सोंचा था पर प्रभुनाथ जी एवं अन्य लोगों के बारे में हमदर्दी ने मुझे अनायास ही उधर खींच लिया। चलते- चलते नाना प्रकार के भाव मन में उत्पन्न हो रहे थे। सब कुछ याद आता गया एवं ऐसा लग रहा था जैसे कि आज मैं पुन: उसी रूप में आया हूं जैसे पिछले आठ साल पहले आया था। लिफ्ट से ऊपर आते वक्त मुझे एक अजीब सी बेचैनी ने घेर लिया। सोचने लगा था कि शायद मुझे वैसा ही माहौल एवं अन्य लोगों का सामीप्य मिलेगा। प्रभुनाथ जी, मोहन, भगवान सिंह सबसे मुलाकात होगी। मिस्टर रमेश से भी मिलूंगा। सबसे मिलने की अनिर्वचनीय खुशी से मेरा अंतर्मन भर आया था। इतने में लिफ्ट का दरवाजा खुला और मैं तीव्र गति से उस फर्म के मुख्य दरवाजे पर पहँच गया था।
मुख्य द्वार पर शीशा का गेट था। झांक कर देखा तो अंदर बिल्कुल अंधेरा था एवं ऐसा लगा था कि इस फर्म में कोई है ही नही। अच्छी तरह से देखा तो लगा कि पिछली ओर एक मद्धिम रोशनी में एक क्षीणकाय व्यक्ति सोय़ा पड़ा था। दरवाजे पर पुन: दस्तक देने के बाद वह व्यक्ति किसी तरह चल कर आया एवं दरवाजा खोला। मैं देखते ही पहचान गया कि प्रभुनाथ जी हैं। उन्होने भी मुझे पहचान लिया एवं भीतर लेकर चले आए। जिस खुशी और आत्मीयती ने मुझे यहां खींचकर लाया था अचानक उसकी जगह एक असीम वेदना ने मुझे प्रभावित कर दिया। प्रभुनाथ जी की शारीरिक अवस्था, अन्य लोगों का न होना तथा मालिक के रूम की दुर्दशा देख कर ही मैं भांप गया कि यह फर्म बंद हो गया है।
सुख-दुख में समभागी रह चुके प्रभुनाथ जी ने बताया कि सिंह जी आपका अनुमान सही है। य़ह फर्म अब बंद हो गया है एवं रमेश बाबू काफी पैसों का घोटाला कर चले गए हैं। कुछ देर तक उनके साथ रहा लेकिन शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण प्रभुनाथ जी अब पहले की तरह नही रह गए थे।
थोड़ी देर बाद मैं प्रभुनाथ जी से विदा लिया। लौटते वक्त अतीत की स्मृतियां एक-एक करके पीछा कर रही थी। जितना भी प्रयास करता था उतनी ही एक गजब सी बेचैनी संत्रस्त कर देती थी। सच ही कहा गया है -“पुरूष बलि नहीं होत हैं,समय होत बलवान।‘ बाहर आने के बाद उपर्युक्त सारी घटनाएं मेरे लिए एक सपना बन कर रह गयी हैं, जिससे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
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प्रेम सागर सिंह
संस्मरण -III
प्रत्येक मनुष्य जब अपनी उमर के ढलान पर बढ़ने लगता है तो बच्चों के भविष्य की चिंता, उनकी शादी, परिवार, समाज, रिश्ते, मान, अपमान, सुख-दुख, प्रेमपरक जीवन के सुहावने दिन और जवानी की हँसीन रातें स्मृति-मंजूषा में चिर संचित अतीत की सुखद एवं दुखद स्मृतियां ही उसके जीवन यात्रा की प्रथम संगी बन कर रह जाती हैं। जीवन में छोटे-छोटे अहम हमें अपनों से दूर तो कर देते हैं किंतु जीवन की सांध्य- बेला में वही रिश्ते फिर याद आने लगते हैं।
