एक पल का पागलपन
संस्मरण-।।
प्रेम सागर सिंह
हर कोई अपने जीवन-यात्रा के प्रारंभ में नित नवीन स्वप्नों को मूर्त रूप में परिवर्तित करने के लिए निर्बाध गति से अग्रसरित होते रहता है। इस प्रक्रिया में उसे कई चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। जीवन के सफर में अकेला होने के कारण अपनी स्मृतियों के पिटारे में बहुत सी सुखद एवं दुखद स्मृतियों को सहेज कर रख लेता है किंतु जब कभी ये सारी बातें याद आने लगती हैं तो वह भाव शून्य एवं अधीर हो जाता है।
ऐसी ही एक धटना ने मुझे भी प्रभावित कर दिया था। करीब तीस साल पहले मुझे अपने गांव जाना पड़ गया था। मेरी चचेरी बहन की शादी तय हो गयी थी। लेकिन दीदी के जिद्द करने के कारण एक अजीब सी समस्या उत्पन्न हो गयी थी जिसका निदान मेरे वृद्ध हो चले चाचा के वश में नही रह गया था। हम चार भाई कोलकाता में ही रहते थे। पिताजी की मृत्यु के बाद चाचा ने हम सबको भरपूर प्यार दिया एवं कभी भी ऐसा एहसास नही हुआ कि पिताजी नहीं हैं।
चाचा का पत्र आया था जिसमें उन्होने बड़े भैया को लिखा था कि तुम सब में से एक का गांव आना बहुत जरूरी है। मैं एक विकट समस्या में फंस गया हूं। मेरे दोनों लड़के भी नही आ रहे हैं। अच्छा होगा छोटका को (मुझे) भेज देना। बड़े भाई साहब एक दिन मुझे बुलाए एवं कहा- “बबुआ, चाचा अब वृद्ध हो चले हैं। पिताजी की मृत्यु के बाद उन्होने ही परिवार की शान-शौकत एवं इज्जत को अक्षुण्ण बनाए रखा है। उनके इस आग्रह पर हम में से किसी का वहां जाना नितांत आवश्यक है। अच्छा होगा, तुम यथाशीघ्र यहां से से गांव जाकर मुझे वस्तु-स्थिति से अवगत कराना। यदि तुम्हारे वश की बात नही होगी तो मुझे भी सूचित करना। मैं भी चला आउंगा ।“
भैया की बात टालने की हिम्मत मुझ में न हुई एवं उसी दिन ‘अमृतसर मेल’ से गांव के लिए रवाना हो गया। ट्रेन खुलने के बाद नाना प्रकार के विचार मन में आने लगे थे। बार-बार सोचता था- पर किसी भी निष्कर्ष पर नही पहुंच पा रहा था । यह बात मुझे काफी परेशान करती रही कि आखिर कौन सी मुसीबत आ गयी है कि चाचा इतने परेशान होकर हम सबको याद किए हैं। स्वभाव से शांत एवं गंभीर दिखने वाले चाचा अचानक इतने कैसे विकल हो गए। कौन सी ऐसी समस्या खड़ी हो गयी है जिसके कारण चाचा को हम सबकी जरूरत महसूस हुई है। पूरी रात इन्ही विचारों में खोया रहा। कभी नींद आती थी तो कभी खुल जाती थी।अगले दिन सुबह मैं अपने स्टेशन पर उतर गया था।
स्टेशन से बाहर निकल कर सोचा चाय पीकर गांव जाने वाली जीप पकड़ूंगा। चाय की दुकान पर पहुंच कर देखा तो गांव के कुछ लोग वहां पहले से ही मौजूद थे। सबको नमस्कार किया एवं चाय पानी के बाद हम सब गांव के लिए रवाना हो गए थे। रास्ते में रामजी भाई ने कहा – “तुम्हारे चाचा विकट स्थिति में हैं। मंजू की शादी तय तो हो गयी है किंतु वह यह शादी करने से इंकार कर रही है। घर में हमेशा वाद-विवाद होते रहता है किंतु उसका जिद्द एवं आपसी मामला होने के कारण हम सब भी कुछ कहने, सुनने और समझाने की स्थिति में नहीं हैं। हम सबने उसे समझाने का सार्थक प्रयास किया लेकिन उस पर किसी भी बात का असर नही पड़ता है। वह किसी की बात मानने को तैयार ही नही है। तुम्हारे चाचा सबसे यही कहते हैं कि उसमे गलती नही है,गलती तो मुझमें है। पटना में पढ़ा-लिखा कर उसे योग्य बनाया। सोचा था - आज के युग में लड़के तो पढते नही है, मै अपनी बेटी को ऐसी शिक्षा दूंगा कि वह समाज के लिए एक आदर्श लड़की के रूप में अपने आप को प्रतिष्ठित कर सकेगी।
इतना सुनने के बाद मेरा मन एक असहनीय वेदना से उद्वेलित होने लगा था। सोचने लगा था कि मंजू दीदी एम.ए. तक पढने के बाद भी सामाजिक मान-मर्यादा कोताख पर ऱख कर ऐसा क्यों कर रही है! दीदी तो हमसे उम्र मे बड़ी है, मै उन्हे क्या समझाउंगा? पढ़ने में काफी अच्छी तथा देखने में भी काफी सुंदर थी लेकिन कौन सी बात है जो उसे इस तरह का व्यवहार करने के लिए मजबूर कर रही है। य़ह बात मेरे मन बार-बार कौंध कर आती और चली जाती थी। कुछ देर बाद जी गांव के सरहद में प्रवेश कर रही थी। मुझे भी उम्मीद बधने लगी कि घर पहुंचते ही वास्तविकता से परिचित हो जाउंगा। जीप हमारे दरवाजे पर खड़ी हो गयी। भाड़ा देने के बाद घर में प्रवेश करते ही देखा कि चाचा एक चारपाई पर बेजान से पड़े हैं एवं चाची पंखा हिला रही हैं। चरण-स्पर्श किया तो उनकी आंखें खुली। मुझे देखते ही उनकी आंखें नम हो गयी थी। उनकी आखों से बहते हुए आंसुओं को अविरल प्रवाहित देख कर जीवन में प्रथम बार अनुभव किया था कि ये आंसू कितने बेशकीमती होते हैं। मैं किसी तरह उन्हे सांत्वना दिया। चाचा की आंखों के आंसू मुझे भी भाव-विह्वल कर गए। मैं भी एक विकट स्थिति में पड़ गया था जिससे निकल पाना आसान काम नही था। बिरादरी के लोंगों की नजर मुझ पर ही केंद्रित थी। कुछ देर बाद चाची ने कहा- “बेटा, कलकता से आए हो। सफर में परेशानी हुई होगी। चलो, नहा खाकर आराम करो। शेष बातें शाम को होगी। ”
शाम तक इंतजार करने के लिए मेरे पास धैर्य नही रह गया था। मन के किसी कोने में सदा यह बात टीसती रही कि दीदी से मिलना जरूरी है. हर पल किसी न किसी प्रकारके अनचाहे विचार मन में कौंध कर आते और चले जाते थे। सोचता रहा कि सभ्यता संस्कृति, रीति-रीवाज एवं परंपरा की सीमाओं की अतिक्रमण करने वाली दीदी को कैसे समझाउं कि तुम्हारी सोच कितनी गलत है। अभी तक गांव में रीति-रीवाज बदले नही हैं। इस परिवेश में दीदी का शादी से इन्कार करना अन्य रिश्तेदारों को क्या संदेश देगा !परिवार, बिरादरी एवं गांव की इज्जत माटी में मिल जाएगी। हमारा परिवार मुंह दिखाने लायक नही रह जाएगा। रिश्तेदारों एवं सगे संबंधियों की निगाह में वह साख नही रह जाएगी जिसका हम वास्तविक रूप में हकदार हैं।
सोच-विचार की निरंतर प्रक्रिया में लीन अचानक मेरे कदम दीदी के कमरे की ओर बढ़ गए थे। स्वभाव से शांत,गंभीर एवं मृदुल-भाषी दीदी मेरी प्रेरणा स्रोत भी रही थी। अपने बड़े भैया के संग पटना में रह कर उन्होने एम,ए,(हिंदी) की परीक्षा भी पास कर ली थी। सोचता रहा कि उन्हे कैसे समझाउंगा कि जो कुछ भी तुम कर रही हो गलत है। फिर भी अपने आप को संभाले कमरे में प्रवेश किया। उस समय वह कोई किताब पढ़ रही थी। उनका चरण–स्पर्श किया पर वे कुछ नही बोली। फिर भी, मैं सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गया।
स्मृतियों के गवाक्ष से उन बीते दिनों की अविस्मरणीय स्मृतियां अतीत के चलचित्र की तरह सामने आती गयी। वह दिन भी याद आने लगा जब दीदी मुझे डांट कर अंग्रेजी पढाती थी एवं हिंदी का हैंडराइटींग सुपाठ्य न होने के कारण मारती भी थी। बचपन से ही उनका मेरे प्रति एक विशेष लगाव रहा था। जब कभी गांव से कलकता वापस आता था। वह उदास रहने लगती थी। विदा लेते समय एक ही बात कहती थी-“पहुचते ही पत्र देना।”कुछ देर तक शांत–भाव से बैटा रहा किंतु मन में चल रहे भावों को मूर्त रूप देने के लिए सहसा पूछ बैठा-:दीदी क्या बात है कि घर के सभी लोग नाराज हैं! तुम शादी के लिए इंकार क्यों कर रही हो!
