Wednesday, August 29, 2012

लोरी शिशु के लिए मां की दुलार भरी मुस्कान की छुअन है


 लोरी शिशु के लिए मां की दुलार भरी मुस्कान की छुअन है


(लोरी माँ के अछोर आनंद का गीत गुंजार है जो जन्मस्थ शिशु से लेकर शिशु के बालपन तक उसके हृदय में अमृत घोलकर उसे मीठी नींद का सोमरस पिलाते रहता है। लोरी के इस शाश्वत स्वरूप का न आदि है न अंत। यह शाश्वत अमृतमय है।) - डॉ.उषा वर्मा


                 प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह

लोरी लोकसाहत्य की प्रमुख विधा है। यह लोकगीतों का ही प्रमुख अंग है, जिसमें लोक की सौंदर्य-चेतना, काल-चिंतन तथा जन-जीवन अभिव्यक्त हुआ है। जब शिशु केवल नाद को समझता है, सुर-माधुर्य को महसूस करता है, शब्दों और उसके अर्थ को नही तब मां उसे सुलाने का उपक्रम करते हुए जो दुलार भरी मुस्कान के छुअन के साथ स्नेहपूर्ण थपकी देती है और साथ ही उसके मुंह से ममतापूर्ण गीत सुर, ताल और लय में नि;सृत होता है, वही लोरी है। कभीकभी वह केवल गुनगुनाती है। सार्थक-निरर्थक शब्दों की वह लययुक्त ध्वनि भी लोरी है। इसका उद्देश्य है बालक को सुखद संगीत का श्रवण कराया जा सके जिससे वह निश्चिंत होकर सो सके। इससे बच्चे पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। वह मां की निकटता और स्पर्श का अनुभव करता है। लोरी बच्चे की भाषा की लय की पहचान कराती है। ध्वनियों का मेल सिखलाती है। बच्चों को कल्पनालोक में ले जाकर नए-नए सपने जगाती है। बालक के कोमल स्नायुओं पर सुखद प्रभाव डालती है।
जहां तक लोरियों के विषय की बात है इसका विषय कुछ भी हो सकता है। प्यार की सघनता में मां बच्चे को कुछ भी कह देती है। माँ की कल्पना का विस्तार अनंत है. उसी के अनुरूप विषय भी असीम है। शिशु को सुलाने में मानो नारी-चेतना-शक्ति केंद्रीभूत हो जाती है। इसका सृजन वात्सल्य के परिवेश में होता है। देश-विदेश कहीं की भी लोरी हो उसके विषय समान होते हैं। गाँव या शहर की हर माँ इसे अपने वात्सल्य से संपोषित करती है। लोरियों के अंतर्गत प्राकृतिक व परिवेश पशु-पक्षी-प्रेम भी व्यंजित होता है। पशु पक्षी बच्चों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र हैं। उनका नाम सुनते ही बालक चुप हो जाता है। गाँवों की लोरी में खेत खलिहान, जमींदारी-संस्कृति आदि का चित्रण भी होता है। विषय चाहे कोई भी लोरी का उद्देश्य होता है शिशु को गोद में थपकी देकर अथवा पालने में झुलाकर सुलाना। लोकजीवन की प्रत्येक क्रिया लोरी के लय में बंध कर बच्चे को निद्राभूत कर देती है। वात्सल्य में माँ की कल्पना बहुत लंबी उड़ान भरती है। कभी वह चाहती हैकब लाल बड़ा के होई हैं, कब बाबा कि बगिया जईहें/कब आम घविद ले अईहें, कब आजी के घरवा धरि है।
बिहार के ग्रामीण समाज की एक लोरी कुछ ऐसे ही भावों को बयाँ करती है जिसमें माँ के स्नेहसिक्त भावों में उसके सपने भी बुने हुए हैं - आईहो रे निंदिया, तू आईयों हो रे निंदिया/ सपना सलोने सजईहो री निंदिया/ बड़ा होके बाबू हमार राज करिहें/ हीरा मोती मूंगवा से दिन रात खेलिहें। इन विषयों पर सबसे अधिक लोरियां मानव और प्रकृति के रिश्ते पर आधारित हैं। लोक साहित्य चाहे किसी भी भाषा का हो वहां लोरियों के माध्यम से शिशुओं को बहलाने और सुलाने का प्रयास किया गया है। पशु पक्षियों के प्रति शिशु का सर्वाधिक कौतुहल का भाव रहता है। इस कौतुहल का लाभ उठाकर उसे चुप कराने के लिए लोरी गाई जाती है। जिसमें पशु पक्षियों का उल्लेख रहता है। कभी-कभी बड़ी देर तक जब सुलाने दुलराने और हलराने या डराने से बच्चा नही सोता है तो वह सशंकित हो जाती है और उसे इस बात का विश्वास होता है कि उसे किसी की नजर लगी है।
माताएँ सुख की एवं वात्सल्य की जिस अनुभूति से पुत्र को सुलाने का उपक्रम करती है उसी मन:स्थिति में पुत्री को भी तरह-तरह के विशेषण देकर सुलाती है। वैदिक और लौकिक विचारधारा पुत्र और पुत्री को समभाव से देखती है। वहाँ भिन्नता नही है। पुत्रहीनता की स्थिति में यदि पिता को गति या मुक्ति नही मिलती तो दूसरी ओर वह यह भी स्वीकार करती है कि कन्यादान के बिना पति की जंघा की शुद्धि नही होती। यह सूत्र निश्चय ही दोनों के अंतर को मिटाने के लिए पर्याप्त प्रमाण है। संगीत का सबसे पहला परिचय बच्चे को लोरी के माध्यम से ही होता है। लोरी में संगीत तत्व अनिवार्य है। माता के हृदय का उदगार एवं उसकी रागात्मक भावनाएं गेय शैली में व्यक्त होती हैं। यह बच्चों के मनोभावों को अभिव्यक्ति देता है और लोरी मां की हृदयगत अनुभूतियों का दर्पण है। बच्चों को लेकर जो वे सपने बुनती है वे सब लोरी के विषय बन जाते हैं। वह समय के पार पहुंच उसकी दुल्हन को लेकर भी सुखद कल्पनाओं में खो जाती है। इन भावों में कहीं भी कृत्रिमता विद्यमान नही होती। वह देश और समय के पार पहुंच जाती है। कभी-कभी तो लोरियों में अनेक निरर्थक शब्द भी होते हैं। बस उनकी गुनगुनाहट ही बच्चे को निद्रालोक तक ले जाती है।
लोरी की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर लोरी को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है लोरी उनींदे बालक के मन को भाने वाला वह शिशु गीत है या लय की गुनगुनाहट है जिसका ताल और सुर में बँधा संगीत उसे अपने सम्मोहन में बांधकर विश्राम देता है और धीरे-धीरे बालक निद्रालोक में पहुँच जाता है। लोरी के बोल वात्सल्यमयी माता के अंतस से स्वत: बह निकलते हैं।
 नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
              (www.premsarowar.blogspot.com)


