Thursday, May 31, 2012

बिहार की स्थापना का 100 वां वर्ष: क्या खोया, क्या पाया


 बिहार की स्थापना का 100 वां वर्ष : क्या खोया,क्या पाया !


                          
                         
                  प्रस्तुतकर्ता: (प्रेम सागर सिंह)


जिंदगी के इंद्रधनुषी रंगों की तरह बिहार राज्य का रंग भी बेशुमार है। बिहारवासियों के लिए इसे जिंदगी को जितने भी रंग में जिया जा सकता है, बिहार को उससे कहीं ज्यादा रंगों में कहा जा सकता है । इसका चोला कुछ इस अंदाज का है कि जिंदगी का बदलता हुआ हर रंग उस पर सजने लगता है और उसकी फबन में चार चाँद लगा देता है, इसीलिए सदियों के लंबे सफर के बावजूद बिहार की माटी, सभ्यता, संस्कृति, त्यौहार एवं इतिहास आज भी ताजा दम है, हसीन है, और दिल नवाज भी

 यह हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात है कि आज देश के कई शहरों में बिहार की स्थापना के 100 वें वर्ष के महोत्सव मनाये जा रहे हैं। इस महोत्सव के खैर अपने राजनीतिक मायने और महत्व हैं। शायद यही कारण है कि दूसरे राज्यों में बिहार के प्रवासी लोगों के साथ-साथ राज्य के स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालयों में भी इस समारोह की गूंज सुनाई पड़ी है। विगत 30 वर्षों में तो बिहार भ्रष्ट राजनीति, आर्थिक पिछड़ेपन एवं अपराधिक गतिविधियों की अनियंत्रित वृद्धि के कारण सभी जगह आलोचना का विषय भी बना। अपने गौरवमयी अतीत एवं संघर्षों से भरे वर्तमान के मध्य झूलता बिहार फिर भी प्रगति के पथ पर है। बिहार की राजनीतिक दुरावस्था के कट्टर आलोचक भी यह अब मानने लगे हैं कि वहां के क्षितिज पर आशावाद की नवज्योति की रश्मियां फैलने लगी है।
 किसी भी घटना या परिवर्तन को दर्ज करना इतिहास की नियति है। इस संदर्भ में बिहार का इतिहास एवं सांस्कृतिक अस्तित्व तो भारतीय सभ्यता के उत्कर्ष एवं पाटलिपुत्र में भारतीय शासन के अभ्युदय से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। बिहारवासी शताब्दियों पूर्व के अपने क्षेत्रीय इतिहास से स्वयं को जोड़कर ही अपूर्व गौरव का अनुभव करता है। यदि आज की राजनीतिक परिचर्चा की परिधि से बाहर जाकर सोचा जाए तो बिहार की पृष्ठभूमि से आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए वर्ष 1912 उसके बंगाल से पृथक होने का काल अवश्य है, पर यह उसके भू-सांस्कृतिक पहचान के निर्माण का वर्ष नहीं है। इस शताब्दी वर्ष में बिहार की सांस्कृतिक गरिमा एवं ऐतिहासिक महत्ता पर दृष्टिपात करना परमावश्यक है। नैमिषारण्य (वर्तमान सारण) एवं धर्मारण्य (गया) तपोभूमि के रूप में विख्यात रहे हैं। वैज्ञानिक साहित्य में जिस पाटलिपुत्र वासी आर्यभट्ट ने अपूर्व योग्यता का परिचय दिया, वह भारत ही नहीं, विश्व के लिए अद्वितीय उपलब्धि का विषय है। भारतीय वांग्मय के शिरोमणि कालिदास की जन्मभूमि भी लोकमान्यताओं के अनुसार मिथिला है।
 बिहार के ऐतिहासिक योगदान का सबसे प्रभावशाली पक्ष है छठी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी सदी अर्थात बारह सौ साल तक भारतीय राजनीति में अग्रगामी भूमिका का निर्वाह। इस कालखंड में बिहार ने केवल चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमार गुप्त, स्कंदगुप्त जैसे यशस्वी शासक ही नहीं दिए, अपितु आसेतु हिमालयात् अर्थात समुद्र से हिमालय पर्यन्त शासन की स्थापना कर भविष्य के अखंड भारत का आधार भी निर्मित किया। ये बारह सौ साल भारतीय संस्कृति के पुष्पित पल्लवित होने का काल है। निश्चय ही इसका केंद्र पाटलिपुत्र था। इस बीच शक, पार्थियन, इण्डो-ग्रीक, हुण आदि आक्रमणों से भारतीय भूमि की रक्षा के दायित्व का भी सफल निर्वाह किया गया। इस संदर्भ में सेल्युकस के ऊपर चंद्रगुप्त मौर्य की विजय, समुद्रगुप्त द्वारा शक, मुरुंड एवं शाहानुशाहियों (कुषाणों) को उखाड़ फेंकना, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा शकों का निर्वासन तथा स्कंदगुप्त द्वारा विशाल हुण सेना पर विजय भारतीय सैन्य इतिहास की अविस्मरणीय घटनायें हैं।
