Saturday, November 10, 2012

एक बार फिर रूद्र जी की याद में


 बनारसी लोक जीवन  एवं बहती गंगा के सर्जक :शिव प्रसाद मिश्र रूद्र

  
                                                             
                                                      प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह

शिव प्रसाद मिश्र रूद्र जी का उपन्यास बहती गंगा एक ऐसी अनूठी रचना है, जो अपने लेखक को हिन्दी साहित्य के इतिहास और बनारस की चलतीफिरती आबोहवा  में अमर कर गई। हती गंगा अपने अनूठे प्रयोग और वस्तु,  दोनों के लिए विख्यात है। इस उपन्यास में काशी के दो सौ वर्षों (1750-1950) के अविच्छिन्न जीवन-प्रवाह को अनेक तरंगों में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक तरंग (कहानी) अपने-आप में पूर्ण तथा धारा-तरंग-न्याय से दूसरों  से संबद्ध भी है। इसकी कहानियों के शीर्षक हैंगाइए गणपति जगबंदन, घोड़े पे हौदा औ हाथी पे जीन, ए ही ठैंया  झुलनी  हेरानी हो रामा, आदि-आदि। बहती गंगा की तरह बनारस की जीवन धारा भी पवित्र है, इस नगरी में मिठास है, आत्मीयता है -  डॉ. बच्चन सिंह

रूद्र जी का उपन्यास बहती गंगा को पढ़ना भारतीय संस्कृति से परिचित होने का माध्यम है। यह उपन्यास पवित्र नगरी बनारस की सभ्यता, संस्कृति एवं लोक जीवन का जीवंत दस्तावेज है। इसे अपनी समझ से रोचक बनाने के उद्देश्य से कुछ ऐसे तथ्यों को भी समावेशित करने का प्रयास किया हूं जो बनारस को और भी रूचिकर बनाने के साथ- साथ इसके बारे में अच्छी जानकारी दे सके। यदि हम भारतीय संस्कृति के पिछले अतीत पर नजर डालें तो ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष के किसी भी साहित्यिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं सभ्यता, संस्कृति की परम्परागत अर्थों में किसी केन्द्रीय चरित्र या कथानक की जगह सारे चरित्र और सभी आख्यान बनारस की भावभूमि, उसके इतिहास, भूगोल, उसकी संस्कृति और उत्थान-पतन की महागाथा बनते हैं। अध्यायों के शीर्षक ही नहीं, भाषा, मानवीय व्यवहार और वातावरण का चित्रण बेहद सटीक और मार्मिक है। सबसे बड़ी बात यह है कि रचनाकार यथार्थ और आदर्श, दंतकथा और इतिहास मानव-मन की दुर्बलताओं और उदात्तताओं को इस तरह मिलाता है कि उससे जो तस्वीर बनती है वह एक पूरे समाज, की खरी और सच्ची कहानी कह डालती है। बनारसी लोक जीवन और बहती गंगा के सर्जक शिव प्रसाद मिश्र रूद्र का जन्म  काशी के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित प्रधान तीर्थ-पुरोहित पं महाबीर प्रसाद मिश्र के यहां 27 सितंबर, 1911 को  हुआ था। महावीर प्रसाद महाराज तत्कालीन बनारस के बुद्धिजीवियों में सम्मानित और लोकप्रिय व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे। वे अनेक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हुए जीवट व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे वहीं दूसरी ओर वे बनारसी तीर्थ पुरोहितों की दुनिया में दबंग व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते थे जिनके एक इशारे पर लाठियां तन जाती थीं।

इन सबका अनूठा प्रभाव रूद्र जी के व्यक्तित्व में दिखाई देता है। अपने विचार से लेकर परिधान तक में रूद्र का रूप अदभूत था। अपने विशेष परिधान सफेद कुर्ते और तेल पिलाई लाठी के लिए उन्होंने कभी समझौता नही किया। उनके ही शब्द को बिहार के तत्कालीन माननीय मुख्य मंत्री श्री लालू प्रसाद यादव जी ने छपरहिया शैली में तेल पियावन लाठी भजावन जैसे शब्दों का प्रयोग विपक्षियों से सामना करने के लिए अपने समर्थकों से पटना में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था। इस तरह रूद्र जी न केवल लाठी लेकर चलते थे बल्कि जरूरत पड़ने पर उसका खुल कर प्रयोग भी करते थे। उन्हे काशी के जीवित इतिहास की विशेष और अछूती जानकारियां थी। बनारस के पिछले कुछ वर्षों के इतिहास के वे चलते फिरते संदर्भ ग्रंथ थे। किसी भी विषय और घटना के बारे में पूछने पर वे प्रमाण के साथ संपूर्ण जानकारियां खांटी बनारसी अंदाज में देते थे। उस समय की काशी और आज के बनारस में बहुत गहरी फांक बन गई है। साहित्यिक अलमस्ती की बनारसी अड्डा रूद्र के घर में ही जमती थी जो आज के साहित्यिक हलकों में नदारद है।