यह प्रश्न सुनते ही स्वभाव से शांत दिखने वाली दीदी आग बबूला हो उठी एवं देखते ही देखते उनका शांत एवं सौम्य मुख-मडल रक्ताभ हो उठा। गुस्से में शेरनी की तरह बिफरती हुइ चिल्लाने लगी। उनके इस अप्रत्याशित क्रोध का प्रथम साक्षात्कार देख कर मैं भी हतप्रभ होकर रह गया था। जितना भी शांत करने का अनुरोध करता रहा उतनी ही वे उग्र रूप धारण किए जा रही थी । एकाएक रोते-रोते बोल उठी-“ कान खोल कर सुन लो- मैं शादी करूगी तो अपनी मर्जी से। मैंने अपना वर चुन लिया है। वह भी राजपूत जाति का है एवं मेरा रिश्ता उसके घर से जुड़ गया है। इन रिश्तों को मैं अपने से अलग नही कर सकती हूं। तुम्ही बोलो उन चिर संजोए रिश्तों का क्या होगा जिन्हे मैं उनके मां, बाप एवं सगे-संबंधियों के पास छोड़ कर चली आयी हूं। ये रिश्ते अब तो मेरे मन-मदिर में रच बस गए हैं। सबको मैं एक अटूट रिश्ते में बांध चुकी हूं। उन रिश्तों को कैसे भूल सकती हूं जिनके सहारे मैने अपने जीवन की बुनियाद डाल दी है एवं जीवन के सतरंगी सपने भी बुनेहैं। तुमको भी समझ गयी । मैं नही जानती थी कि यहां हर लोगों की तरह तुम भी पाषाण-हृदय निकलोगे। तुम अभी इस वक्त यहां से चले जाओ, इसमें ही तुम्हारी भलाई है। तुम्हारे किसी भी सुझाव की मुझे जरूरत नही है। अच्छा होगा, तुम कलकता लौट जाओ और अपनी दुनिया में खुश रहो। मैं अब किसी की परवाह करने वाली नही हूं।
इतना सुनते ही मेरा अंतर्मन एक असीम पीड़ा से व्यथित हो उठा। शोर-गुल के कारण घर और बिरादरी के लोग भी इकत्रित हो गए। उन सारे लोगों की उपस्थिति के कारण मैं अपने आप को अपमानित सा महसूस करने लगा था एवं न जाने किन भावनाओं के वशीभूत होकर दीदी को जोर से दो चार- थप्पड़ मार दिया था। वे फर्श पर गिर गयी थी। कहते हैं- ‘क्रोध आता है तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।‘ठीक वैसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरा भी मन ग्लानि एवं पश्चाताप की असहनीय अग्नि में झुलस सा गया था। पता नही कौन सा पागलपन सवार हो गया था। एक पल के पागलपन ने मुझे हमेशा-हमेशा के लिए दीदी से अलग कर दिया था। सब लोग किसी तरह समझा-बुझा कर मुझे वहां से बाहर लाकर दालान में बैठा दिए। चाची भी आ गयी और बोली-‘अब मैं सब कुछ जान गयी हूं। तुम बेकार में उसके मुंह लगे। चुपचाप रहो-अब हम सब वही करेंगे जैसा वह चाहती है।“इस घटना के बाद पंद्रह दिन तक गांव पर रहा एवं इन पंद्रह दिनों में क्या- क्या नही देखा, क्या –क्या अनुभव नही किया। दीदी मुझसे बात तक नही करती थी। जब भी कभी सामने पड़ती थी अपना मुंह दूसरी तरफ कर लेती थी। निराशा एवं अवसाद के इन दिनों को काट पाना मेरे लिए असंभव सा प्रतीत होने लगा। बड़े भैया को सूचित कर दिया था। देखते ही देखते मेरा दुखद एवं अशांतमय जीवन किस तरह बीत गया पता ही नही चला। इसी बीच भैया भी कलकता से आ गए। वस्तु-स्थिति को गंभीरता से चिंतन- मनन करने के बाद परिवार के सभी सदस्यों ने निर्णय लिया कि उसके कहे अनुसार ही शादी की रश्म पूरी की जाएगी। अंतत: उसकी शादी वहीं पर करने का अनंनतिम निर्णय ले लिया गया।
पंडित जी को बुलाया गया। लड़के वाले भी पटना से आए। वरीच्छा, तिलक एवं शादी का दिन एक महीने के अंदर रख दिया गया। मैं अब कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही था वल्कि इन सारी विधियों का मात्र एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह बन कर रह गया था । सब कुछ जान पाने के कारण भैया ने मुझे कलकता वापस जाने के लिए कह दिया। उनकी बातों को ध्यान में रख कर वहां से चलने का इरादा बना लिया क्योंकि मेरा भी मन अस्थिर रहने लगा था। मुझे आत्म-ग्लानि के साथ-साथ अपने किए पर पश्चाताप भी हो रहा था। मन ही मन सोचा था- चलते-चलते दीदी से माफी मांग लूंगा। दीदी तो काफी पढ़ी लिखी है, मुझे अवश्य मांफ कर देगी । आख्रिर उनसे मेरा एक अटूट रिश्ता भी तो जुड़ा है पर दूसरे ही पल इस बात का अहसास हुआ कि बचपन से लेकर आज तक जो रिश्ता मेरे साथ जुड़ा़ रहा वह मेरे विगत जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था जो एक हव की खूशबू की झोके की तरह आया और चला गया । एक पल का पागलपन मेरी शेष जिंदगी को तहस- नहस कर दिया ।