 मध्यकालीन राजनीतिक उथल-पुथल के बीच घटने वाली अनेक घटनायें भी बिहार को गौरव प्रदान करती हैं। शेरशाह एवं हेमू विक्रमादित्य जैसे नायकों की सैन्य सफलतायें बिहार की ताकत के ही दृष्टान्त थे। महाराजा सुन्दर सिंह की अलीवर्दी खान (बंगाल के शासक) एवं मराठों के विरुद्ध सफलता के ऊपर भले ही किसी इतिहासकार की दृष्टि नहीं गई हो, पर आज भी वे मगध क्षेत्र में वीरता के प्रतीक पुरुष हैं, जिनके पटना से क्युल तक के सैन्य अभियान एवं कर्मनाशा के द्वार पर मराठों एवं मुगलों से लोहा लेने की शक्ति के कारण औरंगजेब की मृत्यु के बाद की स्थिति में बिहार के बड़े क्षेत्र को राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त हुई।
 बिहार इस काल में न केवल गांधी एवं नेहरू संचालित कांग्रेस के आंदोलन का केन्द्र था, बल्कि सुभाषचंद्र बोस की राजनीतिक सफलता के पीछे बिहार की वे 429 जनसभायें थीं, जिसमें वे सहजानंद सरस्वती के साथ थे। आधुनिक भारत के तीन बड़े आंदोलनकारियों सहजानंद सरस्वती, महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण, सभी को बिहार ने आधारभूत समर्थन प्रदान किया। इतना ही नहीं, बिहार का विप्लवी राष्ट्रवाद भी अविस्मरणीय है। वीर योगेन्द्र शुक्ल, बैकुण्ठ शुक्ल, किशोरी प्रसन्न सिंह एवं अक्षयवर राय जैसे नेता भला कैसे भुलाये जा सकते हैं। फांसी का बदला चुका कर फांसी पर झूलने का गौरव बिहार के बेटे बैकुण्ठ शुक्ल को है। बक्सर युद्ध के बाद कंपनी शासन को चुनौती देने के लिए हथुआ महाराज फतेहबहादुर शाही ने जो विद्रोह किया उसे 1857 में क्रांतिवीर आरा निवासी  वीर कुंवर सिंह और उसके उपरान्त अगस्त क्रांति के शहीदों (पटना के सात शहीद) ने जारी रखा।
 विगत वर्षों की उपलब्धियों की तुलना में आज बिहार विकासोन्मुखी नजर आने लगा है, पर विकास का सारा ताना-बाना सड़क एवं पुल निर्माण तक सीमित है। हां, एक उपलब्धि और मान लेनी चाहिए कि कुछ सामाजिक, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं में ग्रामीण स्तर पर बेकार बैठे लोगों को अल्पकालिक ही सही, पर नौकरी का अवसर प्राप्त हुआ है। इनका गुणात्मक परिणाम क्या होगा? कहना कठिन है। प्रारंभिक शिक्षा की हालत तो बिहार में खराब ही है, उससे भी बदतर है उच्च शिक्षा एवं विश्वविद्यालयों की स्थिति। श्रमिकों के साथ-साथ विद्यार्थियों के अनवरत पलायन को रोकने में बिहार का वर्तमान प्रशासन कितना सक्षम होगा, यह अब भी एक यक्ष प्रश्न है। मुंबई में बिहार शताब्दी समारोह मना रहे मुख्यमंत्री की उद्योगपतियों से बैठक कुछ लोगों के लिए एक नयी आशा है। पर परिणाम तो लंबे काल के बाद दिखेगा। उत्तरी भाग बाढ़ ग्रस्त तो दक्षिणी भाग सूखा पीड़ित। इसके लिए कृषि नीति क्या हो? बिना विद्युत के उद्योग भला कैसे फले-फूले? ऐसे कितने ही प्रश्नों का उत्तर अब भी शेष है।
 सर गणेश दत्त नेइंस्टिट्यूट ऑफ बैक्टिरियोलाजी” (Institute Of Bacteriology) की स्थापना पटना मेडिकल अस्पताल में तब करवायी थी, जब विश्व के लिए यह नया विषय था। आज बिहार प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के अभाव से जूझ रहा है। मुजफ्फरपुर में आजादी के पहले भौतिकी एवं खगोलीय शोध के लिए विशाल प्लैनेटोरियम (तारामंडल) स्थापित किया गया था, पर आज बिहार के विश्वविद्यालय प्रमाणपत्र, अंक-पत्र एवं मानपत्र देने वाली संस्थायें मात्र बन कर रह गए हैं। इस शताब्दी वर्ष में इन सभी बिंदुओं पर समग्र चिंतन आवश्यक है।
 हमें प्रयास करना होगा कि वर्ष 2012 बिहार के विकास के संकल्प का वर्ष बने। बड़े शहरों यथा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता , सूरत आदि के शताब्दी महोत्सव अपना लक्ष्य तभी हासिल कर पाएंगे, जब आगामी दशक में बिहार आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के अपने नवीन लक्ष्य को प्राप्त कर चुका होगा। आशा ही नही मेरा अटूट विश्वास है कि वर्तमान मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बिहार आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सूचना प्रौद्योगिकी, कला एवं विज्ञान के क्षेत्र में अहर्निश प्रगति के पथ पर अग्रसरित होता रहेगा ।                     
                