बात उन दिनों की है जब मैं भारतीय वायु सेना से रिटायर होकर कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा था। किसी कानूनी विचार- विमर्श के दौरान मेरी मुलाकात जयप्रकाश जी से हुई थी। देखने में सरल एवं मृदुभाषी व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति जय प्रकाश जी एक बहुत बडे़ हायर परचेज कंपनी के मालिक थे। उनके आग्रह पर मैनें उस कंपनी की नौकरी स्वीकार कर ली थी। मैं वहां पर कानूनी सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था। वे मुझे जरूरत से ज्यादा सम्मान देते थे एवं प्रत्येक सुझाव को ध्यान से सुनते थे। समय के प्रवाह के साथ उनका विश्वास बढ़ता गया। इसके कारण मैं दृढ़ प्रतिज्ञ होकर अपने कार्य में जुट गया था। पुराने अभिलेखों के अध्ययन के पश्चात पाया कि इस फर्म में कार्य करने वालों ने अपना कार्य सही ढंग से नही किया है। धीरे-धीरे अभिलेखों को अद्यतन करना शुरू किया एवं अंत में पाया कि इस फर्म को काफी नुकसान हुआ है। जयप्रकाश जी को फर्म की वर्तमान अवस्था से परिचित कराया तो उनका भी दिमाग चकरा गया। लगा वे मुर्क्षित हो जाएगें।मै कुछ देर तक शांत बैठा रहा। थोडी़ देर बाद माथे का पसीना पोछते हुए बोले- “सिंह जी,आपको मैं अपनी ओर से पूरी स्वतंत्रता देता हूं कि जो भी उचित लगे कीजिए एवं इस फर्म की डूबती नैया को आर्थिक भँवर से निकालें। मैं कल ही एक स्पेशल पाँवर ऑफ एटार्नी आपको दे दूंगा। अब मेरा शरीर काम नही करता है। इतने बड़े व्यवसाय का प्रबंधन अब मेरे द्वारा संभव नही है। अत मैं आपको पूरी जिम्मेदारी सौंप रहा हूं। “
अचानक इस अप्रत्याशित बात को सुनकर मैं नि:शब्द हो गया था। मन ही मन सोंचने लगा था इतना बडा उत्तरदायित्व संभाल पाऊंगा या नही। यदि कुछ सही गलत हो गया तो क्या होगा। परिवार समाज क्या कहेगा। उस समय मेरे मन में उत्पन्न हो रहे मानसिक द्वन्ध पर आत्म विश्वास ने सहजता से विजय प्राप्त कर लिया था। इस चुनौती को मैंने मन ही मन स्वीकार भी कर लिया था। कहते हैं- विधि के विधान को टाला नहीं जा सकता।“ ठीक वैसा ही हुआ। जयप्रकाश जी की शारीरिक अवस्था बिगड़ने लगी एवं ऑफिस आने जाने का क्रम प्राय बंद हो गया। बीमारी की अवस्था में एक बार उनके घऱ गया था। तिजोरी एवं अपने रूम की चाबी मुझे सौंपते हुए उन्होने कहा था-“आप मेरे रूम में ही बैठेगे एवं मालिक की हैसियत से अपना काम करेंगे।“
इस दायित्व ने मुझे आत्म-विश्वासी एवं संयमी बना दिया। मैं समय से ऑफिस आता एवं अपने द्वारा निर्धारित रूटीन के अनुसार कार्य निष्पादन का आदेश फर्म में कार्यरत कर्मचारियों को देता था। कार्य समीक्षा के दौरान पाया कि किसी ने भी अपना कार्य सही ढंग से नही किया है। कारण जानने पर सबने एक स्वर में नाना प्रकार के कारण दिखाए। मैं असमंजस में पड़ गया था। इस स्थिति में कोई निर्णय लेना आसान काम नहीं था।