1942 के त्रिमूर्ति के रूप में पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, अन्नपूर्णानंद और रूद्र जी माहौल जमाते थे और आगे चलकर पंचमहाभूतों के रूप में बेढब बनारसी, रूद्र जी, काशिकेय, चोंच बनारसी और भैया जी बनारसी साहित्यिक हलचलों के केंद्र में होते थे। रूद्र जी गहरे मूड के व्यक्ति थे। बहुत कुछ उनके उसी मूड पर निर्भर करता था जिसका एक पहलू यह है कि वे सही मायनों में मौलिक रचनाकार थे और दूसरा यह  इसी मूड पर निर्भरता के कारण उनकी ज्यादातर रचनाएं अधूरी और अप्रकाशित ही रह गईं या फिर किसी न किसी कारण नष्ट हो गई। अपनी किसी भी रचना में रूद्र जी ने भाव और भाषा दोनों को नया दृष्टिकोण दिया है। वर्ष 2011 ‘रूद्र जी का शताब्दी वर्ष था । अनेक रचनाकारों के शताब्दी वर्ष समारोह चर्चा में रहे है। संगोष्ठिया हुईं विचार-विमर्श हुए लेकिन शिव प्रसाद मिश्र रूद्र की चर्चा न के बराबर हुई, उन्ही की ठैंया बनारस में भी नही  हुई।

आईए, एक नजर डालते हैं उनकी अनुपम कृति बहती गंगा पर जो रूद्र जी की  वह अकेली अनुपम कृति है जो उन्हे अखिल भारतीय स्तर का क्लासिक रचनाकार सिद्ध करती है। संतोष है कि आज कम से कम लोक की चर्चा और चिंता की जा रही है,  इस उपभोक्तावादी समाज के दायरे के तहत ही सही। कुछ ऐसे लोग हैं जो इन रचनाओं को इसी बहाने खोज रहे हैं, पढ रहे हैं। इन्ही लोगों के कारण ही केशव प्रसाद मिश्र जी को खोज लिया गया जिनके उपन्यास कोहबर की शर्त पर आधारितनदिया के पार नामक फिल्म राजश्री प्रोडक्शन के बैनर तले बनी एवं संवेदनशील कथानक के कारण भारत ही नही अपितु पूरी दुनिया में चर्चित रही। लोक भावना के अनुपम धरातल पर रूद्र जी द्वारा रचित बहती गंगा लोक और उसके भीतर की आत्मीयता, स्थानीयता, अलमस्ती, फकीरी-वितरागिता, मुलायमियत और जीवन का समूचा निचोड़ है।

 इस तथ्य से बहुत कम लोग ही परिचित हैं कि तीर्थ पुरोहित, पंडा संस्कारों के बावजूद रूद्र अपने समय की कई वर्ष आगे की प्रगतिशील विचारधारा के विश्वास से भरे हुए थे। यही कारण है कि बहती गंगा पढ़ते हुए आज की पीढ़ी रूद्र से जुड़ती है। संगीत और ऊर्दू जबान ने रूद्र की भाषा को और ज्यादा प्रखरता और सहजता दी है। ऐसा सुना गया है कि वे कई बार अकेले में गालिब और मीर की गजलें सस्वर गाते थे। संगीत की इसी तलब ने बहती गंगा को जानदार बनाया है। बहती गंगा की 17 कहानियों के शीर्षक किसी न किसी लोकगीत जैसे  कजरी, ठुमरी, चैती आदि मुखड़ों से बने हैं  जिसका प्रारंभ गाईए गणपति जगवंदन  से और अंत सारी रंग डारी लाल लाल नामक कहानी से होता है।  इस एक उपन्यास में रूद्र और उनका व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा के कई अछूते आयाम मौजूद हैं। रूद्र ने पारंपरिक मंगलाचरण की कहानी गाईए गणपति जगवंदन को विद्रोह का स्वर दिया है. सारी रंग डारी लाल लाल के माध्यम से उन्होंने काशी के साहित्यिक मंच को एक नई विचारधारा दी है। जीवन को एकमुश्त जीने वाले इस रचनाकार को रूद्र नाम पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र जी ने दिया अपने नाम के तर्ज पर। प्रेमचंद की हामी के साथ उग्र ने कहा कि नर रूप में साक्षात्कार शिव के समान दिखने वाले का नाम रूद्र ही होना चाहिए।