                   जय बिहार ।

नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष  सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
            
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Sunday, May 27, 2012

आज भी कबीर जनमानस में रचे बसे हैं


आज भी कबीर जनमानस में रचे बसे हैं

    (कबीर)

कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। “--- हजारी प्रसाद द्विवेदी

          प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह (प्रेम सरोवर)


भारत के प्राचीन कवियों में कबीर साहब एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में समाज-सुधार का संदेश सबसे अधिक है। उनके सत्य- लोक- गमन को कोई साढ़े चार सौ साल हो गए, लेकिन आज, भी उनके दोहे और पद पुराने नही लगते ।ऐसा लगता है मानो, उनकी रचना आज की स्थिति को सामने रख कर की गई हो; मानो उनके श्रोता पठानकालीन हिंदुस्तानी नही, बल्कि, वर्तमान काल के हिंदुस्तानी रहे हों। इसका कारण यह है कि कबीर साहब ने मानव समाज के बारे में जो सपना देखा था, वह अभी पूरा नही हुआ, न वह स्वप्न हमारा आँखों से ओझल हो पाया है । कबीर साहब भविष्यद्रष्टा कवि थे और भारतीय समाज की जो कल्पना उन्होंने की थी, वह इतनी मजबूत निकली कि वह आज भी हमारे साथ है और हम उसी कल्पना को आकार देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ।

हिंदू समाज की सबसे बड़ी त्रुटि उन्हे यह दिखाई पड़ी थी कि इस समाज के लोग विचार के धरातल पर यह तो विश्वास करते हैं कि सारी सृष्टि एक ही व्रह्म से निकली है। इसलिए, सभी मनुष्य परस्पर समान हैं; किंतु आचार के धरातल पर उनका यह विश्वास खंडित हो जाता है, क्योंकि कुछ वर्णों को वे जन्मना श्रेष्ट और बाकी को अधम मानते हैं। कुछ मनुष्यों को स्पर्श के योग्य और कुछ को अक्षूत मानते हैं । हिंदू-समाज के भीतर प्रचलित इस रूढ़ि के खिलाफ कबीर साहब ने जीवन-पर्यंत संघर्ष किया और सारी जिंदगी वे हिंदुओं को समझाते रहे कि जन्म से भी मनुष्य समान हैं, ऊंच-नीच का भेद कर्म उत्पन्न करते हैं। अतएव, जन्म से एक को ब्राह्मण और दूसरे को शूद्र मत समझो, क्योंकि ऐसा विभेद करने का कोई आधार नही है ।

एक बूँद, एकै मल -मूतर, एक चाम, एक गुदा,
एक ज्योति से सब उत्पन्ना, को बाभन, को सूदा!