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Sunday, August 26, 2012

अमृता प्रीतम


 ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है

अमृता प्रीतम

                      (प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह)


अपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है -और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी। मैं तो बस एक बच्ची ही थी जब मेरी  पहली किताब 1936 में छपी थी। उस किताब को बेहद पसंद करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर किया था। इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप डाक से मुझे एक साड़ी भेजी।
कुछ दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया। दस्तक सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है। मैं जोर से कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया! इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है।
मैं वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़ नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है। प्रस्तुत है उनकी एक कविता याद जो हमें उनके  नाभकीय भावों की प्रबलता से प्रभावित कर जाती है --
याद
आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….
आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….
साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….
तेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….

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Thursday, August 23, 2012

सती प्रथा



19वीं शताब्दी के हिंदू समाज की सबसे विषम कुरीति : सती प्रथा

 प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह

19वीं शताब्दी को भारतीय समाज का ऐसा संधिकाल माना जा सकता है जहां से भारतीय समाज एवं जीवन में नए परिवर्तनों की परंपरा प्रारंभ हुई। इस समय सामाजिक सुधारों के लिए, विशेषकर स्त्रियों की स्थिति से संबंधित अनेक कार्यक्रम अपने देश में अपनाए गए। इस समय स्त्रियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। यद्यपि धर्मशास्त्रों एवं अन्य ग्रंथों में हिंदू समाज में स्त्रियों की महिमा का गुणगान समय-समय पर किया गया लेकिन इस समय यह वर्ग सर्वाधिक उपेक्षित था। उनका स्वतंत्र अस्तित्व जो वैदिक युग में प्रचलित था, समाप्त हो चुका था। स्त्री संबंधी समाज में अनेक कुरीतियों का प्रवेश हुआ जिनमें कन्या बध, बाल विवाह, डाकन एवं सती प्रथा प्रमुख है।
सती प्रथा 19वीं शताब्दी के हिंदू समाज की सबसे विषम कुरीतियों में से एक थी। पती के दिवंगत हो जाने पर पत्नी का जीते जी पति के साथ जलकर मर जाना ही सती प्रथा के नाम से प्रचलित था।जो स्त्रियां इस प्रकार जलकर मर जाती थी उन्हे लोग सती अथवा देवी का सम्मान देते थे। सती के दो रूप थे एक सहगमन एवं अनुमरण। पति की मृत्यु पर पति के शव के साथ जल जाने को सहगमन कहा गया तथा जब पति की अन्यत्र मृत्यु हो जाती थी तब बाद में उसकी भष्म या पादुका लेकर पत्नी अग्नि में प्रवेश कर अपने प्राण त्यागती, उसे अनुमरण की संज्ञा दी गई।
पूर्व मध्यकाल के आगमन तक इस प्रथा ने समाज में अपनी जड़ें अत्यंत दृढ़ कर ली। य़थार्थ में सती प्रथा इस युग में वैधव्य दु:ख से त्राण पाने का साधन बन चुकी थी। नियोग प्रथा का समाज में विलोप होने तथा पातिव्रत्य की उदात्त कल्पना के कारण विधवाओं के लिए सती जैसी क्रूर प्रथा का जन्म हुआ। प्रारंभ में  तो इस प्रथा के मूल में ऐसा प्रतीत होता है कि जब अत्यंत दुखी नर-नारी असह्य पीड़ा, ग्लानि या किसी विषम समस्या से अविलंब त्राण पाने के लिए आग में जलकर या पानी में डूबकर या पर्वत से गिरकर प्राण त्याग देते थे। आमतौर पर सती होने वाली स्त्री अपने पति की मृत्यु के बाद उसके शव के साथ सती होती थी लेकिन कभी-कभी अपने पति के बचने की आशा न देखकर वह अपनी पति की मृत्यु से पूर्व ही सती हो जाती थी। हर्षचरित से विदित होता है कि जब प्रभाकरवर्द्धन के जीवन की आशा समाप्त हो गई तो यशोमति निराश होकर अग्नि में कूदकर सती हो गई। पति की मृत्यु पर सती होने की प्रथा तो प्रचुर थी लेकिन कई बार पुत्र की असामयिक मृत्यु के कारण दुखित माताएं अपने पुत्र के शव को गोद में रखकर सती हो जाती थीं।
मुस्लिम आक्रमण के प्रारंभ तथा उनके राज्य स्थापना के साथ ही सती एवं जौहर की घटनाओं में जबरदस्त वृद्धि हुई। इस समय हिंदू धर्म में जीवन शक्ति का पर्याप्त ह्वास हुआ एवं समाज के लोग प्राणपण से इस चेष्टा में लग गए कि कहीं वे विधर्मी न बन जाए। संभवत: इस प्रथा को कायम रखने के लिए समाज ने इसे प्रोत्साहित किया।
राजपूतों की पराजय के बाद राजपूत वीरांगनाओं द्वारा जौहर व्रत धारण करना उस मत की पुष्टि करता है। मुस्लिम शासनकाल में स्त्री को केवल भोग की वस्तु माना जाता था। अत: उस.युग में स्त्री का भविष्य सुरक्षित नही था। उस समय उसकी तीव्र इच्छा रहती थी कि स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दे ताकि विधर्मी उसके सतीत्व से छेड़छाड़ न कर सकें। कालांतर में समाज में यह धारणा भी प्रचलित हुई कि विधवा होने पर स्त्रियां सच्चरित्र नही रह पाएंगी। अत: उनके लिए तथा कुल की प्रतिष्ठा के लिए भी यही हितकर होगा कि वे सती हो जाएं।  मुस्लिम काल में किसी शासक द्वारा इसे पूरी तरह कानूनी तौर पर अवैध घोषित नही किया गया। यद्यपि यदा कदा इसे रोकने के लिए कोशिश किया गया।
इस प्रथा का सबसे महत्वपूर्ण कारण मध्य युगीन मुस्लिम आक्राता थे। ब्रिटिश संरक्षण के बाद राजपूत राज्यों के पारस्परिक युद्धों एवं बाह्य आक्रमणों का अंत हो गया। शासकों एवं सामंतों के मध्य चलने वाले संघर्ष भी कम हुए। कतिपय शास्त्रकारों, भाष्यकारों एवं लेखकों द्वारा इस कृत्य को पाप एवं आत्महत्या की संज्ञा दी गई। अत:19वीं शताब्दी के प्रारंभ में राजस्थान में इस प्रथा की व्यापकता कम होती जा रही थी। 1829 में लार्ड विलियम बेंटिक तथा राजा राम मोहन राय के स्तुत्य प्रयास से इस प्रथा को अवैध घोषित किया गया। आगे चलकर सती की घटनाओं को रोकने के लिए नए सिरे से आदेश पारित किए गए। सती में सहयोग करने वाले परिवारों, संबंधित राज्याधिकारों एवं जगीरदारों को दंडित करने एवं अंग्रेज अधिकारियों द्वारा संबंधित राज्य के नरेश से पदवी छीनने या उसके समारोह का बहिष्कार करने की नीति अपनाई गई। नए आदेशों एवं नियमों के बावजूद 19वीं शताब्दी के अंत तक कई राज्यों में सती की छिटपुट घटनाएं घटती रहीं।
वास्तव में सती प्रथा का उन्मूलन हिंदू समाज के सुधार की दिशा में मानवीय तथा अत्यंत महत्वपूर्ण कदम रहा। शताब्दियों से स्त्रियों के साथ जो समाज में पाशविक अत्याचार किया जाता रहा अब उससे से स्त्रियों को मुक्ति मिल गई। साथ ही कट्टरपंथी समाज के नेताओं को भी चुनौती मिली जिससे हिंदू समाज में अनेक सुधार कार्यक्रम अपनाए जा सके।