दूसरे दिन सबको अपने कमरे में बुलाया एवं कार्य के प्रति उदासीनता का कारण जानना चाहा। मैं भी कुछ महसूस कर रहा था कि इतने सारे स्टाफ हैं पर काम क्यूं नही आगे बढ़ रहा है। चर्चा के दौरान पाया कि उस फर्म के सबसे विश्वासी कर्मचारी प्रभुनाथ जी ने बताया कि सर,हम लोगों को समय से न वेतन मिलता है,न बोनस, न एडवांस। यही कारण है कि हम लोग सक्रिय होकर भी निष्क्रिय हो जाते हैं। मैंने सबके सामने कैशियर को बुलाया एवं उसी दिन वेतन देने का आदेश दे दिय़ा एवं साथ- साथ यह भी निदेश दिया कि पूजा के पहले सभी लोगों को 500 रूपये बोनस भी दिया जाए। इसे सुनकर सभी लोग प्रसन्न मुद्रा में कमरे से बाहर आ गए।
कुछ ही दिनों में फर्म के काम में काफी प्रगति होने लगी। सभी लोग अपना काम सुचारू रूप से करने लगे थे। वसूली का कार्य भी तेजी से होने लगा। फर्म की चरमरा चुकी स्थिति में काफी सुधार होने लगा एवं कुछ ही महीनों में फर्म का काया पलट हो गया। मुझे भी अब अच्छा लगने लगा था।
एक दिन ऑफिस में खबर आया कि जयप्रकाश जी का निधन नर्सिंग होम में हो गया। हम सभी हतप्रभ होकर रह गए। मेरा भी मन घोर पीडा़ से व्यथित हो गया था। सारे अरमान अधूरे रह गए थे।‘श्राद्ध’ के दिन मै अन्य कर्मचारियों के साथ मालिक के निवास स्थान पर गया था। उनके अनेक रिश्तेदार दूर से आए थे। उनमें मालिक के दामाद रमेश जी से मेरा परिचय करवाया गया। इस शोक संतप्त एवं उदासी की घड़ी में उनसे कोई बात नहीं हुई। गमी के भोजन के पश्चात हम सभी अपन-अपने घर वापस आ गए थे। घर आकर मैं काफी चिंतित रहा। कुछ सोचते-सोचते न जाने कब निंद्रा देवी की गोद में सो गया। पता ही न चला। दूसरे दिन से रोजमर्रा की जिंदगी प्रारंभ हो गयी एवं कार्यालय में हर काम पूर्ववत होने लगा। हम सब इस फर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुचाने के लिए कटिबद्ध हो गए। मालिक तो रहे नहीं, मालकिन हम सब के लिए मुख्य चिंता का विषय बन गयी थी। श्राद्ध के दिन वापस आते वक्त उन्होंने कहा था –“बेटा, अब तो मैं अभागिन बनकर रह गयी हूं, न जाने उस जनम में कौन सा पाप किया था जो आज सब कुछ रहने के बाद भी एक नारकीय जीवन से गुजरना पड़ेगा। ले देकर एक बेटा था वह भी जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही स्वर्गवासी हो गया। घर में जवान विधवा बहू है। उसके सामने जाने का मन नही करता है। “ इतना कहते हुए वे अत्यंत बोझिल हो गई थी एवं बगल के अधखुले दरवाजे पर अचानक नजर पड़ी तो देखा कि सौंदर्य की साक्षात प्रतिमूर्ति श्वेत वस्त्र में मुझे निहार रही थी। उसकी आखों में कितना दर्द छिपा था, मै समझ गया था। मैं आश्वासन देकर विदा हो गया था।
कुछ दिन कार्यालय में आने के बाद मालिक की स्मृतियां विस्म़तृ सी होने लगी थी। इसी बीच अचानक गांव पर बीमार चल रहे मेरे चाचा की शारीरिक अवस्था बिगड़ गई थी एवं घर वालों के आग्रह पर मुझे गांव जाना पड़ गया था। वहां सब कुछ व्यवस्थित कर एक सप्ताह बाद कोलकाता लौट आया था।