दूसरे दिन कलकत्ता आने की तैयारी करने लगा । अब इन्हीं विचारों में खोया रहता था कि दीदी से मांफी मांग लूंगा । मेरा अंतर्मन एक असीम व्यथा से प्रभावित होने लगा था। मैं किसी तरह उनके पास गया एवं पैर पकड़कर माफी मांगने लगा । अपना पैर पीछे करते हुए दीदी ने रोते हुए कहा – “तुम यात्रा पर जा रहे हो । इस अवसर पर तुमसे उम्र में बड़ी होने के कारण कुछ भी नहीं कहुंगी, पर इतना याद रखना कि मेरी शादी में तुम मत आना। यदि तुम नहीं आओगे तो मुझे अत्यधिक खुशी होगी । दुख इस बात का है कि तुम छोटा होकर मेरे उपर हाथ उठाए हो। याद रखना तुमने अच्छा काम नहीं किया है। तुम तो मेरे बराबर पढ़े लिखे भी नहीं हो । कहां मैं एम.ए और कहां तुम स्नातक । तुम्हारी बुद्धि भी तो नहीं है। जब मेरे बराबर हो जाना तब सुझाव देना । बस, इतना ही काफी है। तुम्हारी दीदी तो उस दिन ही मर गई थी जिस दिन तुमने भरे समाज में मेरे मुंह पर थप्पड़ मारा था। वह थप्पड़ मुझे आजन्म याद रहेगा। तुम खुशी-खुशी अपनी जिंदगी में लौट जाओ।लेकिन याद रखना जब तक तुम मेरे बराबर नहीं हो जाते, अपना मनहुस चेहरा कभी भी मुझे दिखाने की कोशिश न करना।”
इन सारी बातों ने मुझे अत्यंत दुखी कर दिया । बहुत रोया, माफी मांगा पर दीदी का कलेजा पत्थर हो गया था। उन्होंने मुझे माफ नहीं किया। मन ही मन सोचने लगा था –इस जंग में दीदी तुम जीत गयी एवं मैं हार गया । समय हो चुका था। स्टेशन जाने वाली जीप दरवाजे पर खड़ी थी । चाचा, चाची एवं अन्य सगे संबंधियों को प्रणाम करने के बाद दीदी के कमरे की ओर गया पर मुझे आते देख उन्होंने अपना कमरा बंद कर दिया था। चाची पीछे से आयी और बोली कोई बात नहीं बेटा एक महीने बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा। मन को दुखी मत करो, आखिर वह तो तुम्हारी बड़ी दीदी है। समय आने पर पत्थर का कलेजा भी पिघल जाता है। वह तो तुम्हारे तरह ही संबेदनशील है। पढ़ी- लिखी है, कुछ दिन में वह स्वयं अच्छे बुरे का निर्णय ले लेगी।
मैं पश्चाताप तथा घोर चिंता के साथ विदा तो ले लिया लेकिन एक पल आंखों को बंद करने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि दीदी कह रही है कि जिस ऊंचाई पर आज तुम्हारे पैर जमे हुए हैं,उसके नीचे की जमीन मेरे कारण ही सख्त है। मन में पुनः यह विचार भी आया कि जीप खुलते ही दीदी आएगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पश्चाताप एवं असीम वेदनाओं के साथ- साथ आंखों में आंसूओं का सैलाव लिए वहां से रवाना हो गया था। मैं कोलकाता पहुंचकर घर के सभी लोगों को इस संबंध में अवगत कराया । उसके बाद सामान्य जीवन अपने रूप से गुजरने लगा था। कुछ दिनों बाद भैया भी गांव से कोलकाता आ गए थे । अगले महीने में दीदी की शादी के कारण सभी लोग तैयारी में जुट गए थे। एक हफ्ते के अंदर सारा बाजार कर लिया गया। धीरे- धीरे वह दिन भी आ गया जब घर के सभी लोग गांव जाने की तैयारी में व्यस्त रहने लगे लेकिन मैंने भैया को बता दिया कि मैं इस शादी में नहीं जाउंगा क्योंकि मैं महसूस कर रहा था कि इतना लांछित और अपमानित होने के बाद मेरा दीदी की शादी में जाना अर्थहीन है एवं आत्म-सम्मान से धोखा भी ।
दूसरे दिन घर के सब लोग चले गए लेकिन अंतरमन में एक आत्मीय रिश्ते की भीनी- भीनी सुगंध एवं विगत स्मृतियां अपना वर्चस्व स्थापित करने में सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन समर्थ रहीं । करीब एक महीना गुजरने के बाद सभी लोग कोलकाता वापस आ गए। कुछ दिनों तक दीदी की शादी के बारे में चर्चा होती रही एवं उसके दौरान मैं भी कभी-कभी उनके बारे में जानने के लिए कोई प्रश्न कर बैठता था पर किसी ने भी इस बात का जिक्र नहीं किया कि वह मेरे बारे में भी कुछ कहती थी ।
समय के प्रवाह के साथ साथ तथा जीवन के व्यस्त क्षणों को व्यतीत करते करते दीदी की स्मृतियां धूमिल सी होने लगी थी। उदासी के इन क्षणों में जब कभी भी उनकी याद आती थी। मेरे धैर्य की सीमा टूट जाती थी एवं आंखे अश्रु-प्लावित हो जाती थी।यह सोचकर ही संतोष कर लेता था कि एक न एक दिन दीदी का मेरे प्रति स्नेह उभर जाएगा एवं मुझे वह जरूर एक पत्र लिखेगी । कहते हैं- इंतजार की घडि़यां काटने पर भी नहीं कटती हैं- ठीक वैसा ही हुआ । आज तक दीदी का कोई पत्र या किसी के मार्फत कोई संदेश तक नहीं आया। आज दीदी की याद और भी प्रबल हो उठी जब मेरा एम.ए हिंदी का रिजल्ट आया । इसे देखते ही दीदी का चेहरा स्पष्ट रूप से उभरकर मेरे सामने आने लगा जो प्रायः कई वर्षों तक मन के किसी कोने में उभर नहीं पाया था । रिजल्ट देखकर दीदी की वह बात याद आने लगी थी कि तुम केवल ग्रेजुएट हो। मेरे बराबर हो जाना तब किसी प्रकार का सुझाव देना। इतने दिनों तक इस दर्द को मन में दबाए रखने के बाद अब उसकी जगह एक अनिर्वचनीय खुशी से मन भरा रहता है – यह सोचकर की जिंदगी में कई अवसर आएंगे एवं शायद इस शेष जीवन के किसी भी मोड़ पर यदि दीदी से मुलाकात होगी तो उसके समकक्ष खड़ा तो हो पाउंगा। इतना कुछ होने के बाद भी उनके प्रति मेरी असीम श्रद्धा आज तक यथावत बनी रही है एवं मेरे लिए आज भी वे चिर पूजनीय है। यदि यह संस्मरण मेरी दीदी पढ़ेगी तो शायद मेरी मनोदशा से अवश्य परिचित हो जाएगी। इसके माध्यम से मैं अपनी दीदी से पुनः क्षमा प्रार्थी हूँ। दीदी मुझे माफ कर देना । मुझे पता नहीं था कि एक पल का पागलपन विगत कई वर्षों का समय मुझे इतना संत्रस्त, विकल एवं उदासीन करके बेदर्द हवाओं की तरह अपना रूख बदल कर मेरी जिंदगी की दशा और दिशा दोनों को एक अलग नाम दे देगा। भगवान से यही विनती करता हूँ कि मेरी श्रद्धेय दीदी जहां भी रहे, भगवान उन्हें धन धान्य एवं सुख-शांति से भरी जिंदगी दें एवं हर खुशी उनका चरण चुमें। इन विषम परिस्थितियों में भी यह सोचकर आशान्वित रहता हूं कि इस जीवन के किसी भी मोड़ पर यदि दीदी से मुलाकात हो जाएगी तो वह शायद मुझे अवश्य माफ कर देगी एवं कहेगी कि भाई, अब तक मै तुम्हारे बिना डार से बिछुड़ी पत्ती की तरह जीती रही हूं। काश! उन दिनों मै उनकी भावनाओं को समझ पाता। मेरी कामना रहेगी कि दीदी अपनी दुनिया में खुश रहें।उन्हें हर मुकाम और मंजिल हासिल हो।
आप जहां भी रहे आबाद रहे,
वैभव सुख-शांति साथ रहे,
पुनीत हृदय से कहता हूँ,
जग की खुशियां पास रहे ।
आपकी वेदना में आपके साथ. यह शब्द निश्चित रूप से उन तक पहुंचेंगे..
ReplyDeleteBhartiya nagarik saheb- apka sahanbhuti bhara shavd mere antarman ko prabhavit kar diya. Dhanyavad.
ReplyDeleteप्रेम बाबू! सही कहा गया है कि क्रोध उबलते हुए पानी के जैसा होता है जिसमें किसीकाचेहरा नज़र नहीं आता है,न दीदी का, न किसी और का!! एक बार फिर से कोशिश करके दएखिये और उनसे ही पुछिये कि क्या प्रायश्चित चाहती हैं वो.. वैसे मेरे नज़र में भी इसका कोई प्रायश्चित नहीं... अश्रु जल मन का मैल तो धो देते हैं, लेकिन रिश्तों की काई नहीं छुड़ा पाते!!
ReplyDeleteनिश्छल मन की अभिव्यक्ति। अच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteबराबरी शब्द उतना आसान कहाँ है जितना दिखता है!
ReplyDeleteआदर्णीय सागर जी, बहुत अच्छी लगी आपकी यह प्रस्तुति.मन लगाकर पढा मैंने.आगे भी आपकी यह सन्स्मरण यात्रा जारी रहे , यही कामना है. शुभकामनायें.........
ReplyDeleteप्रेम जी,
ReplyDeleteकभी कभी जीवन में ऐसे पल आते हैं जो जीवन को उथल पुथल कर रख देते हैं.! समय बहुत बड़ा मरहम है ! मुझे उम्मीद है आपकी दीदी आपको अवश्य माफ़ कर देंगी !
संस्मरण चलचित्र की भांति चलता चला गया !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
हमारी ओर से भी शुभकामनाएं स्वीकार करें.
ReplyDeleteकाफी रोचक है यह पोस्ट ...शुक्रिया
ReplyDeleteचलते -चलते पर आपका स्वागत है
आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा...पोस्ट पढ़ने के बाद कमेन्ट लिखेंगे...
ReplyDeleteआपका संदेश पाकर पुनः आया, दुबारा पढ़ा, लेकिन अब भी नहीं समझ सका कि यह कोई कहानी है या आपकी डायरी के पन्ने.
ReplyDeleteRahul Singh ji, na yah kahani hai na diary ka panna-par vigat jivan ki kuchh khatti mithi smritiyan hain jise Hindi sahitya ke sansamaran vidha ke antargat prastut kiya hun.Is par bhi kuchh nishkarsh nahi nikalata hai to bas meri bhaonaon ko samajhe- yahi kaphi hoga, Good Morning.
ReplyDeleteFirdaus khan ji aapka mere blog par aana bahut hi achha laga. Dhanyavad.
ReplyDeleteGyanchand Marmagya ji aapke jajbe ko salam karata hun.Dhanyavad.
ReplyDeleteबहुत प्रवाहमयी और मन को छूती पोस्ट ..........ना जाने क्यों यह प्रस्तुति हकीकत से जुड़ी लगती है.... संवेदनशील संस्मरण
ReplyDeleteदीदी, अगर आप पढ़ें, तो अपने इस नाचीज़ भाई हबीब की इल्तजा कुबूल फरमाएं और अपने प्रेम भाई को माफ़ कर देंवें.....
ReplyDeleteबड़ा ही आत्मीय विवरण। आपके मन में जो बहा है वह स्वयं ही सब कुछ धो डालता है। आप निश्चिन्त रहें दीदी अपना क्रोध त्याग देंगी।
ReplyDeleteदीदी का गुस्साना और नाराज होना बहुत हद तक ठीक नही था.
ReplyDeleteउन्हें अपने मन से शादी करनी थी सो उन्हें मुलैमिअत से
एक्सप्लेन करना था.उस माहौल में आप की प्रतिक्रिया
वही हुई जो हो सकती थी,
मेरी समझ में दीदी का बर्ताव आत्मकेंद्रित था-ऐसा मुझे लगता है..
तब भी मेरी कामना है कि उनका जीवन खुशियों से भरा रहे--
मेरी भी कामना है.
Dr. braj KIshore ji - mujhe bhi aisa hi lagata hai.Bas, iske madhyam se prayaschit kar raha hun.Kabhi-kabhi yah tis man ko andolit kar jati hai.Pahle in yadon se prabhawit nahi hota tha lekin aaj bardast nahi hota hai.Jab bhi unki yaden prabal hoti hai-man---- -- --
ReplyDeleteगुस्सा भी अपनेपन का एक दूसरा पहलू है
ReplyDeleteअपनों से ही नाराजगी भी होती है और प्यार भी
आपका जो दुख वो हम समझ सकते है । आप एक बार फिर मिले अपनी दीदी जी से
हमे विश्वास है वो आपसे प्रेम से ही मिलेगी ।
हमारी शुभकामनाये
... bhaavpoorn abhivyakti !!!
ReplyDeleteजब जागो तभी सवेरा!
ReplyDeleteआपकी वेदना हमारे अन्दर भी उतर गयी .....उन तक भी जरुर पहुंचेगी . अच्छा लगा यहाँ आना .आपको शुभकामना ..
ReplyDeleteअमृता जी, आपका मेरे ब्लाग पर आना अच्छा लगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteभावुक कर देने वाली यादें .सच है पल भर का क्रोध जीवन भर का दुःख बन सकता है .
ReplyDeleteपरन्तु आपकी दीदी ने आपको दिल से जरुर माफ कर दिया होगा.आप निश्चिन्त रहें.