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Monday, August 20, 2012

शादी की उम्र एवं न्याय का प्रश्न


     शादी की उम्र की प्रासांगिकता एवं न्याय का प्रश्न


    प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह


विवाह की उम्र को लेकर एक लंबे अरसे से विवाद चलता  आ रहा है। इसे बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीकों से परिभाषित भी किया है। फिर भी इस समाज ने उसे अपने तरीके से अपनाया एवं मन चाहा काम किया। आज इस युग में प्यार का नशा जिस रूप से अपना रंग दिखा रहा है उस पर विचार करना हम सबका परम कर्तव्य है। एक नजर में प्रेम एवं दूसरी मुलाकात में ना समझ प्रेमी तमाम सामाजिक, पारिवारिक मान्यताओं एवं उम्र को ताक पर रख कर स्वयं बीच का रास्ता निकालने लगे हैं, शायद उनकी मान्यता प्रबल होती जा रही हो कि तुम्हे प्यार करते-करते कहीं मेरी उम्र न बीत जाए।लेकिन माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि पंद्रह साल की मुसलमान लड़की की शादी की जा सकती है और यह शादी कानूनन मान्य होगी । इसका सीधा अर्थ यह है कि अदालत इस स्वीकार करती है कि अगर पंद्रह साल की लड़की हिंदू है तो उसकी शादी अवैध है, पंद्रह साल की लड़की मुसलमान है तो उसकी शादी वैध है। हमारी अदालतें जिस संविधान को आधार मान कर चलती हैं वह हमें बताता है कि इस देश के सारे नागरिक एक ही कानून से नापे और तौले जाते हैं। दूसरी तरफ  हमारा लोकतंत्र हमें सिखाता है कि हमारे विभिन्न धर्मावलंबी नागरिकों में परंपरा या मान्यता या धार्मिक विश्वास के कारण अगर कोई ऐसा चलन है जो उन्हे समान पलड़े पर तौलने से रोकता है तो उसे रोकनेबदलने, नया बनाने की कोशिश लगातार करनी होगी और ऐसी कोशिशों में कानून और न्यायालय समाज के मददगार होंगे, न कि उसके रास्ते में बाधा पैदा करेंगे। आज यह सवाल मुस्लिम समाज से जुड़ा है तो यह बड़ा आसान हो जाता है कि इसे उनके निजी मामले की तरह देखा और समझा जाए। राजनीतिकों के लिए मुस्लिम समाज से जुड़ा हर सवाल वोटों की गिनती का सवाल बन जाता है। इस सवाल पर किसी की कोई खास प्रतिक्रिया नही आई है। लेकिन पंद्रह साल की मुस्लिम लड़की की शादी की वैधता का सवाल कतई मुस्लिम पर्सनल लॉ का मामला नही है। हमें अच्छी तरह मालूम है कि धार्मिक आधार पर निजी कानूनों की खाईयां हैं हमारे यहां। कई कारणों से हमने इसे स्वीकार भी कर रखा है। हमें यह भी मालूम है कि दूसरे संप्रदायों में प्रचलित निजी कानूनों का विरोध, अपनी सांप्रदायिक राजनीति के लिए करने वाली ताकतें भी हैं हमारे यहां। निजी कानूनों के नाम पर बनी इन खाईयों को पाटने के लिए हम एक लंबी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। यह लड़ाई दो स्तरों पर है- एक यह कि धार्मिक आधारों पर चल रहे इन निजी कानूनों की खाई पाटी जाए और दूसरी यह है कि इसकी पूरी सावधानी बरती जाए ताकि सांप्रदायिक ताकतें परिवर्तन की इस कोशिश का फायदा न ऊठा पाएं एवं इस खाई को हमें सामाजिक स्तर पर भी  पाटना है और कानूनी स्तर पर भी ।
ऑल इंडिया मुसलिम परसनल लॉ बोर्ड ने दिल्ली अदालत के इस फैसले का सबसे आगे बढ़ कर स्वागत किया है। सिर्फ मुसलिम समाज के पास नही सभी धर्मावलंबियों के पास ऐसी संस्थाएं हैं जो धर्म का नाम लेकर ऐसी जकड़बंदी बनाए रखना चाहती हैं ताकि समाज उनकी मुट्ठी से न छूटे। क्या अदालतें, विधायिका, नौकरशाही आदि भी ऐसी ताकतों के साथ हो जाएंगी। हम अपनी ही पंद्रह साल की लड़की को आखों के सामने करें एव उसकी गोद में एक बच्चा की कल्पना करें, तो हमें शर्म आएगी। इस उम्र की बच्ची तो खुद बच्ची है। न मन से न तन से वह इसके लिए तैयार होती है कि न एक नए जीवन को रचे। यह उसके साझ ज्यादती है, उसके धर्म और परंपरा का बलात्कार है।
अगर मुसलिम समाज की आधी आबादी पंद्रह साल की उम्र में परिवार बनाने के बोझ में दबा दी जाती है तो उसके यहां पढ़ाई, नौकरी एवं व्यवसाय  की गति आएगी कैसे और भारतीय समाज का यह लंगड़ापन दूर कैसे होगा ! पंद्रह साल की उम्र में परिवार बनाने, मां बनने के बोझ तले जो लड़की दबा दी जाएगी क्या वह अपनी पढ़ाई कर सकेगी ! क्या वह अपने व्यक्तित्व-विकास के दूसरे क्षितिज खोज सकेगी ! वह खोजेगी क्या, जिसे हमने ही परंपरा और धर्म के बियाबान में धकेल दिया है। इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले का संज्ञान लेने के लिए विभिन्न धर्मों के लोगों द्वारा प्रयास किए गए हैं ताकि शादी की उम्र मे कुछ बदलाव हो। मेरा विचार है कि इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस आवश्यक है। सुधी बंधुओं से अपील है कि इस विषय पर अपना पक्ष रखें। धन्यवाद।