दूसरे दिन कार्यालय पहुंचा तो सभी लोग विस्मित होकर मुझे देखने लगे थे। कार्यालय में नीरवता छायी हुई थी। कमरे में एक अजनबी जैसे लगने वाले व्यक्ति को देखा तो भांप गया कि सिक्का बदल गया है अन्यथा कौन व्यक्ति इस कुर्सी पर बैठ सकता है। मालिक ने तो बैठने का अधिकार मुझे दिया था एवं मालकिन यशोदा देवी इसकी गवाह थी। फिर भी, कुछ देर बाद कमरे में प्रवेश किया तो देखा कि मिस्टर रमेश रॉयल चैलेंज की बोतल से ग्लास में पेग बनाने के लिए शराब उड़ेल रहे थे एवं दूसरे हाँथ में सिगरेट लिए थे। इसके पूर्व कि मै कुछ कहता- वे स्वयं कहने लगे-“मिस्टर सिंह कल से आप बाहर वाली अपनी कुर्सी पर बैठेगें एवं बिना बुलाए इस कमरे में नहीं आएगे।“ मेरा मन तिलमिला उठा। एक गजब सी बेचैनी और आंतरिक व्यथा ने मुझे संयम खोने पर वाध्य कर दिया एवं इसी वाध्यता के वशीभूत होकर मेरी धैर्य की सीमा भी टूट गयी। मेर तन-मन विद्रोह भाव से ज्वलित हो उठा। फिर भी संयम रखते हुए कहा- मिस्टर रमेश कान खोलकर सुन लीजिए कि मै एक भूतपूर्व-सैनिक हूँ। आत्म–सम्मान, ईमानदारी, अनुशासन, समर्पण एवं सत्यनिष्ठा मेरे जीवन का अविभाज्य अंग है। यहाँ काम करना मेरी मजबूरी नही है। मैं एक इंसानी रिश्ते को ढो रहा था। सोचने लगा था कि जिस घर को कितने कष्ट और समय देकर बनाया था उसी घर को कैसे विधाता ने नष्ट कर दिया। व्यथित हृदय से कहा था “रमेश जी इसमें मालिक का फोटो एवं गणेश जी की मूर्ति है. क्या आपको इसका भी ध्यान नही है?” इतना कहकर मैं वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया था। कुछ देर बाद आवश्यक कागजात प्रभुनाथ जी के हाथों उनको भेज दिया एवं साथ- साथ यह भी कहला भेजा कि कल से मैं इस फर्म में नही आऊँगा। मैं यह नौकरी छोड़ रहा हूँ। मिस्टर रमेश से बर्दाश्त नही हुआ और बाहर निकल कर बोले कि नकदी, तिजोरी की चाबी एवं स्पेशल पॉवर ऑफ एटर्नी देकर जाइए। मुझ से भी बर्दाश्त नही हुआ एवं कहा-“इन सारी चीजों को मालिक ने मुझे दिया था। आप कौन होते हैं? मै सब कुछ मालकिन को घर जाते समय सौंप दूँगा।“
सब कुछ सहेज कर ब्रीफकेश में रख लिया था। बाहर निकलने की तैयारी कर रहा था। ठीक उसी वक्त प्रभुनाथ जी मेरे पास आए एवं बोले- साहब,यह जगह काम करने लायक नही है। अच्छा होगा, आप यहां से वास्तव में चले जाए। यह नया मालिक हम सबको भी कई बार अपशब्द निकाल चुका है। हो सके तो मेरे लिए भी कोई काम मिले तो देखिएगा। अचानक मुझे याद आया कि प्रभुनाथ जी की बेटी की शादी अगले महीने में है एवं उन्हे सात महीने का बकाया वेतन भी देना है। मैं घोर मानसिक दबाव के बावजूद भी चेक बुक निकाला एवं 25 हजार रू का चेक काटकर उन्हे दे दिया। उनकी ऑखें सजल हो उठी एवं बड़े ही आत्मीय ढंग से उन्होने कहा था सिंह जी ,शायद ही मैं आपको भूल पाउँ। ऑफिस से बाहर निकलते समय अन्य स्टाफ से विदा लिया। सभी लोग कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही थे। केवल प्रभुनाथ जी मेरे साथ चटर्जी इन्टरनेशनल बिल्डिंग से नीचे आए। उत्सुकतावश उन्होने पूछा कि सिंह साहब,आपने मुझे चार हजार रूपये ज्यादा दिया है। प्रत्युत्तर में मैने केवल इतना ही कहा था कि वह मेरी ओर से था। इस पर वे अत्यंत द्रवित हो गए थे।
हर विषम परिस्थितियों में चिर प्रसन्न रहने वाले प्रभुनाथ जी आज अत्यंत उदासीन नजर आ रहे थे। उनसे विदा लेते समय मै भी भावुकता के अथाह सागर में अकस्मात फिसल गया। चाहकर भी हम दोनों ऑसुओं के अविरल प्रवाहित सैलाब को न रोक सके। इसके पूर्व कि हम दोनों भावनात्मक डोरी की गिरह में बध जाते,मिनी बस आ गई एवं संयमपूर्वक अश्रु-प्लावित ऑखों को पोछते हुए बस में चढ़ गया था सीट पर बैठने के बाद खिड़की से झांक कर देखा तो वे भी आसूँओं को पोछते हुए बेजान कदमों से ‘चटर्जी इन्टरनेशनल’ के मुख्य द्वार में प्रवेश कर रहे थे। उनका सामीप्य एवं सहज व्यक्तित्व मुझे अच्छा लगता था। वे कभी-कभी अवकाश के क्षणों में मेरे आग्रह पर भोजपुरी गीत गाया करते थे। उनकी आवाज में दर्द एवं मधुर स्वर लहरी थी। अपने पद-प्रतिष्ठा को भूलकर मै भी अन्य बिहारी लोगों के साथ उनके गीत का आनंद उठाता था। उनका एक प्रिय भोजपुरी गीत-“जा बेटी ससुराल तू जा,रो्अला से रीत न बदलेला, सेनुरा पड़ते ही मंगिया में नईहर से नाता टूटेला” मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। बस चली जा रही थी एवं स्म़ृतियां पीछे छूटती जा रही थी। कुछ देर बाद मालिक का घर आ गया था। मैं घर में जाकर मालकिन से सारी स्थिति का जिक्र किया एवं बुखार से ग्रस्त रहने के कारण उन्होने बहू को बुला लिया। उन्हे भी इस बात को कहा। उनकी बहू भी काफी समझदार थी। बड़े ही संजीदगी से कहा था -प्रेम जी, हम सब भी अब मजबूर हैं, दुखी हैं। मिस्टर रमेश जो कुछ भी कर रहे हैं, हम सब जानते हैं। वे हम सब का भला नही अनिष्ट करने आए हैं। अच्छा होगा कि आप हम सबके लिए कष्ट क्यों सहेगें। पढ़े लिखे आदमी हैं- आपको कही भी नौकरी मिल जाएगी। मैं मजबुरी को समझ गया। चेक बुक,पास बुक एवं करीब तीन लाख रूपये बहू के हांथ सुपुर्द कर दिया। इसके साथ वह ‘स्पेशल पॉवर ऑफ एटार्नी’ भी जिसे मालिक ने मुझे दिया था।
चलते वक्त बहू नो मुझे रोक लिया था। इसके पूर्व कि कुछ कह पाता उन्होने अपने एकाउन्ट से दिनांक, मेरा नाम भरा हुआ एवं स्वयं हस्ताक्षरित चेक मना करने पर भी मेरे पॉकेट में डाल दिया था। घर आकर देखा तो उस पर राशि लिखने वाली जगह खाली थी। आज भी वह चेक मेरे फाइल में वैसे ही पड़ा है। जब कभी उधर जाता हूं ‘चटर्जी इन्टरनेशनल’ आने के पहले ही अपनी दृष्टि विपरीत दिशा में कर लेता हूं।
आज करीब-करीब आठ साल बाद मैं पार्क स्ट्रीट कुछ कार्यवश गया था। घर लौटते वक्त अचानक मेरे कदम ‘चटर्जी इन्टरनेशनल बिल्डींग की तरफ मुड़ गए थे। वैसे तो उस फर्म की नौकरी छोड़ने के बाद फिर मुड़कर भी नही देखा था, न कुछ सोंचा था पर प्रभुनाथ जी एवं अन्य लोगों के बारे में हमदर्दी ने मुझे अनायास ही उधर खींच लिया। चलते- चलते नाना प्रकार के भाव मन में उत्पन्न हो रहे थे। सब कुछ याद आता गया एवं ऐसा लग रहा था जैसे कि आज मैं पुन: उसी रूप में आया हूं जैसे पिछले आठ साल पहले आया था। लिफ्ट से ऊपर आते वक्त मुझे एक अजीब सी बेचैनी ने घेर लिया। सोचने लगा था कि शायद मुझे वैसा ही माहौल एवं अन्य लोगों का सामीप्य मिलेगा। प्रभुनाथ जी, मोहन, भगवान सिंह सबसे मुलाकात होगी। मिस्टर रमेश से भी मिलूंगा। सबसे मिलने की अनिर्वचनीय खुशी से मेरा अंतर्मन भर आया था। इतने में लिफ्ट का दरवाजा खुला और मैं तीव्र गति से उस फर्म के मुख्य दरवाजे पर पहँच गया था।
