Friday, May 14, 2010

सबकी आशा: राजभाषा

सबकी आशा: राजभाषा

प्रेम सागर सिंह

भाषा अहर्निश प्रवाहित नदी के समान है। भाषा जो परिस्थिति, काल, समुदाय के अनुरूप ढ़लने लगती है, वही जीवंत भाषा है। हिंदी की वास्तविक प्रकृति में यह निहित है। अपनी लचीली और ग्राह्य प्रकृति के कारण यह सामाजिक आवश्यकताओं के बदलते परिप्रेक्ष्य में स्वयं को आसानी से परिवर्तित कर लेती है। स्वतंत्रता के दौरान विकसित भाषा के स्वरूप, शैली एवं प्रयोग में आज अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। बदलते युग संदर्भ की पृष्ठभूमि में आज यह संचार माध्यम की भाषा बनने के साथ- साथ विज्ञान जगत में भी अपनी सफलता दर्ज कराने में सफल सिद्ध हुई है। प्रवासी भारतीयों की बोली और आज के युवा पीढी़ की धड़कन की भाषा बन गई है। आज भारत में व्यापार के विविध क्षेत्रों में पदार्पण करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है। सामाजीकरण एवं आर्थिक उदारीकरण के बदलते परिप्रेक्ष्य में आज हिंदी बाजारीकरण और भूमंडलीकरण की भाषा बन गई है एवं शनै: शनै: इसे वैश्विक स्वीकृति भी मिल रही है।

सरकारी कामकाज के प्रत्येक क्षेत्र में राजभाषा हिंदी परिणामोन्मुखी दिशा में अग्रसरित हो रही है। इसे प्रत्येक स्तरों पर नई दशा और दिशा प्रदान करना हम सबका संवैधानिक दायित्व बनता है। सरकार की राजभाषा नीति, अधिनियम एवं विनियम के अनुपालन को सुदृढ़ करने के साथ- साथ इसके विस्तृत आयाम का सृजन ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। हमे अपनी मानसिकता, वैचारिक शक्ति एवं नैतिकता में बदलाव करना परम आवश्यक है। भाषा और संस्कृति हमारे देश की अस्मिता की पहचान हैं। इसके प्रति श्रद्धा. सम्मान, प्रतिबद्धता और इसके उत्तरोत्तर विकास में सहयोग करना हमारा नैतिक एवं संवैधानिक कर्तव्य है। हमे आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि हम सब अपने-अपने स्तर पर राजभाषा हिंदी की श्रीवृद्दि के लिए सत्य-निष्ठा के साथ इसके चतुर्दिक विकास के लिए कटिबद्ध रहेगे।

यह मान लेना कि हिंदी सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन एक सक्षम भाषा है, पर्याप्त नही है। इसे व्यवहारिक बनाना, अमल में लाना और राष्ट्र के मुख्य धारा में शामिल करना भी आवश्यक है। तदुपरांत, इसकी क्षमता का बोध सभी को होगा एवं उस स्थिति में विकास की हर यात्रा व पड़ाव में हमारी सहभागी बन सकेगी। ज्ञान- विज्ञान और सामयिक विषय जब हिंदी में लिखे जाएगे तब इसके प्रति विश्वास बढ़ेगा। इस दिशा में आवश्यकता है आत्म-मंथन की, संकल्प की जिसके माध्यम से शायद हमारा य़ह प्रयास पूर्वजों के मानसिक संकल्पनाओं को साकार करने में सहायक सिद्ध हो। यह शुरूआत तो हमें और आपको ही करनी है। आईए, इस पुनीत कार्य में सार्थक प्रयास की आधारशिला रखें ताकि सरकारी तंत्र, नियम और सरकारी कार्यालयों की कार्य-संहिता के साथ- साथ भारतीय बाजार, अर्थ व्यवस्था एवं सामासिक संस्कृति अपनी समग्रता में अक्षुण्ण बनी रहे।

10 comments:

  1. बहुत अच्छा पोस्ट। बधाई।

    ReplyDelete
  2. यह रचना निश्‍चय ही लोगों को हिंदी के प्रति लगाव बढ़ाएगी । बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति

    ReplyDelete
  3. आपकी यह रचना निश्चित रूप से एक अच्‍छी रचना है । राजभाषा के प्रति आपका यह लगाव सर्वभावेन एवं सर्वरूपेण परिलक्षित होता है । आशा है आप अहर्निश ऐसी ही रचनाएं ब्‍लॉग पर देते रहेगे ।

    ReplyDelete
  4. अच्छा पोस्ट। लिखते रहे।

    ReplyDelete
  5. मान्यवर ,
    नमस्कार !
    आपके यहां पहली बार आया हूं …
    बहुत अच्छा लगा ।
    मैंने आपकी बहुत सारी कविताएं पढ़ीं …
    संप्रेषणीय और रुचिकर हैं ।
    आलेख भी ज्ञानवर्द्धक हैं ।
    बहुत बहुत बधाई !



    शस्वरं पर आपका भी हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइए…

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

    ReplyDelete
  6. bahut sundar rachna....
    Meri Nai Kavita padne ke liye jaroor aaye..
    aapke comments ke intzaar mein...

    A Silent Silence : Khaamosh si ik Pyaas

    ReplyDelete