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Sunday, August 19, 2012

रामधारी सिंह दिनकर


हर देश की लड़खड़ाती राजनीति का संबल साहित्य है- रामधारी सिंह दिनकर


    प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह


कहावत है कोई भी व्यक्ति कितना ही पाषाण हृदय का क्यों न हो उसके भी दिल में एक कोमल भावुकता धड़कती है। ऐसे ही कोमल भावों के धनी रामधारी सिंह दिनकर एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री पं..जवाहरलाल नेहरू का कवि सम्मेलनों में विशेष अभिरूची रहती थी। एक बार पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों से कवि सम्मेलन शुरू हुआ था। उस समय राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जैसे महान रचनाकार इस सम्मेलन में शिरकत करते थे । एक बार जब कवि समेम्लन आयोजित किया गया और काव्यपाठ के बाद जब समापन की बेला आई, उस समय पं. नेहरू और दिनकर जी अपने साथियों के साथ वापस लौट रहे थे ।
लौटते समय दिनकर जी अपने मित्रों के साथ आगे थे और पं. नेहरू उनके पीछे। सीढ़ियों से उतरते वक्त अचानक नेहरू जी का पैर फिसला और वे गिरते, इससे पहले ही उन्होंने दिनकर जी के कंधे पर हाथ रख दिया। आभार व्यक्त करते हुए पं. नेहरू जी ने कहा- दिनकर जी शुक्रिया, आज आपके कारण ही मैं हादसे का शिकार होते - होते बच गया।
मैत्री के भाव में दिनकर ने मुस्कराते हुए जवाब दिया- कोई बात नही पंडित जी, जब-जब किसी देश की राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे सहारा देता है। साहित्य का धर्म है कि वह समाज को सही दिशा की ओर उन्मुख करे। गौरतलब है कि रूस के साम्यवादी आंदोलन से लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तक में साहित्यकारों ने समाज को जाग्रत और आंदोलित करने में बड़ी भूमिका निभाई। यह भी की कई पुस्तकें इसलिए तत्कालीन तानाशाह सरकारों ने जब्त कर लीं क्योंकि उनकी सामग्री न गलत दिशा में चली राजनीति को ठीक करने वाली थी, अपितु उसके माध्यम से समाज को भी सही दिशा की ओर जाने के संकेत दिए गए थे। यह सुनते ही पंडित जी मुस्करा दिए और दिनकर जी का हाथ पकड़ कर साथ-साथ चलने लगे।

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Friday, August 17, 2012

राही मासूम रजा


राही मासूम रजा की कविता  मैं एक फेरी बालासे साभार उद्धरित -

  (राही मासूम रजा)

प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।

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Monday, August 13, 2012

संबंधों की गहराई में जीने वाले कवि; केदारनाथ सिंह


संबंधों की गहराई में जीने वाले कवि : केदारनाथ सिंह


              
           केदारनाथ सिंह

      (प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह)

हिंदी के वरिष्ठ और विशिष्ट कवि केदारनाथ सिंह पिछले तीन दशकों से जिस तरह अपनी मां लालझरी देवी की देखभाल किए थे, वैसी मातृ-भक्ति कम देखने को मिलती है। आज समाज नामक विराट घर में जब मां के लिए अलग कमरा नही दिखता, उसके लिए बरामदे या बालकानी का कोना ही जब घर बना दिया गया हो, वैसै समय केदार जी जैसे पुत्र का होना बेहद महत्वपूर्ण है। केदार जी जब पडरौना में थे तो मां को वहां ले गए थे। पडरौना के परिवेश में मां को कोई परेशानी नही हुई किंतु केदार जी जब दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में प्रोफेसर बनकर गए और मां को दिल्ली ले गए तो उनके मन में बहुत उत्साह था कि मां दिल्ली देखेंगी। लेकिन वर्षों मां की चारपाई दिल्ली बनी रही और खिड़की ही दुनिया, जिस पर वे सबसे ज्यादा भरोसा करती थीं। केदार जी की मां लालझरी देवी के लिए अनजान कोई नही था। मिल जाने पर उड़िया. बंगाली और मद्रासी से भी उसी तरह अपनी ठेठ पुरबिया भोजपुरी में बात करती और ताजुब्ब कि लोग उनकी बात समझ भी लेते। भाषा सेतु बंधन का ऐसा दूसरा कोई उदाहरण नही मिल सकता।
दिल्ली रहते हुए बीच-बीच में मां गांव जाने का जिद करती तो विवश होकर केदार जी कुछ दिनों के लिए गांव छोड़ आते। उनकी मां को गांव का परिवेश इसलिए अच्छा लगता क्योंकि वहां अपने जाने पहचाने चेहरों और बोली बानी के बीच रहने का सुख मिलता। इस परिचित परिवेश में वे कुछ ही दिन रह पातीं कि केदारनाथ जी फिर गांव आते और उन्हे ले कर दिल्ली चले जाते। केदार जी की मां जब वयोवृद्ध हो गयी तो गांव ले जाना कठिन हो गया। बीच का रास्ता निकालते हुए केदार जी उन्हे कोलकाता अपने बहन रमा के पास ले आए। कोलकाता आकर वे दिल्ली से बेहतर परिवेश महसूस करने लगी। यहां सभी भोजपुरी में ही बातें करते थे। बी गार्डेन. शिवपुर, शालीमार में अधिकतर लोग भोजपुरी भाषी हैं। इसे छोटा बलिया(य़ू.पी) भी कहा जाता है। पिछले कुछ वर्षों से जब से मां कोलकाता आकर रहने लगी, तब से कोलकाता केदार जी का दूसरा घर बन गया। वे प्राय: हर माह कोलकाता आते और मां की देखभाल करते। केदार जी और उनकी बहन रमा सिंह मां की एक एक बात का ध्यान रखते।
अंत में 102 वर्ष की उम्र में उनकी मां गुजर गई । इसके बाद केदार जी का कोलकाता आना छूट गया। केदार जी ने जिस तरह आजीवन मां की सेवा की,वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज समाज में एक उम्र की आंच में पकती हुई मां की जगह अनिश्चित है। यह हमारे समय की त्रासद विडंवना है कि मां और उसकी संतान अबोलेपन की हद तक अलग-थलग जा पड़े हैं। केदार जी जैसे पुत्र की मातृ-भक्ति इस विडंबनापूर्ण समय में न सिर्फ अनुकरणीय है बल्कि उससे यह भी पता चलता है कि केदार जी संबंधों को कितने गहराई में जीते हैं। साहित्य के इस पुरोधा की तरह हमें भी अपनी मां का ख्याल रखना चाहिए।
मां तुझे सलाम।
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Thursday, August 9, 2012

छाते का सफरनामा



    छाते का सफरनामा

                                        

                  (प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह)


हम अपने व्यक्तिगत जीवन में जब किसी का साथ पकड़ते हैं तो मन में एक ही भाव ऊभर कर सामने आता है कि यह साथ कभी नही छोड़ेंगे लेकिन हम अवसर पाते ही इन सारी बातों को भूल जाते हैं एवं स्वार्थी और अवसरवादी बन जाते हैं। यह बात जिगर है कि फिर जब अवसर आता है तो उसके सामीप्य की घनी छांव में कुछ दिन बिताने के लिए कितने विकल और संत्रस्त होने लगते हैं। यह भाव हमारे अवसरवादिता का द्योतक नही तो और क्या है। मानवीय सरोकारों के साथ इस कथ्य को जोड़कर देखा जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हमारी मानसिकता की मंजिल उस पड़ाव पर ठहरती नजर नही आती जहां उसे स्थिर दिखना चाहिए। ठीक इसी प्रकार की भावनाओं के वशीभूत होकर हम छाता के साथ भी वही व्यवहार करते हैं। वरसात और गर्मी में हम उसे अपना संगी बना लेते हैं एवं दोनों का असर जब कम होने लगता है तो उसे घर के किसी ऐसे उपेक्षित जगह पर रख देते हैं जहां वह अपने भाग्य को कोसते रहता है। इस घोर निराशा एवं अवसाद की स्थिति में भी वह शायद यह सोचकर आशान्वित एवं प्रफुल्लित रहता है कि समय आने पर मेरी अहमियत अपना रंग दिखाएगी। आईए,एक नजर डालते हैं, इस निर्जीव वस्तु की महता एव सफरनामे पर जो हम जैसे सजीव प्राणी के हृदय में भी थोड़ी सी जगह बनाए रहता है।
तेज धूप और वर्षा से बचने के लिए छाते का प्रयोग किसी न किसी रूप में प्राचीन काल से ही होता रहा है। शुरू में छाते पर उच्च वर्ग के लोगों का ही एकाधिकार था। जन साधारण को छाता लगाने का अधिकार नही था। धीरे-धीरे जन साधारण को अधिकार प्राप्त हुआ कि वे अपनी सुविधा अनुसार छाते का उपयोग कर सकें। इसके लिए इंग्लैंड के जॉन्स होन्वे की कोशिश की विशेष भूमिका रही। इंग्लैंड में जब जॉन्स होन्वे के प्रयत्नों से लोगों ने छाते का प्रयोग शुरू किया तो तो वहां बग्घी चालकों ने हड़ताल कर दी। बग्गी वालों का कहना था कि पहले बरसात होने पर सड़क चलते लोग फटाफट बग्घियों मं बैठ जाते थे। लेकिन अब लोग अपने छाते खोल लेते हैं और बग्गियों में बैठने की जरूरत नही समझते। इससे से बग्घी वालों की आमदनी पर छातों के कारण बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा। इस हड़ताल के बावजूद छातों का उपयोग रूका नही।
छाते के साथ कुछ रोचक घटनाएं भी जुड़ी हैं। पुराने जमाने में सबसे बड़ा छाता बर्मा के राजाओं का होता था। वहां का बादशाह एक के ऊपर दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा, इस प्रकार कुल सात छाते लगाता था, जिससे इस छाते को सबसे ऊंचा छाता कहा जा सकता है। यूरोप में छाता, पहले महिलाओं में अधिक लोकप्रिय था। पुरूषों ने इसे बाद में स्वीकार किया। पुराने जमाने में सबसे बड़े राजा, महाराजाओं और धर्माधिकारियों के ऊपर छाता लगाकर चलने का काम गुलाम किया करते थे, लेकिन यह कार्य वे इतने सावधानी से करते थे कि उस छाते की छाया स्वयं उसके शरीर पर न पड़े। ऐसा होने पर उन्हे दंड मिलता था। चीन में स्त्रियां छाते के समान बड़े-बड़े हैट पहनती थीं। सत्रहवीं शताब्दी तक विश्व के अधिकतम देशों में छातों का प्रचलन शुरू हो गया। धीरे-धीरे इसके प्रयोग में विविधता भी आई।सरकस और जादू के तमाशों में भी छाते की उपयोगिता बढ़ी। चौराहों पर ड्यूटी देने वाले सिपाही के लिए भी छाता उपयोगी समझा गया और उसके लिए ऐसे छाते की विशेष व्यवस्था की गई,जो उसकी वर्दी के साथ लगा रहे और उसके हाथ खुले रहें। छातों की किस्मों में भी क्रातिकारी परिवर्तन हुए। सीधे छाते, मुड़ने वाले छाते, महिलाओं के छाते, बच्चों के छाते, पारदर्शक छाते और वातानुकूलित छाते।
भारत में छातe बनाने का व्यवसाय 1860 से शुरू हुआ। लेकिन उस समय इस व्यवसाय से मुख्य कार्य केवल आयातित सामग्री को जोड़ने का होता था। छाते का काला कपड़ा इंग्लैंड से आता था और उसकी डंडी और व तीलिया जर्मनी और इटली से मंगवाई जाती थी। उन दिनों आम जनता में बंवू छाते भी काफी लोकप्रिय थे। इन छातों को बनाने के लिए बांस के एक डंडे में बांस की पतली खपचियां लगाकर उन पर कपड़ा या तालपत्र लगा दिए जाते थे ।बाद में छाते का सारा समान धीरे-धीरे भारत में ही बनाया जाने लगा। 1902 में मुंबई में पहला कारखाना स्थापित हुआ जो धीरे-धीरे विकसित होता चला गया। छातों की अनेक किस्में और डिजाईन बने, जिससे इनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। आज हमारे यहां लगभग एक हजार कारखानें में छाते बनाए जाते हैं, जो प्रतिवर्ष लगभग तीन करोड़ छाते बनाते हैं। स्वदेश में उपयोग के अतिरिक्त अपने इन छातों का हम बड़े पैमाने पर निर्यात भी करते हैं। छातों का अधिकांश निर्यात अरब देशों में होता है।

नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
            
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Sunday, August 5, 2012

नई यादें : पुराने परिप्रेक्ष्य


नई यादें एवं पुराने परिप्रेक्ष्य

           

(हरिवंश राय बच्चन)

यदि मैं सच कहता तो जग मुझे साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा।
                  
                     प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह

हिंदी के इस आधुनिक गीतकार क यह पंक्तियाँ जैसे ही जेहन में उतरती हैं, कविवर डॉ. हरिवंशराय बच्चन का व्यक्तित्व कृतित्व साकार हो जाता है। बच्चन जी का साहित्य पढ़ने से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। काव्य रचनाओं के साथ-साथ उनके जिस साहित्यिक रूप ने इस उक्ति को प्रमाणित किया  वह है उनकी आत्मकथाएं-नीड़ का निर्माण फिर,बसेरे से दूर”“क्या भूलूं क्या याद करूएवं दसद्वार से सोपान तक
इतिहास में शायद ही किसी रचनाकार की आत्मकथा में अभिव्यक्ति का ऐसा मुखर रूप दृष्टिगोचर होता है। सीधे सरल शब्दों को कविता के पात्र में डालकर साहित्य रसिकों को 'काव्य रस' चखाने वाले हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन के निधन के साथ ही हिंदी कविता का एक सूर्य सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। हिंदी कविता और प्रखर छायावाद और आधुनिक प्रगतिवाद के प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले डॉ. बच्चन ने लंबी बीमारी के बाद 96 वर्ष की अवस्था में अपने जुहू स्थित आवास 'प्रतीक्षा' में अंतिम साँस ली थी। उनके निधन के साथ ही करीब पाँच दशक तक बही कविता की एक अलग धारा भले ही रुक गई हो, लेकिन वह अपनी रचनाओं के माध्यम से सदा अमर रहेंगे।
जीवन की आपा-धापी के बीच युगीन परिस्थितियों का ताना-बाना उसी रूप में प्रकट करना, यह किसी सच्चे ईमानदार रचनाकार का ही कर्म हो सकता है। 
'जीवन की आपा-धापी में कब वक्त मिला, कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं , जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला ... हर एक लगा है अपनी दे-ले में।' और यही 'दे-ले' आपको क्या भूलूँ क्या याद करूँ से लेकर नीड़ का फिर-फिर निर्माण करती हुए बसेरे से दूर ले जाकर दश-द्वारों वाले सोपान पर ठहरती है। यह आत्मकथा किसी एक व्यक्ति की निजी गाथा नहीं, अपितु युगीन तत्कालीन परिस्थितियों में जकड़े, एक भावुक कर्मठ व्यक्ति और जीवन के कोमल-कठोर, गोचर-अगोचर, लौकिक-अलौकिक पक्षों को जीवन्त करता महाकाव्य है। अपनी इस यात्रा में आपने कीट्स से लेकर कबीर तक के मध्य साहित्य को मापा, वहीं अपने जीवन के मार्मक पक्षों को उजागर किया। 
डॉ. हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को प्रयाग के पास अमोढ़ गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सरकारी पाठशाला, कायस्थ पाठशाला और बाद की पढ़ाई गवर्नमेंट कॉलेज इलाहाबाद और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई थी।
वे 1941 से 52 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे। उन्होंने 1952 से 54 तक इंग्लैंड में रह कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। शायद कम ही लोगों को पता होगा कि हिंदी के इस विद्वान ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डब्ल्यू बी येट्स”(W.B.Yeats) के काम पर शोध कर पी.एच.डी की डिग्री प्राप्त कीकैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद उन्होंने हिंदी को भारतीय जन की आत्मा की भाषा मानते हुए उसी में साहित्य सृजन का फैसला किया उन्होंने कुछ माह तक आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र में काम किया। वह 16 वर्ष तक दिल्ली में रहे और बाद में दस वर्ष तक विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के पद पर रहे। हिंदी के इस आधुनिक गीतकार को  छह वर्ष के लिए राज्य सभा के सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया था। वर्ष 1972 से 82 तक वह अपने दोनों पुत्रों अमिताभ और अजिताभ के पास दिल्ली और मुंबई में रहते थे। बाद में वह दिल्ली चले गए और गुलमोहर पार्क में 'सोपान'  में रहने लगे। वे तीस के दशक से 1983 तक हिंदी काव्य और साहित्य की सेवा में लगे रहे।च्चन द्वारा 1935 में लिखी गई 'मधुशाला' हिंदी काव्य की कालजयी रचना मानी जाती है। आम लोगों के समझ में आ सकने वाली मधुशाला को आज भी गुनगुनाया जाता है। जब खुद डॉ. बच्चन इसे गाकर सुनाते तो वे क्षण अद्भुत होते थे। प्रस्तुत है उनकी एक कविता- रात, आधी खींच कर मेरी हथेली  एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,
मैं लगा दूँ आग इस संसार में है 
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने 
के लिए था कर दिया तैयार तुमने! 
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
और मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर 
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। 
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
 क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो 
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने। 
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष  सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
            
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