मुख्य द्वार पर शीशा का गेट था। झांक कर देखा तो अंदर बिल्कुल अंधेरा था एवं ऐसा लगा था कि इस फर्म में कोई है ही नही। अच्छी तरह से देखा तो लगा कि पिछली ओर एक मद्धिम रोशनी में एक क्षीणकाय व्यक्ति सोय़ा पड़ा था। दरवाजे पर पुन: दस्तक देने के बाद वह व्यक्ति किसी तरह चल कर आया एवं दरवाजा खोला। मैं देखते ही पहचान गया कि प्रभुनाथ जी हैं। उन्होने भी मुझे पहचान लिया एवं भीतर लेकर चले आए। जिस खुशी और आत्मीयती ने मुझे यहां खींचकर लाया था अचानक उसकी जगह एक असीम वेदना ने मुझे प्रभावित कर दिया। प्रभुनाथ जी की शारीरिक अवस्था, अन्य लोगों का न होना तथा मालिक के रूम की दुर्दशा देख कर ही मैं भांप गया कि यह फर्म बंद हो गया है।
सुख-दुख में समभागी रह चुके प्रभुनाथ जी ने बताया कि सिंह जी आपका अनुमान सही है। य़ह फर्म अब बंद हो गया है एवं रमेश बाबू काफी पैसों का घोटाला कर चले गए हैं। कुछ देर तक उनके साथ रहा लेकिन शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण प्रभुनाथ जी अब पहले की तरह नही रह गए थे।
थोड़ी देर बाद मैं प्रभुनाथ जी से विदा लिया। लौटते वक्त अतीत की स्मृतियां एक-एक करके पीछा कर रही थी। जितना भी प्रयास करता था उतनी ही एक गजब सी बेचैनी संत्रस्त कर देती थी। सच ही कहा गया है -“पुरूष बलि नहीं होत हैं,समय होत बलवान।‘ बाहर आने के बाद उपर्युक्त सारी घटनाएं मेरे लिए एक सपना बन कर रह गयी हैं, जिससे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
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बहुत दुखद है.
ReplyDeleteपढ़ कर मन उदास हो गया ।
ReplyDeleteafsos............ lootane vale to har jagah mil jate magar sanwarne vale muskil se.aapka kam sarahneeya tha. marm ko chhoone vali prastuti.
ReplyDeletekash aap date rahte daamad jee ke aage........shayad ye durdasha nahee hotee sabkee .
ReplyDeleteise sansmaran se aapka swayam ka jo parichay mila prabhavit kar gaya.....
अतीत के चलचित्र मधुर होते है वर्तमान उतना ही कड़वा लगता है
ReplyDeletebahut hi dukh bhara ..\
ReplyDeletemere blog par bhi sawagat hai..
Lyrics Mantra
thankyou
बहुत ही मार्मिक...दिल अवसाद से भर गया...
ReplyDeleteसंस्मरण आद्यंत पढ़ते हुए सारे चित्र उभरते चले जाते हैं....
ReplyDeleteसच, समय बलवान होता है!
main aapki har post padhta hoon...mujhe padhne bahut shauk hai lekin tippani dene mein alsia jata hoon...aap achha likhte hain...ek paathak ke roop mein aap mujhe hamesha apne blog par payenge....
ReplyDeleteशेखर जी, जिस तरह एक कलाकार के लिए प्रशंसा ही काफी होता है ठीक उसी तरह आपका प्रेरणा ही मेरे लिए काफी है। आपके आने से काफी खुशी हुई। धन्यवाद।
ReplyDeleteबेहद तकलीफ़देह...