संतों  की और से जाति प्रथा को चुनौती  बहुत पुराने जमाने े मिलती आ रही है। ऐसे संतों में सबसे बड़ा नाम महात्मा बुद्ध का है ।असल में कबीर, नानक एवं महात्मा गांधी आदि महात्मा उसी धारा के संत हैं जो धारा बुद्ध के कमंडलु से बही थी । किंतु, इतने संघर्षों के बाद भी, जाति-प्रथा कायम है यद्यपि ज्यों-ज्यों समय बीतता है, उसके बंधन ढीले होते जाते हैं । नया हिंदुस्तान सभी रूढियों से मुक्त करने की आज भी संघर्ष कर रहा है और इस संघर्ष में हमें बहुत बड़ी प्रेरणा कबीर साहब से मिलती है ।

नए भारत की सबसे बड़ी समस्या हिंदू-मुस्लिम एकता की है । महात्मा गांधी का पूरा जीवन इस समस्या के सुलझाने का प्रयास था और, अंत में, इसी समस्या के सुलझाने की कोशिश में उन्होंने वीर गति भी पाई । इसी समस्या ने कबीर साहब को उतना ही बेचैन रखा था जितना उसने गांधी जी को रखा। अंतर यह है कि गांधी जी के मुंह से  कभी कोई ऐसी बात नही निकली जिससे हिंदुओं तथा मुसलमानों के दिल पर कोई धार्मिक चोट पहुंचे । लेकिन कबीर साहब के समय राजनीति का भय नही था। हिंदुत्व और इस्लाम के बीच का भेद मिटाने के लिए उन्होंने दोनों ही धर्मों की इतनी कटु आलोचना की थी कि दोनों ही धर्मों के नेता तिलमिला उठे । नतीजा यह हुआ कि कबीर साहब पर कठिनाईयां बरस पड़ी और उनके शत्रु दोनों ही गिरोहों में पैदा हो गए ।

अपनी निडर भाषा के कारण उनके विचार अंगारों की तरह  समाज की छाती में धड़कने लगे, उसी प्रकार वे पिछले करीब साढ़े चार सौ साल से दहकते चले आ रहे हैं ।कबीर साहब बार- बार मनुष्यों को एक परमात्मा का ध्यान दिलाते हैं और बार- बार कहते हैं कि इस एक को पाने के लिए अनेक पंथ क्यों बनाते हो और अगर पंथ एक बना भी लिए तो उन्हे लेकर परस्पर झगड़ते क्यों हो ! इस पर वे कहते हैं:-

जो खोदाय मसजीद बसतु हैं, और मुलुक कहीं केरा!
तीरथ-मूरत रामनिवासी, बाहर केहिका डेरा !
x         x          x          x             x               x

युग के अनुसार हमारी भाषा बदल गई है लेकिन, आज, भाव एक ही है ।कबीर ने ज्ञान से शास्त्र का अर्थ लिया था। आज का शास्त्र- ज्ञान विज्ञान है और अपने समय में ज्ञान के लेकर कबीर को जो चिंता थी, विज्ञान को लेकर वही चिंता आज के युग में देखी जा सकती है । पंडित और मूर्ख में से मूर्ख का पक्ष लेते हुए इकबाल ने लिखा है :--

तेरी बेइल्मी ने रख ली बेइल्मों की शान,
आलिम- फाजिल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान


नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य को आप सबके समक्ष प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयासों में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।

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Monday, May 21, 2012

खड़ी बोली हिंदी और ऊर्दू के पिता : अमीर खुसरो


 खड़ी बोली हिंदी और ऊर्दू के पिता : अमीर खुसरो



         (अमीर खुसरो)


प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह (प्रेम सरोवर)

अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अफगानी पिता एवं भारतीय माता के पुत्र खुरो एक सूफी कवि के रूप में जाने जाते हैं। भारतीय संगीत के विकास और खास कर भारत में सूफी संगीत के विकास में उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। कहा जाता है कि तबले का अविष्‍कार उन्‍होंने ही किया था।  सूफी संत निजामुद्दीन औलिया के शिष्‍य खुरो को गंगा जमुनी संस्कृति के एक बड़े प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है। 1253 ई. में उत्‍तर प्रदेश के एटा जिले में जन्‍में खुरो फारसी और हिंदी में समान रूप से दखल रखते थे। उनकी वे कविताएं तो लाजवाब हैं जिनमें उन्‍होंने एक छंद फारसी का रखा है तो दूसरा हिंदी का।

अमीर खुसरो के बारे में कुछ जानकारी देने के पूर्व मैं समझता हूं कि उनके पूर्व की परिस्थितियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करना बहुत ही आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखते हुए तदयुगीन हालातों के बारे में इस सत्य से परिचित करवाना चाहता हूं कि पठान सुल्तान उल्माओं के मार्ग-दर्शन पर चलते थे और उलमाओं का उपदेश यह था कि जो सुल्तान अधिक-से-अधिक काफिरों को मुसलमान बनाएगा,अधिक-सेअधिक मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ेगा, वही सबसे बड़ा सुल्तान है। अतएव मुसलमानों के लिए यह जरूरी हो गया कि उलमाओं की इच्छा पूर्ति के लिए वे हिंदू धर्म पर अत्याचार करें । लेकिन मुसलमानों के सूफी संत उलमाओं के साथ नही थे।वे धर्मों के बाहरी रूप को महत्व नही देते थे । उनका सारा जोर धर्मों की एकता पर था और यही भाव इस्लाम के प्रति हिंदू-साधकों और संतों का भी था ।

उस समय इस्लाम के भीतर से एकता की आवाज बहुत जल्द उठने लगी । राजा पृथ्वीराज का निधन 1192 ई. में हुआ और उसके 61 वर्ष के बाद अमीर खुसरो का जन्म हुआ । अमीर खुसरो भारत के सबसे पहले राष्ट्रीय मुसलमान थे । वे हजरत चिश्ती के शिष्य और स्वयं ऊँचे तबके के सूफी साधक थे। वे खड़ी बोली हिंदी और ऊर्दू-दोनों भाषाओं के पिता थे। जिस भाषा में हम लोग अब अपना साहित्य लिखते हैं, उस भाषा में सबसे पहले-पहल रचना अमीर खुसरो ने आरंभ की थी । अमीर खुसरो का लिखा हुआ एक महाकाव्य है, जिसका नाम नूहे सिफर है। उन्होंने इस काव्य में भारतवर्ष का वर्णन किया है। उनके वर्णन से पता चलता है कि 14 वीं सदी में भी भारत संसार का सबसे अग्रणी देश था ।

खुसरो की दष्टि में भारत इसलिए वंदनीय है कि इस देश में ज्ञान और विविध विधाओं का व्यापक प्रचार है । विश्व की सभी भाषाएं भारतवासी शुद्धता से सीख और बोल सकते हैं । ज्ञान सीखने के लिए बाहर के लोगों को भारत आना पड़ता है, किंतु भारतवासियों को भारत से बाहर जाना नही पड़ता है । अंकों का विकास भारत में हुआ है । विशेषत: शून्य का प्रतीक भारत का आविष्कार है । हिंदसा शब्द हिंद और असा- इन दो शब्दों के योग से बना है। शतरंज के खेल का आविष्कर्ता भारत है । भारतीय संगीत सभी देशों के संगीत से उच्चकोटि का है । संगीत पर यहां केवल मनुष्य ही नही झूमते, उसे सुनकर यहां के हिरणों का भी स्तंभ हो जाता है । अन्य किसी दूसरे देश में खुसरो के समान भाषा का दूसरा जादूगर नही है , गर्चे वह सुल्तान का अदना सा चारण है ।

भारत को खुसरो ने पृथ्वी का स्वर्ग माना है और लिखा है कि आदम और हौवा जब स्वर्ग से निकले थे, तब वे इसी देश में उतरे थे । भारत के सामने खुसरो ने बसरा, तुर्की, रूस चीन, खुरासान, समरकंद, मिश्र और कंधार- सबको तुच्छ बताया है । फिर खुसरो ने यह भी लिखा है कि कोई मुझसे पूछ सकता है कि तू मुसलमान होकर हिंदुस्तान की बड़ाई क्यों करता है । मेरे जवाब यह होगा कि इसलिए कि हिंदुस्तान मेरी जन्म-भूमि है और पैगंबर साहब का हुक्म है कि तुम्हारे जन्म-भूमि का प्रेम तुम्हारे धर्म में शामिल होगा ।
जिन देशों में मुसलमानों का बहुमत नही है, उन देशों के मुसलमान मन से एक कठिनाई का अनुभव करते हैं । आरंभ से ही उन्हे सिखाया गया है कि जिस देश पर मुसलमानों का राज नही है, बह देश दारूल - हरब (शत्रुओं का देश) समझा जाना चाहिए । अत: देश- भक्ति और धर्म- भक्ति को एक साथ ले चलने में मुसलमानों को कठिनाई होती है।आम लोगों का खयाल है कि जिस देश का शासन इस्लामी कानून से नही चलता,उस देश में बसने वाले मुसलमान प्रच्छन्न विद्रोही बनकर जीते हैं।अमीर खुसरो ने यह कहकर कि आदमी का जन्म-भूमि का प्रेम उसके धर्म-प्रेम में शामिल होता है, मुसलमानों के इस अंध - विश्वाश को फाड़ दिया था । यदि खुसरो को हिंदुस्तान ने अपने आदर्श मुसलमान के रूप में उछाला होता, तो हिंदुस्तान की कठिनाई कुछ-न-कुछ कम हो गई होती। आज भी मौका है कि हम खुसरो को आदर्श भारतीय मुसलमान के रूप में जनता के सामने पेश करें ।

अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य को आप सबके समक्ष प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयासों में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को और रूचिकर बनाने में आपके सहयोग की तहे- दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।

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Tuesday, May 15, 2012

हिंदी मानस की सीता है तो साकेत की उर्मिला भी


                                                                                                                                                                            

       हिंदी मानस की सीता है तो साकेत की उर्मिला भी
      

     प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह (प्रेम सरोवर)


 भाषा एक माध्यम भर नही है, वह मनुष्य की समूची विकास परंपरा है । उसकी संपूर्ण संस्कृति की भारसाधक और आधारभूत शक्ति का नाम भाषा होता है। भाषा के माध्यम से मनुष्य अपनी, अपने युग की, अपने परिवेश की तमाम आशाओं, आकांक्षाओं, उपलब्धियों, प्रवृतियों, सफलताओं, असफलताओं को सँजोकर ही नही रखता, वल्कि अतीत की स्मृतियों और भविष्य की नीहारिकाओं को भी अनुभव करता है। भाषा एक भौतिक माध्यम भर नही है।वह विचारों और अनुभवों के ताल-मेल से निर्मित एक जीवनचर्या भी है। हिंदी की ग्राह्यता और सरलता को फिल्मों के माध्यम से भी अनुभव किया जा सकता है। हिंदी फिल्मों के गानों ने तो भारत के कोने-कोने में अपनी पैठ बना ली है। हिंदी भारत की अस्मिता की अभिव्यक्ति ही नही है, वह भारतीय अस्मिता को संरक्षित करने वाली भाषा भी है। आज इस बात को बहुत ही गहराई से अनुभव किया जा रहा है कि जब अंग्रेजी भाषा ने हमें भारतीय संस्कारों से अलग-अलग कर दिया है तो एसे समय में यदि किसी भाषा में भारतीय संस्कारों को सुदृढ़ ऱखने व उन्हे युगानुरूप विकल्प देने की क्षमता है, तो वह भाषा हिंदी ही है, क्योंकि उसे अपनी विकास यात्रा में समूचे देश की समूची संस्कृति को अपनी अस्मिता में समेटा है । आज यह यथार्य बन कर उभर रहा है कि देश की भाषाओं में और विश्व की और भाषाओ में भारत की हिंदी एक ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त करती जा रही है जो सभी को अपने रंग में रंगती जा रही है। परिणामस्वरूप, आज विश्व में एक ऐसा माहौल बन गया है कि झटपट हिंदी सीखो, जल्दी से जल्दी अपना काम हिंदी में करो और अपना रोजगार आगे बढ़ाओ। आज सरकारी हिंदी विकास की वह गति नही पकड़ रही है जिसका  पिछले कई वर्षों से इंतजार हो रहा है और जनता की हिंदी जाग रही है तथापि यह भी तो यथार्थ जानना चाहिए कि हिंदी के लिए राष्ट्रीयसहयोग किस सीमा तक का है । जनता ने हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिया है। साथ-साथ हिंदी आज से ही नही, ठेठ मध्य-काल से संपर्क भाषा है । देश के किसी भी क्षेत्र में चले जाएं, वहां अपनी मातृभाषा काम न कर रही हो, तब इस टूटी-फूटी अंग्रेजी का प्रयोग करते, या कर लेते हैं । लेकिन अधिकांश लोगों के लिए आज भी हिंदी सहज स्वभाविक -भाषा है ही । बातचीत के संबंध में लेखन में टूटी - फूटी भाषा आज समूचे राष्ट्र में व्यवहार में है। कहने का अभिप्राय है कि जो काम शासन, संविधान नही कर पाया वह जनता ने कर दिखाया। भविष्य में हिंदी राजसत्ता के सिंहासन पर बैठेगी तो जनता के द्वारा ही न कि शासन के द्वारा । हिंदी के जितने भी मठाधीश हैं, वह सभी अपने-अपने मठों में बैठकर हिंदी के नाम की दुकानें चला कर सिर्फ अर्थ अर्जन कर रहे हैं तथा ऐसे मठाधीश ही हिंदी के लिए हमेशा घड़ियाली आँसू बहाते नही थकते हैं। अब जरूरत है कि ऐसे लोग अपना नजरिया बदलें, अन्यथा वह दिन दूर नही जब जनता इन मठाधीशों को रद्द कर देगी । आज आम जनता की हिंदी बड़ी ही द्रुत गति से विकास की ओर अग्रसर हो रही है। हिंदी समाचार के जितने चैनेल हैं, अंग्रेजी चैनलों के लिए उतने दर्शक भी नही हैं। कल तक हिंदी का स्थान साहित्य की भाषा के तौर पर सर्वाधिक था। देश के ज्यादातर क्षेत्रों में हिंदी मे लेखन, साहित्य सृजन होता रहा है। तथापि एक संपर्क भाषा भी तो यही भाषा थी. ठेठ अमीर खुसरो के काल से। लेकिन मेकाले ने ठीक इसका उल्टा कर दिया । लार्ड मेकाले को गुलामी की जरूरत थी एवं गुलाम तभी बन सकते हैं, जब आप उनकी भाषा तथा उनकी संस्कृति का आमूल विनाश कर दें । वही कार्य मेकाले ने किया तथा आजादी के करीब 64 सालों तक आज के काले मेकाले इसे करते आ रहे हैं । लेकिन आज वैश्वीकरण के जो भी लाभ-हानि हो इससे हिंदी का तो भला ही हो रहा है । आज हिंदी के धांसूपन की नींव आज के इस वैश्वीकरण के विज्ञापनों से हो रही है । हिंदी का विज्ञापन कई हजारों में बिकता है तो अंग्रेजी के विज्ञापन को कोई एक सौ रूपया देने को तैयार नही । इसीलिए आज चीन जापान भी हिंदी सीखने के लिए तैयार हो रहे हैं । दूसरी ओर अमेरिका के राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने यहां तक घोषणा कर दी है  कि अपने उत्पाद को बेचने के लिए फटाफट हिंदी को सीख लो ,क्योंकि विश्व में भारत से दूसरा बड़ा बाजार कहीं नही है .हमारे हिंदी के मठाधीश कितना भी जोर जोर से चिल्ला कर कह रहे है कि हिंदी की दुर्दशा हो रही है, हिंदी मर रही है, किंतु यथार्थ ठीक इसके विपरीत है। आज प्रत्येक राज्य से हिंदी के अखबार तथा पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं । वार्ता एक ऐसी पत्रिका है जो आंध्र प्रदेश  के प्रत्येक जिले से प्रकाशित हो रही है। भारत का फिल्म उद्योग इसी भाषा के बल पर दिन प्रतिदिन विश्व में अपनी पहचान बनाते जा रहा है । यहां फिल्म के लेखक ,कवि, पटकथा लेखक, नायक-नायिकाएं छोटे-बड़े पात्र तथा हजारों की तादाद में काम करने वाले मजदूरों के संवाद का माध्यम हिंदी ही है। जब इन फिल्मों को पर्दे पर दिखाया जाता है तो सारा भारत एक हो जाता है और भाषाई एकता का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत होता है । इस प्रकार यह कहना समीचीन होगा कि आज के वैश्विक वातावरण में हिंदी भाषा केवल साहित्य की भाषा न रहकर यह भाषा उद्योगों की भाषा बन गयी है। अत: हम कह सकते है कि हिंदी भाषा एक वैश्विक उद्योग क्षेत्र की भाषा बन कर अपने साहित्यकारों के साथ आगे बढ़ती जा रही है । इसके साथ-साथ हिंदी का महत्व, हिंदी की उपयोगिता, हिंदी की राष्ट्रीयता भारतीय संस्कारों से संपन्न संस्कृति का भी स्वागत हो रहा है । यह सब हिंदी और भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के कारण ही है। हिंदी स्वभाविक संवर्द्धन की भाषा है। जब-जब इसके ऊपर राजकीय अनाचारों का शिकंजा कसा, तब-तब महत्तम काव्यों की रचना हुई।पृथ्वीराज रासो,आल्हा खंड, पद्मावत, रामचरित मानस,सूर का भ्रमर गीत और कबीर का दोहा,रीतिकाल की विरूदावली,द्विवेदी-युग का इतिवृत्तात्मक साहित्य और भारत भारती का प्रलाप और छायावाद की अमूर्त चेतना इसका उदाहरण है। इतिहास साक्षी है कि हिंदी सर्वदा संघर्षों से खेलने वाली भाषा रही है। यह नही जानती हार मानना । यह केवल जन की ही नही, जन-जन की भाषा है। इसीलिए भारतीय उद्योग की समग्र-समर्थ भाषा भी आज हिंदी ही है क्योंकि हिंदी को अपने विकास के लिए किसी प्रकार के प्रलेप की जरूरत नही है। यह स्वयं चिनगारी है । हिंदी का विकास इसकी विशिष्ट जिजीविषा का वह लेख है, जो दूसरी भाषाओं के सामने घनघोर तिमिर के बीच एक ज्योति कलश बन कर उपस्थित हो जाती है। यह कहना समीचीन होगा कि अब इक्कीसवीं सदी में हिंदी भाषा अपनी प्रतिभा और बल बूते पर तीव्र गति से आगे बढ़ती जा रही है और बहुत ही जल्द मठाधीशों की गुलामी से मुक्त होकर समस्त भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाली साबित होगी । इसे भारत के संसद भवन में या संविधान में प्रशासकीय तौर पर राष्ट्रभाषा की हैसियत मिले या न मिले यह बात तो अलग है लेकिन राष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में भारत में या विदेशों में गंगा के गौरव के समान ही राष्ट्रीय गौरव का रूप ग्रहण कर भारत की हिंदी भाषा की राष्ट्रीय बुलंदी के साथ अभिवृद्धि हो रही है । हिंदी एक भाषा का नाम नही है। अनेक विद्वानों की अपनी व्याख्या रही है कि हिंदी खेत से गांव लौटते बैलों की घंटी का स्वर है, जिसे सुनकर धनिया घर से देहरी पर आ जाती है और अपने सामने होरी को पाकर सब कुछ पा लेने की गरिमा से भर जाती है । यह कदंब के पेड़ से गुंजरित बाँसुरी का वह पावन निनाद है जिसे सुनते ही गोपियां घर का सारा काम छोड़ कर उसी कदंब के पेड़ की ओर दौड़ती चली जाती हैं । इसके साथ-साथ यह यह सबरी की तपस्या है ,सुहाग की बिंदी है, आम्रपाली की थिरकन एवं चित्रलेखा की प्रतूलिका भी है । अंत में, यह मानस की सीता है, तो साकेत की उर्मिला भी तो यही है ।


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Saturday, May 5, 2012

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है



(हरिवंश राय बच्चन)



प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह


कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है.


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