Saturday, October 27, 2012

इस पार उस पार



इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!



                                                    
                                                हरिवंश राय बच्चन


यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा*एँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थ बना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढोए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा चिर पतझड़ आएगा, कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर भरभरन सुने जाएँगे,
अलिअवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज टलमल’, सरिता अपना कलकलगायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोती धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!


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14 comments:

  1. बहुत सुन्दर.......
    बच्चन साहब की मेरी सबसे पसंदीदा रचना.....
    कहीं कहीं तो मधुशाला से भी ज्यादा सुन्दर !!!
    आभार इस पोस्ट के लिए.

    सादर
    अनु

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  2. पहली बार किसी रचना में खोना हुआ

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  3. दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
    फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है!
    मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
    दुनिया रोती धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
    मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
    जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
    इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!



    मेरी पोस्ट पर आपका इंतज़ार है

    चार दिन ज़िन्दगी के .......
    बस यूँ ही चलते जाना है !!

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  4. सुन्दर प्रस्तुति!
    ईद-उल-जुहा के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  5. इतनी खूबसूरत रचना के लिए आज कल कितना तरसते हैं हम.....या इस तरह की रचनाएं अब चर्चा का विषय नहीं बनती इसलिए शायद हमारी नजरों में नहीं आती..पता नहीं।

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    Replies
    1. धन्यवाद रोहिताश कुमार जी।

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  6. बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ...

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  7. बहुत सुंदर रचना..आभार इसे पढवाने के लिए..

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  8. शानदार रचना पढवाने के लिए आभार... बच्चन साहब लाजवाब हैं...

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  9. प्रभावी रचना,,,,आभार
    प्रेम जी बहुत दिनों से मेरे पोस्ट पर नही आये,,,आइये आपका स्वागत है,,

    RECENT POST LINK...: खता,,,

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  10. हरिवंश राय बच्चन जी की सुंदर रचना को साझा करने हेतु
    आभार.......

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  11. हरिवंश राय बच्चन जी को काफी बार पढ़ा है परन्तु ब्लॉग पर उनकी कविता पढ़ना मेरे लिए एक अलग अनुभव रहा है।सच्ची में ... बहुत अच्छा लगा :))

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