ReplyDeleteदुखद संस्मरण ...क्या पावर ऑफ अटार्नी आपके पास रहते हुए आप कानूनी सहारा नहीं ले सकते थे ?
ReplyDeleteकाश आप वहाँ रहे होते ...पता नहीं उनके परिवार के साथ क्या हुआ होगा ////
संगीता स्वरूप जी,
ReplyDeleteसब कुछ जानते हुए भी कानून का सहारा लेना उचित नही समझा।
मैं आज की तिथि तक COMMENT देने वाले सभी लोगों का आभारी हूं।
ReplyDeleteप्रेम बाबू! चटर्जी इंटरनेशनल के ठीक पीछे मेरा ऑफिस था, रसेल स्ट्रीट पर..वो सारी स्मृतियाँ मानस पटल पर चल चित्र की भांति घूम गयीं..
ReplyDeleteहमारा भी एक क्लाएंट था..करोड़ों का विदेश व्यापार... जवान बेटे ने कार्यभार सम्भाला..और देखते ही देखते ऐय्याशियों में सब समाप्त हो गया... कलकत्ता का एक बहुत बड़ा बिजनेस हाउस था..लेकिन अब इतिहास में भी दर्ज नहीं.
दिल को छूने वाला संस्मरण!!
सलिल वर्मा जी.
ReplyDeleteनमस्कार,
आपका हमेशा इंतजार रहता है। मन आनंदित हुआ। धन्यवाद।
like the
ReplyDeleteemotional story
yes its reality of life
जीवन की सच्चाई सुख देती है तो दुःख भी देती है ! संस्मरण पढ़ कर मन दुखी हो गया !
ReplyDelete-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत अच्छा संस्मरण।.............................भावनात्मक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसंस्मरण ने भावविह्वल कर दिया...................................................हृदय को छू लिया।
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण संस्मरण :कुछ लोगों के निजी स्वार्थ और अदूरदर्शिता कैसे भयावह परिणाम देते हैं यह इस संस्मरण से स्पष्ट है !
ReplyDeleteमिश्रा जी,
ReplyDeleteआपके मेरा सादर नमन।
मैं 17 लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होनें मुझे प्रेरित किया है।
ReplyDeletebahut hi dukhad sansmaran.
ReplyDeletechaliye ab aap 18 logo ka shukriya adaa kijye :).
likhte rahe sirji umid hai aage bhi isi tarah aur bhi sansmaran padne ko milenge.
aabhar
मोहसीन भाई,
ReplyDeleteबहुत खुश हुआ।
हृदय को छू लिया।
ReplyDeleteमन को छु गयी रचना ...बहुत अच्छा लिखा है आपने ..लगा जैसे सब सामने ही घटा हो ...मन उदास हो गया ऐसा अंत देखकर ...
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक प्रसंग।
ReplyDeleteपढ़ने के बाद मन में विचार उठने लगे कि काश ऐसा हुआ होता, वैसा हुआ होता।
लेकिन साचने से क्या होता है, जो कुछ होता है वह समय के निर्देश पर ही तो होता है।
क्रिसमस की शांति उल्लास और मेलप्रेम के
ReplyDeleteआशीषमय उजास से
आलोकित हो जीवन की हर दिशा
क्रिसमस के आनंद से सुवासित हो
जीवन का हर पथ.
आपको सपरिवार क्रिसमस की ढेरों शुभ कामनाएं
सादर
डोरोथी
आदरणीय प्रेम सरोवर जी
ReplyDeleteसादर प्रणाम
बहुत दिनों बाद आपका संस्मरण पढने को मिला , परन्तु थोडा तकलीफदेह रहा ....शुक्रिया
ह्रदय स्पर्शी संस्मरण. "बीज का वृक्ष बनने में कोई शोर नहीं होता क्योंकि यह सतत प्रक्रिया के अधीन होता है, लेकिन वही वृक्ष जब गिरता है तो गगनभेदी शोर होता है..." यहाँ तो विशालकाय वृक्ष गिरा और आवाज नहीं हुई. सब कुछ अपने हाथ में होते हुए वृक्ष को गिरने क्यों दिया प्रेम जी?
ReplyDeleteमार्मिक संस्मरण ,
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति..