Monday, January 11, 2010

हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन

हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन
- प्रेम सागर सिंह
हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन,
मन क्यूं अधीर हो जाता है ।
स्वयं का अतीत लहर बनकर,
तेरी ओर बहा ले जाता है ।

वे दिन भी बड़े ही स्नेहिल थे।
जब प्रेम सरोवर स्वतः उफनाता था।
उसके चिर फेनिल उच्छवासों से,
स्वप्निल मन भी सकुचाता था ।

कुछ कहकर कुंठित होता था,
तुम सुनकर केवल मुस्काती थी ।
हम कितने कोरे थे उस पल,
जब कुछ बात समझ नहीं आती थी ।

हम बिछुड़ गए दुर्भाग्य रहा,
विधि का भी शायद हाथ रहा ।
लिखा भाग्य में जो कुछ था,
हम दोनों के ही साथ रहा ।

सपने तो अब आते ही नहीं,
फिर भी उसे हम बुनते रहे ।
जो पीर दिया था अपनों ने,
उसको ही सदा हम गुनते रहे ।

अंतर्मन में समाहित रूप तुम्हारा,
अचेतन मन को उकसाया करता है ।
लाख भुलाने पर भी वह मन,
प्रतिपल ही लुभाया करता है ।

तुम जहां भी रहो आबाद रहो,
वैभव, सुख-शांति साथ रहे ।
पुनीत हृदय से कहता हूं ,
जग की खुशियां पास रहे ।

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6 comments:

  1. Bahut acchi kavita,Likhte rahe. Agli kavita ka intejaar rahega.

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  2. संवेदनशील रचना।

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  3. KYA BAAT HAI PREMSAROWARJI.KAVITA BAHUT AACHI LAGI.AAPKI RACHNA KA ANDAZ NIRALA HAI. AAP LIKHTE RAHE.SHUBHKAMNAY...

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  4. वे दिन भी बड़े ही स्नेहिल थे
    जब प्रेम सरोवर स्वतः उफनाता था
    उसके चिर फेनिल उच्छवासों से
    स्वप्निल मन भी सकुचाता था ....

    बहुत ही अच्छी कविता है .... . बहुत खूबसूरती से पिरोया है शब्दों को ...........

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  5. Aap Sabhi ko Tahe Dil se Shukriya Ada karta Hun.

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