यदि आंचलिकता के मानदंडों के अनुसार बहती गंगा का मूल्यांकन करें तो तो 1954 में जिस धीरोदात्त नायक का निष्कासनफणीश्वर नाथ रेणु ने मैला आंचल में मेरीगंज के माध्यम से किया था, वह 1952 की बहती गंगा में हो चुका था। उस परंपरा को पहली बार रूद्र ने तोड़ा और बनारस अंचल को अपने उपन्यास का नायक बनाया है। उन्होंने हिंदी को भाषा और शैली का नया पैटर्न दिया जिसका प्रभाव आज के हिंदी कथा साहित्य पर स्पष्ट दिखाई देता है। काशी का वह जुलाहा जिसने बगैर मिलावट-बुनावट  के भाव और भाषा की चादर का ताना-बाना बुना है वह भाषाई परंपरा सही अर्थों में बहती गंगा में उभर कर हमारे सामने आती है।

हिंदी साहित्य में विशेषकर बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में झुलनी एवं झुमका का अन्योनाश्रित संबंध रहा है।साहित्यकारों के साथ-साथ गायकों ने भी इस शब्द को तरजीह दिया जिसके कारण मेरा साया नामक फिल्म का गीतझुमका गिरा रे बरईले के बाजार में  काफी हिट हुआ। राही मासूम रजा जी ने भी अपने उपन्यास आधा गांव में लागा लागा झुलनिया का धक्का बलम कलकत्ता पहुंच गए जैसे शब्दों का प्रयोग कर आम जनता के संवेदना संसार में एक आत्मीय साहित्यकार के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठित किया। इसी तरह बहती गंगा में रूद्र जी ने दुलारी बाई को माध्यम एवं नायिका के रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने आप को रोक नही पाए।

इस उपन्यास की एक कहानी एही ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा जो इस उपन्यास के भाव और भाषा को बांधकर केंद्र बिंदु में निर्मल गंगा की लोल लहरों की तरह इठलाती हुई दिखाई देती है जिसमें बनारसी गौरहारिन दुलारी बाई बटलोही में चुरती हुई दाल को क्रोध में ठोकर मार कर गिरा देती है। प्रसंगवश यह कहना चाहूंगा कि दुलारी बाई नामक नाटक मणिमधुकर जी ने भी लिखा है जिनके साथ मैं वर्ष 1978 में हावड़ा से दिल्ली तक का सफर तय किया था। एक गहरी आत्मीयता के बाद उन्होंने मुझे अपनी एक पुस्तक कबीर की आंख मुझे भेंट की थी।

दुलारी बाई की ऐसी तल्खी, तेवर और साफगोई से प्रभावित होकर सोलह वर्षीय टुन्नु उससे प्रेम करने लगता है। दुलारी को यह प्रेम अनैतिक लगता है क्योंकि दुलारी और टुन्नु के बाच उम्र का बहुत बड़ा फासला है, जिसे नैतिक और सामाजिक स्वीकृति नही मिल सकती है। उसी टुन्नु की भेंट की हुई खद्दर की साड़ी से सरे आम दुलारी फांसी लगाकर मर जाती है। इस प्रेम मे ढेर सारे सवाल हैं जो आधुनिक साहित्य में अब जाकर आए हैं। यह कहानी रसूलन बाई जैसी वेश्या के जीवन पर आधारित है। रूद्र के यहां बनारसी जनजीवन और यहां का इतिहास दर्शनीय मात्र न होकर मानव जीवन की गतिशील और अविछिन्न परंपरा के रूप में आज है। इसी कारण  बनारस में गंगा अपने कई रूपों, पड़ावों एवं गिरती-पड़ती घुमावों एवं कई स्थानों की संस्कृति को अपने उदर में समेटे यहां पर आकर वह शिव प्रसाद रूद्र जी की ठैयां में बहती गंगा बन जाती है।

