तुझे देखकर मन का सैलाब,
उमड़ कर फिर ठहर जाता है।
दिल को लाख समझाने पर भी,
मन भावनाओं का बादल बन,
तुझ पर बरस जाना चाहता है।
तुझे सब कुछ बता कर भी,
कुछ पूरा और कुछ अधूरा रह जाता है।
उस अधूरे को पूरा करने के,
अथक एवं अनवरत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
तुझे किस नाम से संबोधित करूं,
कोई संबोधन नजर नहीं आता है,
तुझे किस भाव से मन में समाहित करूं,
कोई सुंदर भाव नहीं बन पाता है।
उस संबोधन एवं भाव को,
ढूंढने के सतत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
अहर्निश, तुम्हारे सामीप्य –बोध की कल्पना,
मुझे इस तरह विचलित कर देती हैं,
कि मन की शांति, रात की नींद,
और दिन का सुख-चैन खो जाता है।
तुझे दोनों जहां में ढूंढने के,
अथक एवं अनवरत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
तुम्हारे सौंदर्य-पान के निरंतर प्रयास में,
मेरी आंखें थक कर, पथरा जाती है।
उन पथराई और उनींदी आंखों में,
मेरी भावनाओं की सतरंगी दुनियां में,
एक बहकी हुई तारिका की तरह,
अभिसारिके, तुम उदित हो जाती हो।
तुम्हारे हृदय की विशालता को ,
किस विशेषण से अलंकृत करूं,
मुझे कोई विशेषण नहीं मिल पाता है।
समीचीन विशेषण को ढूंढने के प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
अपने दिल में थोड़ी सी जगह,
देने का तुम्हारा आश्वासन,
एक सुखद अनुभूति का एहसास कराता है।
तुम्हारे अनछुए तन, मन और भावों को,
छूने के अहर्निश प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
तुम्हारे बदन की थोड़ी सी तपीश,
अनुभव करने का प्रयास,
मुझे मर्माहत एवं आर्द्र कर जाता है,
और उन कल्पनाओं को साकार करने के,
अहर्निश और सतत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
उमड़ कर फिर ठहर जाता है।
दिल को लाख समझाने पर भी,
मन भावनाओं का बादल बन,
तुझ पर बरस जाना चाहता है।
तुझे सब कुछ बता कर भी,
कुछ पूरा और कुछ अधूरा रह जाता है।
उस अधूरे को पूरा करने के,
अथक एवं अनवरत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
तुझे किस नाम से संबोधित करूं,
कोई संबोधन नजर नहीं आता है,
तुझे किस भाव से मन में समाहित करूं,
कोई सुंदर भाव नहीं बन पाता है।
उस संबोधन एवं भाव को,
ढूंढने के सतत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
अहर्निश, तुम्हारे सामीप्य –बोध की कल्पना,
मुझे इस तरह विचलित कर देती हैं,
कि मन की शांति, रात की नींद,
और दिन का सुख-चैन खो जाता है।
तुझे दोनों जहां में ढूंढने के,
अथक एवं अनवरत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
तुम्हारे सौंदर्य-पान के निरंतर प्रयास में,
मेरी आंखें थक कर, पथरा जाती है।
उन पथराई और उनींदी आंखों में,
मेरी भावनाओं की सतरंगी दुनियां में,
एक बहकी हुई तारिका की तरह,
अभिसारिके, तुम उदित हो जाती हो।
तुम्हारे हृदय की विशालता को ,
किस विशेषण से अलंकृत करूं,
मुझे कोई विशेषण नहीं मिल पाता है।
समीचीन विशेषण को ढूंढने के प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
अपने दिल में थोड़ी सी जगह,
देने का तुम्हारा आश्वासन,
एक सुखद अनुभूति का एहसास कराता है।
तुम्हारे अनछुए तन, मन और भावों को,
छूने के अहर्निश प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
तुम्हारे बदन की थोड़ी सी तपीश,
अनुभव करने का प्रयास,
मुझे मर्माहत एवं आर्द्र कर जाता है,
और उन कल्पनाओं को साकार करने के,
अहर्निश और सतत प्रयास में,
एक सवेरा फिर आ जाता है।
***********
परम सनेही प्रेमसागर सिंह जी,
ReplyDeleteयह कविता पढ़ने के बाद इतना ही कहना काफी होगा कि ‘प्रेमसरोवर’ ने प्रेम के सरोवर में खूब गोते लगाए हैं । जैसी खूबसूरत आपकी कविता है वैसी ही खूबसूरत आपकी प्रेरणा श्रोत भी होंगी ।
सादर,
- रीता
great.
ReplyDeleteआपकी कविता अपनी आत्मीयता से पाठक को आकृष्ट कर लेती है।
ReplyDeleteEk aachi kavita, pata hi nahi chala padte - padte savera ho gaya. Likhte rahe.
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा लाजवाब लेख है
ReplyDeletebahut hi sundar kavita hai
ReplyDeleteआप सब को धन्यवाद
ReplyDeleteकल 11/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
जब इंसान प्रभु प्रेम मे डूब जाता है तब ऐसे ही गोते खाता है………………सुन्दर भावाव्यक्ति।
ReplyDeletedil se dil tak
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही अच्छी रचना ।
ReplyDeleteBahut hi sundar rachna hai. Mann ke udgaar bahut hi sach se prastut kiye aapne. Padkar bahut achcha laga.
ReplyDeleteKavita meri jaan hai aur jab bhi dil ko choone wali kavita mil jaati hai, mann prasann ho jaata hai. Aisa hi aaj hua hai yeh kavita padkar.
Dhanyvaad.
बहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDelete