Tuesday, January 25, 2011

आपको यह बताना चाहूंगा कि मैं भी भारतीय वायु सेना से Junior Warrant Officer के पोस्ट से रिटायर्ड होकर वर्तमान मे आयुध निर्माणी बोर्ड, कोलकाता, भारत सरकार, रक्षा मंत्रालय के राजभाषा विभाग में हिंदी अनुवादक के पद पर कार्यरत हूँ। एक सैनिक होने के नाते भी मेरा मन बरबस ही उनसे जुड़ गया है क्योंकि साहित्य जीवन में पदार्पण करने के पूर्व अज्ञेय जी भी एक सैनिक ही थे। अगले पोस्ट में मैं उनकी कविता “कितनी नावों में कितनी बार” प्रस्तुत करूंगा।आप इसे अवश्य ही पढ़िएगा और अनुभव कीजिएगा कि उन्होंने कितनी अंतहीन सच्चाईयों का डटकर सामना किया है। यदि उनके संबंध में आप भी श्रद्धा रखते हो तो अपने COMMENTS के माध्यम से विनस्र श्रद्धांजलि अर्पित करें, मेरा मन असीम आनंद से पुलकित हो उठेगा और हम सब के हृदय से निकला उच्छवास ही सही संदर्भों में उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि होगी। आपके सुझाव एवं प्रतिक्रिया की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी। एक टिप्पणी देकर उस दिवंगत आत्मा को श्रद्धा-सुमन अर्पित करें। धन्यवाद।
कलगी बाजरे की

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।

अगर मैं तुम को ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,
टटकी कली चम्पे की,वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही :ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।

कभी बासन अधिक घिसने से मुल्लमा छूट जाता हैं।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के – तुम हो, निकट हो, इसी जादू के -
निजी किसी सहज,गहरे बोध से,किस प्यार से मैं कह रहा हूँ –
अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की ?

आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का-ऐश्वर्य का -औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी अकेली बाजरे की ।

और सचमुच, इन्हे जब-जब देखता हूँ
यह खुला विरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।

शब्द जादू हैं -
मगर क्या यह समर्पण कुछ नही है !

Sunday, January 23, 2011

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन “अज्ञेय” के जयंती पर उनको याद करने के बहाने - एक समर्पण।
“बहुत शौक से सुन रहा था जमाना,
और तुम सो गए दाँसता कहते-कहते।।


उनकी निम्नलिखित कविता को पढ़िए और अपनी टिप्प्णी देकर श्रद्धा-सुमन अर्पित कीजिए।

फूल की स्मरण-प्रतिमा

यह देने का अहंकार
छोड़ो।
कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो:
‘मधुर,ये देखो
फूल। इसे तोड़ो:
फिर हाथ से गिर जाने दो:
हवा पर तिर जाने दो-
(हुआ करे सुनहली) धूल।‘

फूल की स्मरण-प्रतिमा ही बचती है।
तुम नही।न तुम्हारा दान।

Friday, January 21, 2011

समय़ का पालन

राधामोहन सुप्रसिद्ध पंडित थे। उस दिन शाम के समस्तीपुर के जमींदार की अध्यक्षता में उनका सम्मान संपन्न होने वाला था।उनका इरादा था कि उस अवसर पर एक संदेशात्मक कविता सुनाऊँ। वे इसी विषय को लेकर तीव्र रूप से सोचने लगे। ‘सुर्योदय-अस्तमन, दिन- रात, पूर्णिमा, अमावास, गीष्म, पावस, सबके सब निश्चित समय पर आते है। प्रकृति का हर अणु समय का पालन करता हैं।मनुष्य़ को अन्य जंतुओं से अलग करता है,अनुशासन। अनुशासन का प्रथम और अंतिम चरण है समय का पालन। प्रगति चाहने वाले हर व्यक्ति का कर्तव्य समय का पालन।उन्होने सोचा कि यह संदेश आज के वातवरण के अनुकुल रहेगा,क्योंकि मंत्री,नेता से लेकर कार्यकर्ता तक सभी अपनी अपनी ड्यूटी पर विलंब से पहुँचते हैं और समय का मूल्य नही समझते ।इसलिए इस अर्थ की कविता रचने के लिए वे दीर्घ सोच में पड़ गए।
उस दिन दोपहर को उन्होने जमींदार के यहां स्वादिष्ट भोजन किया,जिसकी वजह से उन्हे थोड़ी देर से निकलना पड़ा।थोड़ी दूर जाने के बाद घोड़ागाड़ी की गति बढ़ गयी। वे उस वेग को देखकर जरा घबरा गए और उन्होंने गाड़ीवाले से कहा कि वह गाड़ी का वेग कम करे।पहले ही देरी हो चुकी है।और अभी और दूर जाना है-गाड़ीवान ने कहा।सभा में पहुचने में देर होगी, इसलिए वहां दस साल पहले ही पहुंचना उचित भी तो नही है-पंडित ने कहा।
इस पर गाड़ीचालक हँस पड़ा और गाड़ी की गति धीमी कर दी।

Sunday, January 16, 2011

लघु कथा
एक़ महल के द्वार पर भीड़ लगी थी।किसी फकीर ने राजा से भीख मांगी थी।राजा ने उससे कहा था जो भी चाहते हो मांग लो। वह राजा जो भी सुबह सबसे पहले उससे भीख मांगता था वह उसे इच्छित वस्तु देता था। उस दिन वह भिखारी सबसे पहले राजा के महल पहंचा था। फकीर ने राजा के आगे अपना छोटा सा पात्र बढ़ाया और बोला इसे सोने की मुद्राओं से भर दो।राजा ने उसके पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली तो पता चला कि वह पात्र जादुई है। जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गयी वह उतना अधिक खाली होता गया। फकीर बोला नही भर सके तो वैसा बोल दे मैं खाली पात्र लेकर चला जाउंगा। ज्यादा से ज्यादा लोग यही कहेंगे कि राजा अपना वचन पूरा न कर सका। राजा ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया लेकिन खाली पात्र खाली ही था। उसके पास जो कुछ भी था, सब उस पात्र में डाल दिया गया पर वह पात्र न भरा। तब राजा ने कहा भिक्षु तुम्हारा पात्र साधारण नही है। इसे भरना मेरे बस की बात नही है। क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस पात्र का रहस्य क्या है !कोई विशेष रहस्य नही है,यह इंसान के दृदय से बना है। क्या आपको पता नही है कि इंसान का दृदय कभी नही भरता धन से, पद से,ज्ञान से,किसी से भी नही,किसी से भी भरो वह खाली ही रहेगा। क्योंकि वह इन चीजों से भरने के लिए बना ही नही है।इस सत्य को न जानने के कारण ही इंसान जितना पाता है उतना ही दरिद्र होता जाता है। इंसान का हृदय कुछ भी पाकर शांत नही होता क्यों ! /क्योंकि हृदय परमात्मा को पाने के लिए बना है।

Friday, January 14, 2011

मै यह कविता शमशेर बहादुर सिंह ( जन्म तिथि-03जनवरी,1911) के जन्म शतवार्षिकी पर प्रस्तुत करने वाला था किंतु कुछ अपरिहार्य कारणों से इसे पोस्ट न कर सका। आज इस कविता को उन्हे याद करने के बहाने पोस्ट कर रहा हू, इस विश्वास के साथ कि शायद मेरा यह छोटा सा प्रयास आप सबके दिल में उनके तथा मेरे प्रति थोडी सी जगह पा जाए।
प्रेम सागर सिंह, कोलकाता

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उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता उनकी शिल्प संरचना हैं। चित्रकला के प्रति लगाव के कारण इनकी कविताओं में चित्रात्मकता का समावेश अधिक हुआ हैं। वस्तुत: वे शब्द शिल्पी हैं, जो शब्दों के माध्यम से चित्र-रचना करते हैं। इस विशेषता के कारण इनकी कविताओं में रूपवादी रूझान अधिक गहरा हो गया है। इससे लगता है कि वे क्या कहना चाहते हैं,इसे गौड़ मानकर उसे कैसे कहा जाए इसी को अधिक महत्व देते प्रतीत होते हैं। इनकी कविताओं का मूल भाव ‘प्रेम’ है-मानव प्रेम, नारी प्रेम,प्रकृति प्रेम आदि अनेक क्षेत्रों में इसी प्रेम का व्याप्ति है।

जब कभी भी उनकी अभिव्यक्ति काव्य के रूप मे वर्चस्व स्थापित करती सी प्रतीत होती है तो की गर्मी
या शीतलहरी में भी मुझे सुखद बयार सी अनुभूति होती है। उनकी एक कविता,जिसे मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं,बेहद ही सराही गयी है। इसे पोस्ट करने की पृष्ठभूमि में मेरा आशय यह है कि हम सब अपने प्रकाशस्तभों के सामीप्य मे रहें।

आप का सुझाव यदि मुझे इस दिशा में अभिप्रेरित करने में सफल सिद्ध होगा तो मुझे अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति होगी। उनके प्रति आपके विचार/टिप्पणी ही उनके प्रति सही श्रद्धांजलि होगी। उन्हे याद करते हुए मेरी आखें नम हो गयी हैं-उन्हे चाहकर भी नही भूल पा रहा हूं क्योंकि-
इक बार तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना,
सौ बार रब न् तेरी तस्बीर दिखा दी।।
इसी क्रम में नीचे प्रस्तुत है उनकी कविता जो हमारी भावनाओं को कहीं न कहीं झकझोर कर चली जाती
है:--

धूप कोठरी के आँगन में

धूप कोठरी के आँगन में खड़ी
हँस रही है

पारदर्शी धूप के पर्दे
मुस्कराते
मौन आँगन में

मोम-सा पीला
बहुत कोमल नभ


एक मधुमक्खी हिला कर फूल को
बहुत नन्हा फूल
उड़ गई

आज बचपन का
उदास माँ का मुख
याद आता है।।
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Monday, January 10, 2011

आओ शुरूआत करें

एक बार एक नवजवान ऑफिसर ऑफिस से बहुत सारा काम लेकर घर आया। उसका पाँच साल का बेटा घर पर इंतजार कर रहा था ताकि वह अपने पिता के साथ खेल सके।लेकिन पिता ने अपने बेटे से कहा-”मुझे ऑफिस का बहुत सारा काम करना है क्योंकि अभी बहुत सारा काम पीछे रह गया है।“बेटे ने पिता की बात सुनकर कहा,”पिता जी जब मैं अपनी कक्षा में पीछे रह जाता हूं तो अध्यापक सुझे आहिस्ता चलने वाले बच्चों की कक्षा में बिठा देते हैं।,आपके ऑफिस वाले आपको ऐसे ही आहिस्ता-वर्ग में क्यों नही डाल देते!”पिता ने इस बात का जबाब देते हुए कहा-“रक्षा मंत्रालय की दुनिया में ऐसा दस्तूर नही है।“लेकिन बच्चे को पिता की बात समझ में नही आई।वह तो बस उनके साथ खेलने का जिद कर रहा था। आखिरकार पिता ने बच्चे को काम में उलझाए रखने का रास्ता ढूंढ़ निकाला ताकि पिता अपने ऑफिस का काम बिना किसी रूकावट के पूरा कर सकें। उसके पास एक पत्रिका थी जिसके मुख्य पृष्ठ पर विश्व की तस्बीर बनी हुई थी। उसने उस पन्ने को फाड़ा और उसके कई छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए।तब उसने अपने बेटे से कहा,-बेटा, तुम विश्व की इस फटी सी तस्बीर को जोड़ो तभी मैं तुन्हारो साथ खेलूंगा।:पिता जानता था कि इस तस्बीर को जोड़ने में बच्चे को काफी समय लगेगा। लेकिन पांच मिनट बाद ही बच्चा पिता जी से कहने लगा की उसने तस्बीर जोड़ ली है।पिता को बच्चे की बात पर विश्वास नही आया लेकिन जब उसने तस्बीर को जुड़ा हुआ देखा तो हैरानी से बच्चे से पूछा – “तुमने इतनी जल्दी इसे कैसे किया। “तुमसे तो मुझे सीखने की जरूरत है।“बेटे ने सहज भाव से जबाब दिया,”पिता जी यह काम तो बड़ा आसान था।जिस पन्ने पर विश्व की तस्बीर बनी थी उसके दूसरी तरफ एक मनुष्य की तस्बीर बनी हुई थी। मैने तो उस आदमी की तस्बीर को जोड़ा और पलट कर देखा तो दुनिया जुड़ी हुई मिली।“

Saturday, January 8, 2011









आपको यह पोस्ट कैसा लगा एक टिप्पणी अवश्य दीजिएगा।

छोटी सी बात
एक छोटी सी बच्ची अपने पिता के साथ सैर-सपाटे के लिए जा रही थी।रास्ते में एक उफनती नदी पर बना लकड़ी का पुल आया तो बच्ची डरने लगी। उसके पिता बोले-डरो मत।मेरा हाथ पकड़ लो।नन्ही बच्ची बोली -”नही पापा- आप मेरा हाथ पकड़ लो।” पिता जोर से हँसे और बोले दोनों मे क्या अंतर है।बच्ची ने जबाब दिया-अगर मैं आपका हाँथ पकड़ लूं और अचानक कुछ हो जाए तो संभव है, मेरे से आपका हाँथ छूट जाए लेकिन अगर आप मेरा हांथ पकड़ेंगे तो मैं पक्का जानती हूं कि कुछ भी हो जाए आप मेरा हांथ कभी नही छोड़ेंगे।
इस वार्तालाप में गंभीर दार्शनिक विचार है।आज के समय को देखते हुए बुजुर्गों की उपस्थिति कई परिवारों में भार बनती जा रही है।य़ुवा पी़ढ़ी पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण कर रही है।रात को देर से सोना और सुबह देर से उठना उनकी आदतों में शुमार हो गया है।बड़े बुजुर्गों की बातें उन्हे पसंद नही आती क्योंकि वे उनकी जीवन शैली से ताल-मेल नही रखती।पीढ़ी ने जो मेहनत की आज का विज्ञान और प्रौद्योगिकी उसकी देन है।अत:बचपन में जिस हांथ ने सभी का साथ कभी भी नही छोड़ा उन बूढ़े हाथों को जब अपने बच्चों के सहारे की जरूरत हो तो वह भी साथ निभाने वाले हांथ आगे बढ़ाएं जिस तरह कभी उन्ही हाथों ने सबको चलना या आगे बढ़ना सिखाया था।

Friday, January 7, 2011


मुझे यह पढ़कर सबक मिलता है कि अपने जीवन में कुछ चीजें जिन्हें हम बेकार समझते हैं, कभी-कभी अनमोल साबित होती हैं। लेकिन इस संदर्भ में आप सब का क्या विचार हैं, अवश्य प्रस्तुत कीजिएगा। बेसब्री से इंतजार करूंगा।
कीमत

एक छोटी बच्ची बड़े मनोयोग से एक डिब्बे पर सुनहरा कागज लपेट रही थी।तंगहाली के दिनों में कीमती कागज को यूं बरबाद करते देख उसके पिता को बहुत गुस्सा आया।उसने बच्ची को खूब डांटा।अगले दिन क्रिशमस था।अलसुबह बच्ची ने अपने पिता को एक डिब्बा भेंट किया।उसे यह देखकर ग्लानि हुई कि यह वही डिब्बा था जिसके लिए उसने अपनी बेटी को डांटा था। डिब्बा खोला तो यह क्या!वह खाली था। एक बार वह फिर भड़क उठा।उसने अपनी बेटी को डांटते हुए कहा- “तुम इतना भी नही जानती हो कि कभी किसी को खाली डिब्बा तोहफे में नही दिया जाता है!”बच्ची ने मासूमियत के साथ जबाब दिया-डिब्बा खाली नही है। मैने इसमें आपके लिए ढेर सारा प्यार भरा हुआ है। इस पर पिता की आंखे भर आई और उसने गले लगाकर बच्ची से मांफी मांग ली।

Thursday, January 6, 2011

गजल


जब घिनौने बिम्ब भी, देखे तुझे उपहास से
टूटने नही देना तू,दिल का रिश्ता आस से।

जिंदगी में बढ़ गई हैं,उलझनें कुछ इस कदर
दूर मै होता गया हूं, हास और परिहास से।

असलहों के बल कभी भी,शांति आ सकती नही
चींखती हैं ये सदाएं, विश्व के इतिहास से।

जिंदगी के ताने-बाने, बुन रहा हूं इस घड़ी
छोड़ दो तनहा मुझे, इस वक्त जाओ पास से।

हार कर बैठा नही, चलते रहो चलते रहो
कान में कहके हवा ये, गुजरी मेरे पास से।

डूब कर संध्या समय, यह सूर्य ने सबसे कहा
कल चमकना है मुझे फिर, एक नये विश्वास
से।

धैर्य से ले काम, ऐ प्रेम, तू घबरा नही
बाद पतझड़ होगा तेरा,सामना मधुमा
स से।

Sunday, January 2, 2011

बोध कथा
एक अंधा वालक इमारत की सीढीयों पर वैठा था। उसकी टोपी उसके पैरों के करीव उल्टी करके रखी थी। उस बालक ने वहाँ पर चिह्न वनाया जो इंगित कर रहा था।
“मैं अंधा हूँ, मेरी मदद करो।“ उस टोपी में कुछ ही सिक्के पड़े थे। तभी एक व्यक्ति वहां से गुजरा। उसने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले तथा उस टोपी में डाल दिए। उसका ध्यान वहाँ पर बने चिह्न पर गया। उसने उस चिह्न को हटाते हुए कुछ शब्द लिख दिए। अब वहां से हर आने जाने वाले लोग उन शब्दों को पढ़ते हुए उसकी टोपी में सिक्के डालने लगे।
उस दिन टोपी में प्रतिदिन की अपेक्षा अधिक सिक्के जमा हुए। संध्या को वही व्यक्ति जब सीढ़ीयों से उतर कर उस बच्चे के पास आय़ा तो उसके पदचापों की आहट को पहचानते हुए उस बालक ने कहा’आपने ऐसा क्या किया जिससे लोग प्रभावित हो मेरी टोपी में सिक्के डाल रहे थे!’ उसने कहा कि मैने भी वही लिखा है जो तुम चिह्न से कह रहे थे।बस उसका अंदाज बदल दिया। मैने लिखा है कि दिन वहुत सुंदर है लेकिन मै उसे देख नही सकता हू।
बात छोटी सी है लेकिन अपने आप में महत्वपूर्ण भी। अपनी बातों को पुराने घिसे-पिटे तरीके से न प्रस्तुत करते हुए यदि उसका अंदाज बदल दिया जाए तो वही बात सबको प्रभावित किए विना नही रहती।

Saturday, January 1, 2011

सुदामा प्रसाद धूमिल साठोत्तरी कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी कविता जनतंत्र .संसद.संविधान और प्रजातंत्र के खोखलेपन को वास्तविक अर्थ में हमारे सामने प्रस्तुत करती है। आज मैं उनकी कविता “रोटी और संसद’ प्रस्तुत कर रहा हूं। नव वर्ष-2011 की अशेष शुभकामनाओं के साथ- प्रेम सागर सिंह, कोलकाता।

रोटी और संसद

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
‘यह तीसरा आदमी कौन है!’
मेरे देश की संसद मौन है।