अच्छी है आपकी यह प्रस्तुति.शुभकामनाएं
ReplyDeleteDr, Varsha singh ji aapko mera hardik Namaskar/Plz. visit my blog
ReplyDelete@ प्रेम जी जो आपने अपना प्रायश्चित कर लिया है. बाकी आशा है एक ना एक दिन आपकी दीदी जी जरूर आपको माफ़ कर देगी.
ReplyDelete@ दीदी जी आप जहाँ भी हो या इस पोस्ट को कभी पड़े तो भाई जी को माफ़ जरूर करियेगा . जो भी हुआ वो सिर्फ एक क्षणिक आवेश था. भाई जी की इस पोस्ट से उनका प्रायश्चित झलक रहा है.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteप्रेम भाई ,
ReplyDeleteकहानी भावनात्मक है और दीदी क्रोध में आपको जो प्रेरणा और संदेश दे रही है कि और पढ़ो और व्यर्थ की सामाजिक कूढ़मग़जी का शिकार मत बनो , इस दिशा में आप कहां तक बढ़े ?
आप हिन्दी अनुवादक है तो निस्संदेह आपने हिन्दी में एम ए कर लिया होगा और दीदी ने आपको माफ कर दिया होगा।
इसके बाद की परिणति की जिज्ञासा है..याद रखें अभी कहानी अघूरी है।
कहानी का अंत यूं होगा कि
विशिष्टता के लिए आपको कलकत्ता विश्वविद्यालय से मानद डी. लिट. की उपाधि दी गई है और दीक्षांत समारोह में शामिल होने के बाद जब आप घर लौटे हैं तो दीदी आपके पसंद का मिष्ठान्न बना कर आपकी पत्नी और बच्चों के साथ हंसती हुई आपका इंतजार कर रही हैं ...आपको देखते ही उन्होंने कहा - यही तो मैं चाहती थी बबुआ..तुम्हारे हाथ में ..देखा कितना जादू हैं..ये हाथ लिखने के लिए बने हैं...’’
समाप्त
डां. राम कुमार जी, सादर नमन,
ReplyDeleteकाश! ऍसा संभव हो पाता।
बेहतरीन पोस्ट. जो भी हुआ वो सिर्फ एक क्षणिक आवेश था.आपने अपना प्रायश्चित कर लिया है.
ReplyDeleteआपकी दीदी को मेरी भी शुभकामनायें
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति प्रेम जी
क्रोध क्षणिक पागलपन ही है
ReplyDeleteतुफ़ान की तरह बहुत कुछ उजाड़ जाता है।
सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आभार प्रेम जी
बहुत ही भावुक कर देने वाली पोस्ट है...विश्वास रखिए एक न एक दिन वो जरूर माफ करेंगी...कभी-कभी अंजाने या क्रोध में हुई गलती की कीमत हमें बहुत ज्यादा चुकानी पड़ती है...आभार
ReplyDeleteaap khud prem ke sarovar hai phir aapne apni didi ki bhavanavonko samajhana chahiye thaa.khair apko apni bhul ka ahasas to huva hai koi baat nahi yek din didi apko maph karegi mujhe visvas hai..........
ReplyDeleteउम्मीद है दीदी तक आपका सन्देश जरुर पहुँच गया होगा ....
ReplyDeleteमेरी भी आदरणीय दीदी से गुजारिश है कि इस छोटे भाई को अब गले लगा कर वर्षों के इस संताप से छूकर दिलाये .....
कई बार हमारी छोटी सी गलती कितना कष्ट दे जाती है प्रेम जी ....
आपने दीदी के के विचार जानने कि कोशिश ही नहीं की...और अपना प्रभुत्व दिखा दिया ....
खैर ऐसी गलतियां सभी के जीवन में होती हैं ....
आपने सच्चाई के साथ संस्मरण लिखा यही क्या कम है .....
Dr. Braj Kishor said...
ReplyDeleteदीदी का गुस्साना और नाराज होना बहुत हद तक ठीक नही था.
उन्हें अपने मन से शादी करनी थी सो उन्हें मुलैमिअत से
एक्सप्लेन करना था.उस माहौल में आप की प्रतिक्रिया
वही हुई जो हो सकती थी....
आदरणीय ब्रज किशोर जी के इस मंतव्य पर कहना चाहूंगी .....हर हालत में प्रेम जी दीदी से छोटे थे ...छोटे भाई का बड़ी दीदी पर हाथ उठाना यूँ तो गलत है ही कानूनी तौर पर भी गलत है ....दीदी भी किस मानसिक संताप से गुजरी होंगी उसका भी अंदाजा लगाइए ....और उस समाज उसकी मानसिक स्थिति क्या होगी जब परिवार के सभी व्यक्ति उसके विरोधी थे .....
हरकीरत हीर जी,
ReplyDeleteबस एक पल के पागलपल के कारण ही ऐसा संभव हुआ। आप सबकी सहानुभूति ही मेरे लिए काफी है।
कहते हैं- ‘क्रोध आता है तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।‘
ReplyDeleteठीक वैसा ही हुआ।
.....हर हालत में प्रेम जी दीदी से छोटे थे ...छोटे भाई का बड़ी दीदी पर हाथ उठाना यूँ तो गलत है ही कानूनी तौर पर भी गलत है ....दीदी भी किस मानसिक संताप से गुजरी होंगी उसका भी अंदाजा लगाइए ....और उस समाज उसकी मानसिक स्थिति क्या होगी जब परिवार के सभी व्यक्ति उसके विरोधी थे .....
पूरबिया जी,
ReplyDeleteकाश! उस समय मैं दीदी की भावनाओं को समझ पाता।
EK PAVITRA ABHIVYAKTI..........PAD KAR ACHCHHA LAGA!!!
ReplyDeleteJindagi k daur me bahut kuchh aisa sab ke saath biit ta hai...
aapne likha, ye alag baat hai...:)
संस्मरण बहुत अच्छा लगा. आप ने अपनी मन की बातों को निकालकर, निचोडकर हम सबके सामने प्रस्तुत किया. धन्यवाद.
ReplyDeleteअत्यन्त भावविव्हल प्रस्तुति...
ReplyDeleteमेरी बडी दीदी भी मुझसे दो वर्ष बडी हैं और डाक्टर भी, जबकि मैं सामान्य ग्रेजुएट प्राणी. मेरे व उनके मध्य भी जीवन में एक अवसर ऐसा आ गया था जब लगने लगा था कि जिन्दगी भर के लिये ये रिश्ते शायद समाप्त हो गये । किन्तु हमारे जैन सम्प्रदाय में वर्ष में एक बार पर्यूषण पर्व के दौरान पडवा ढोक का दिन आता है । मुझे उम्मीद तो नहीं थी कि आज भी क्षमा मांगने से वो पसीजेंगी किन्तु वैसा हुआ और धीरे-धीरे हमारे सम्बन्ध सामान्य होते चले गये । उम्मीद करता हूँ कि आपके जीवन में भी वो दिन जरुर आवेगा । शुभकामनाओं सहित...
आपकी प्रतिक्रियाओं की मेरे ब्लाग www.najariya.blogspot.com नजरिया पर प्रतिक्षा कर रहा हूँ ।
बहुत अच्छा संस्मरण है... लिखते रहिए...शुभकामनाएं...
ReplyDeleteमन के तारों को झंकृत कर दिया आपने। और क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा।
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त्रिया चरित्र : मीनू खरे
संगीत ने तोड़ दी भाषा की ज़ंजीरें।
काफी रोचक है यह पोस्ट बहुत अच्छा संस्मरण है,शुभकामनाएं!
ReplyDeletebhaavuk sansmaran!
ReplyDeleteसुनील कुमार,रजनीश एवं अनुपमा पाठक जी- आप सबको मेरा सादर नमन।
ReplyDeleteकहते हैं- ‘क्रोध आता है तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।‘ठीक वैसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरा भी मन ग्लानि एवं पश्चाताप की असहनीय अग्नि में झुलस सा गया था। पता नही कौन सा पागलपन सवार हो गया था। एक पल के पागलपन ने मुझे हमेशा-हमेशा के लिए दीदी से अलग कर दिया था।
ReplyDelete..दीदी का नाराज होना स्वाभाविक है... लेकिन अपनों से कोई सदा नाराज कहाँ रहता है! समय एक दिन सब ठीक कर देता है ...परस्थितियाँ कभी एक सी नहीं रहती, अपनों का प्यार अपनापन एक दिन करीब खींच लाता है...जल्दी सब सामान्य हो यही शुभकामनाएं है ...
कविता रावत जी- आप की सुंदर भावनाएं मेरे लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगी। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, शानदार और भावुक कर देने वाली पोस्ट है! बेहद पसंद आया!
ReplyDeleteबबली जी-शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजज्बातों को सुन्दर शब्दों में ढाला....
ReplyDelete'सप्तरंगी प्रेम' के लिए आपकी प्रेम आधारित रचनाओं का स्वागत है.
hindi.literature@yahoo.com पर मेल कर सकते हैं.
प्रेम सरोवर जी, आज दुबारा आपकी पोस्ट पढ़ी। आपकी मन: स्थिति में उतरने की कोशिश कर रहा हूँ। वाकई ऐसी संवेदनाएं कहां देखने को मिलती हैं ब्लॉग जगत में।
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प्रेत साधने वाले।
रेसट्रेक मेमोरी रखना चाहेंगे क्या?
ऱजनीश जी,दो बार प्रयास किया फिर भी टिप्पणी न दे सका। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteकभी कभी एक छोटी सी गलती पूरी दुनिया बदल देती है.....आपकी दीदी आपको माफ़ करे यही दुआ है ......
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