अपने धार्मिक महत्व, संस्कृति, राग-विराग, लोगों की रसिक मिजाजी, बनारसी पान, शाम को जुटती साहित्यकारों की भांग पार्टी,  पुराने घरानों एवं मूल लोगों के कानूनी मामलों को सुलझाने के लिए बनाया गया- BENARAS SCHOOL OF HINDU LAW,बुजुर्ग लोगों की कहावत- थोड़ा खाना और बनारस में रहना, विदेशी शैलानियों का जमघट, रसिक-मिजाज लोगों की हर शाम को बेहद रंगीन कर देने वाली मृगनयनी, आम्रपाली, एवं भगवती चरण वर्मा द्वारा विरचित उपन्यास चित्रलेखा की नायिकाजैसी चित्रलेखा एवं मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन की मल्लिका भी रूद्र जी की ठैयां बनारस में ऐसे लोगों के लिए इंतजार करती मिलती हैं। आज भी बनारस की खुबसूरत कोठों के रंगीन दीवारो से बाहर आकर वहां के गीत बहुत लोगों के मन को आंदोलित करते रहते हैं। गावों में आज भी जब कोई गाने-बजाने का कार्यक्रम होता है तो बरबस ही गाईए गणपति जगबंदन और यह गीत –“कईनी हम कवन कसूर, नजरिया से दूर कईनी राजा जी....... लोगों की जुबान पर बरबस ही आ जाता है। यह बात जिगर है कि इसके सर्जक रूद्र जी को  इस तरह के गाना गाने वाले लोगों में से कई लोग उन्हे नही जानते।

बंधुओं, क्या इतना सब कुछ एक सहृदय एवं संवेदनशील व्यक्ति हाशिए पर रख सकता है ! क्या हम बनारस को भूल सकते हैं ! क्या हम अंग्रेजी भाषा के विद्वान  ALDOUS HUXLEY के द्वारा बनारस के संबंध में कहा गया कथन - EAST IS EAST AND WEST IS WEST को भी नजरअंदाज कर सकते हैं ! बंधुओं, पोस्ट लंबा होते जा रहा है, दिल भी नही मानता है ऐसी परिस्थिति में अपने चिंतन के दायरे को संकुचित करना संभव प्रतीत नही होता है। इस तरह रूद्र जी को समझने, पढ़ने और उनके बारे में सोचते रहने की सहज एवं स्वभाविक प्रक्रिया में पाकिजा फिल्म का एक गीत  यूं ही कोई, मिल गया था, सरे राह चलते-चलते”.. ..का भाव मन को स्पंदित करने लगता है। ठीक इसी भाव से रूद्र जी की बहती गंगा भी मेरे साहित्यिक सफर की संगी बन गई एवं उसके साथ-साथ, चलते-चलते, हर पन्नें में, हर कथानक के मोड़ पर, बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ संजोया और जो याद रहा, जिस बनारस को वर्षों पूर्व  कभी देखा था, अनुभव किया था, उसका कुछ अंश रूद्र जी की बहती गंगा के आलोक में आप सबके साथ शेयर कर रहा हूं, इस आशा और अटूट विश्वास के साथ कि मेरी यह प्रस्तुति भी अन्य प्रस्तुतियों की तरह आपके दिल में थोड़ी सी जगह पाने में समर्थ होगी। इस पोस्ट को इससे अधिक रूचिकर बनाने में आप सबकी बेशकीमती प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी ताकि मैं समझ सकूं कि इस दिशा में किया गया मेरा प्रयास संकलन एवं अपने विचार आपको प्रभावित करनें में कहां तक सफल हुए हैं। धन्यवाद सहित।
                                  
नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य, अपने थोड़े से ज्ञान एवं कतिपय संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी। इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी। आपके सुझाव मुझे अभिप्रेरित करने की दिशा में सहायक सिद्ध होंगे। - आपका प्रेम सागर सिंह
          

                           (www.premsarowar.blogspot.com)

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Tuesday, November 6, 2012

अटल बिहारी बाजपेयी जी की कविता



अपने ही मन से कुछ बोलें :अटल बिहारी बाजपेयी


                                                                 

 (भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी)


क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

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Friday, November 2, 2012

गांधी जयंती पर एक विशेष चर्चा


     गांधी की डगर संकल्पों को साधने वाली संहिता है।

  चल पड़े जिधर दो पग डगमग,
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि,
गण गए कोटि दृग उसी ओर।
(सोहन लाल द्विवेदी)

                                                      

                             महात्मा गांधी

  
(जिस गांधी ने भारतवर्ष को स्वराज्य दिलाया था, उस गांधी को तो इस देश ने राष्ट्रपिता बनाकर रख लिया, किंतु जो गांधी उससे बड़ा गांधी था, उसे हमने निर्वासित कर दिया, क्योंकि उसे घर में बनाए रखने पर हम झूठ नही बोल सकेंगे, जरूरतें नही बढ़ा सकेंगे और सरहद पर ललकारने वाले शत्रुओं को देख कर हम अहिंसा की दुहाई नहीं दे सकेंगे। गांधी ने कहा था, सत्य के बिना अहिंसा चल नही सकती। हमने सत्यो को तो छोड़ दिया, मगर अपनी कमजोरी छिपाने के लिए अहिंसा की चादर और भी गाढी बुनकर ओढ ली। जो गांधी हमारी छोटी जरूरतों का गांधी था, उसे हमने नही छोड़ा है, मगर जो गांधी मानवता का गांधी था, उसे हमने अपने घर से निकाल दिया है और आज स्थिति यह आ गयी है कि किसी ने RTI ACT, 2005 के अंतर्गत सरकार से यह जानना चाहा है कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि से कब और किसके आदेश द्वारा विभूषित किया गया था।) .. प्रेम सागर सिंह

 अक्टूबर का महीना आते ही हमारी गांधी चेतना जैसे अचानक जाग जाती है। गांधी जयंती के अवसर पर उनसे संबंधित अनुष्ठान और उनके दर्शन से विरक्त लेकिन सुसज्जित कार्यक्रमों की भरमार होती है और इस तरह इस महीने में गांधी हम सबके बीच एक नए विचार की तरह पेश किए जाते हैं। इसी महीने में हमारी गांधीआस्था हमारे अभिन्न दोष-द्वार से अपने निकास का अवसर पाती है। गांधी खुद तो आफत को अवसर में बदल देने की कला जानते थे, लेकिन क्या वे अब हमारे लिए अवसर मात्र हैं।

इस खास महाने में अलग-अलग क्षेत्रों में गांधी को लेकर प्रदर्शन भाव जोरों पर होता है। इसमें सरोकारों से दूर सरकारी आयोजनों और कॉरपोरेट -ब्रांडिंग की भरमार रहती है । राजनीति में तो गांधी ब्रांड अचूक अस्त्र ही है। इन सबके अतिरिक्त, महानगरों से दूर ग्रामीण पाठशालाओं को छोड़ दिया जाए और व्यक्तिगत प्रार्थनाओं को अपवाद समझा जाए तो अक्टूबर अब गांधी के नाम पर सार्वजनिक ढोंग के उत्सव का महीना बन गया है।

क्या यह महज संयोग है! क्या हम आफत और आस्था के भेद को भूल कर सिर्फ अवसर को उत्सव बनाने वाले बन बैठे हैं ! इस सिससिले में पिछले वर्ष दिल्ली में गांधी जयंती के आयोजन हुए। इसमें प्रख्यात नृत्यांगना गीता चंद्रन द्वारा संयोजित ताना-बाना और कई जगहों पर चित्र प्रदर्शनी भी आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम को पिछले वर्ष टी.वी पर देखने के बाद मुझे ऐसा लगा कि इन तीनों आयोजनों की भाषा, नृत्य और चित्र या शब्द, देह और रूप से गांधी-रूपक गढ़ने का उपक्रम माना जा सकता है। अपनी आत्म-कथा सत्य के प्रयोग के आवरण पृष्ठ पर गांधी जी ने लिखा है:-मुझे दुनिया को कोई नई चीज नही सिखानी है, सत्य और अहिंसा अनादि काल से चले आए हैं। ये उदगार उनके जीवन, विनय और आत्म-सजगता के सूचक हैं। इसी क्रम में नारायण देसाई की गाधी-कथा/ निश्चय ही विश्वास और आस्था का संगम है, जिसे सुनना हमें प्रमाद और प्रलोभन से परे ले जाता है। यहीं अन्य दो प्रस्तुतियां अहंकार के अलंकार जैसी लगीं। चित्रों मे यदि गांधी को सतही तरीके से उकेरा गया है तो गीता-चंद्रन की तथाकथित नृत्य नाटिका गांधी दर्शन को मात्र गांधी प्रदर्शन में बड़े ही रूखे और नाटकीय ढंग से रखने का प्रयास मात्र है, जिसका न तो गांधी दर्शन से कोई संबंध बनता है और न ही नृत्य की शास्त्रीयता से और न ही उनकी इस प्रस्तुति को रंगमंच की श्रेणी में रखा जा सकता है। गीता चंद्रन की यह प्रस्तुति भारतनाट्यम के समक्ष यम प्रस्तुति है, जहां शास्त्र ने अपना दम तोड़ दिया है। गांधी को अपना विषय बना कर प्रस्तुत किया जा सकता है! विषय लोभ से चरमराई उनकी यह प्रस्तुति गांधी लोक तक नही पहुंच पाई। यह लोभ लोक की प्रस्तुति है, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी हुई है जो हमारे समय में लगभग खोती और खोटी आलोचना के कारण है।

गीता चंद्रन ने अपनी प्रस्तुति में जिस तरह दांडी प्रसंग को प्रस्तुत किया वह उनकी नृत्य नाटिका के विफलता का भी प्रसंग लगता है। हिंसा को जस का तस दिखाना आसान है, मगर बात तब बनती जब वे अहिंसा के प्रकटन पर विचार करती, जहां गाधी बसते हैं। इस प्रसंग में उन्होंने एक तरह से अंग्रेजी हुकुमत के अत्याचार को तो प्रस्तुत कर दिया, पर गांधी विचार को प्रकट करने में विफल रहीं। उनकी मंच सज्जा जरूर प्रभावी थी। उनकी यह प्रस्तुति कुल मिलाकर बाजार और सरकार को खुश करने की कोशिश से ज्यादा कुछ नही लगी।

गांधी जी केवल राजनीति के विरोधी नही थे, केवल समाज के नेता नही थे, जननायक और देशभक्त नही थे.वे यांत्रिक सभ्यता की एक खुली चुनौती भी थे, वे मानवता के उस अतीत के प्रहरी भी थे, जो इतनी मारों के बाद भी नहीं मरा है। सुख में पले हुए शरीर  को आत्मा की याद दिलाने आए थे। वे मनुष्यों से यह कहने को आए थे कि आज भी कल्याण का मार्ग यही है कि हम अपनी जरूरतों में इजाफा न करें, उन्हें कम से कम रखें। गांधी जी के इस रूप को ध्यान में रखते हुए अनेक बातें मेरे ही नही अधिकांश भारतीयों के दिलों में भी कहीं बहुत भीतर पैठती है कि गांधी जी का आदर्श एवं यथार्थ में विघटन तो जरूर हुआ है। गांधी जी  की व्याख्या करते-करते उनकी तुलना मार्क्स से करने लगते हैं, मगर वे भूल जाते हैं कि मार्क्स और गांधी के बीच एक भेद है। मध्यकालीन संतों का मत था कि मनुष्य का सबसे बड़ा ध्येय निजी मोक्ष है और निजी मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन संन्यास है। मार्क्स ने कहा वह बात गलत है। मोक्ष व्यक्ति का नही, समाज का होना चाहिए। तब गांधी जी सामने आए और बताया ;मोक्ष तो व्यक्ति का होता है, मगर उसका रास्ता संन्यास नही, समाज सेवा का कार्य है।

उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में, क्या आज गांधी का समकालीन रूपक सरकार और बाजार के बीच चौराहों पर लगी भौंचक गांधी मूर्तियों और उनके नाम पर बने मार्गों के रूप में हो सकता है ! गौर करने की बात है कि यह मार्ग अधिकतर बाजार और सरकार को जोड़ने वाला मार्ग ही होता है, न कि सत्य की डगर, जिस पर गांधी जीवन भर चले। गांधी की डगर बाजार और सरकार को जोड़ने वाला नही, बल्कि इनके पार जाती हुई संकल्पों को साधने वाली संहिता है। हमें इस महान पुरूष को क्षद्धा के साथ देखना चाहिए यह बात जिगर है कि आने वाली पीढ़ी इन्हे किस शैली और अंदाज में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करेगी। गांधी जयंती के अवसर पर इस महान विभूति एवं कर्मयोगी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

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