Saturday, January 7, 2012

तुम्हे प्यार-करते-करते कहीं मेरी उम्र न बीत जाए


   तुम्हे प्यार करते-करते कहीं मेरी उम्र न बीत जाए

                       (राम दरश मिश्र)

प्रस्तुतकर्ताः प्रेम सागर सिंह

रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त, 1924 को गोरखपुर जिले के डुमरी गांव में हुआ। उन्होंने एम.ए.,पीएच.डी. तक शिक्षा प्राप्त की।  संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग) के प्रोफेसर के पद से सेवा मुक्त। सर्जनात्मक रचनाओं के रूप में उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य रचना की। उनके प्रमुख सर्जनात्मक रचनाएँ निम्न हैं
काव्य-संग्रह पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियां, पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, मेरे प्रिय गीत, हंसी ओठ पर आंखें नम हैं (ग़ज़ल-संग्रह), जुलूस कहां जा रहा है ?,
 कविताः- प्रतिनिधि कविताएं, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में जब कभी, बाजार को निकले हैं लोग (ग़ज़ल-संग्रह), आम के पत्ते, तू ही बता ऐ जिंदगी (ग़ज़ल-संग्रह);
उपन्यास- पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, बीच का समय, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग (बीच का समय), बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार;
कहानी-संग्रह - खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, वसंत का एक दिन, इकसठ कहानियां, अपने लिए, मेरी प्रिय कहानियां, चर्चित कहानियां,श्रेष्ठ आंचलिक कहानियां, आज का दिन भी, फिर कब आएंगे ?, एक कहानी लगातार, विदूषक, दिन के साथ, 10 प्रतिनिधि कहानियां, मेरी तेरह कहानियां, विरासत;
ललित निबंध-संग्रह- कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख,
यात्रा-वर्णन-        तना हुआ इंद्रधनुष, भोर का सपना, पड़ोस की खुशबू;
आत्मकथा-         सहचर है समय, फुरसत के दिन,
संस्मरण-         स्मृतियों के छंद, अपने-अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी
चुनी हुई रचनाएं-  बूंद-बूंद नदी, दर्द की हँसी, नदी बहती है।

साथ ही मिश्र जी ने अभी तक ग्यारह पुस्तकों की समीक्षा भी की है।

रामदरश मिश्र जी की एक कविता

आज धरती पर झुका आकाश तो अच्छा लगा
सिर किये ऊँचा खड़ी है घास तो अच्छा लगा
आज फिर लौटा सलामत राम कोई अवध में
हो गया पूरा कड़ा बनवास तो अच्छा लगा
था पढ़ाया मांज कर बरतन घरों में रात-दिन
हो गया बुधिया का बेटा पास तो अच्छा लगा
लोग यों तो रोज़ ही आते रहे, आते रहे
आज लेकिन आप आये पास तो अच्छा लगा
क़त्ल, चोरी, रहज़नी व्यभिचार से दिन थे मुखर
चुप रहा कुछ आज का दिन ख़ास तो अच्छा लगा

ख़ून से लथपथ हवाएँ ख़ौफ-सी उड़ती रहीं
आँसुओं से नम मिली वातास तो अच्छा लगा
है नहीं कुछ और बस इंसान तो इंसान है
है जगा यह आपमें अहसास तो अच्छा लगा
हँसी हँसते हाट की इन मरमरी महलों के बीच
हँस रहा घर-सा कोई आवास तो अच्छा लगा
रात कितनी भी धनी हो सुबह आयेगी ज़रूर
लौट आया आपका विश्वास तो अच्छा लगा
आ गया हूँ बाद मुद्दत के शहर से गाँव में
आज देखा चँदनी का हास तो अच्छा लगा
दोस्तों की दाद तो मिलती ही रहती है सदा
आज दुश्मन ने कहाशाबाश तो अच्छा लगा
*************************************************************

No comments:

Post a Comment