Monday, January 28, 2013

आलोचना पुरूष


 भारतीय आलोचना के शिखर व्यक्तित्व : डॉ. रामविलास शर्मा


                                                         
                                                      प्रेम सागर सिंह


रामविलास शर्मा हिंदी ही नही, भारतीय आलोचना के शिखर व्यक्तित्व हैं। उनके लेखन से पता चलता है,आलोचना का अर्थ क्या है और इसका दायरा कितना विस्तृत हो सकता है। वे हिंदी भाषा और साहित्य की समस्याओं पर चर्चा करते हुए बिना कोई भारीपन लाए जिस तरह इतिहास, समाज, विज्ञान, भाषाविज्ञान, दर्शन,राजनीति यहां तक कि कला संगीत की दुनिया तक पहुंच जाते हैं, इससे उनकी आलोचना के विस्तार के साथ बहुज्ञता उजागर होती है। आज शिक्षा के हर क्षेत्र में विशेषज्ञता का महत्व है। ऐसे में रामविलास शर्मा की बहुज्ञता,जो नवजागरणकालीन बुद्धिजीवियों की एक प्रमुख खूबी है, किसी को भी आकर्षित कर सकती है)  ---  प्रेम सागर सिंह

मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले हिंदी के मूर्ध्न्य लेखक रामविलास शर्मा का लेखन साहित्य तक सामित नही है, बल्कि उससे इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र आदि अनेक अकादमिक क्षेत्र भी समृद्ध हैं। साहित्य के इस पुरोधा ने हिंदी साहित्य के करोड़ों  हिंदी पाठकों को साहित्य की राग वेदना को समझने और इतिहास के घटनाक्रम को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने में सक्षम बनाया है, इसलिए भी उनका युगांतकारी महत्व है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से वे यह बता गए हैं कि कोई भी चीज द्वंद्व से परे नही है, हर चीज सापेक्ष है और हर संवृत्ति (Phenomena) गतिमान है। साहित्यिक आस्वाद की दृष्टि से उन्होंने इंद्रियबोध, भाव और विचार के पारस्परिक तादाम्य का विश्लेषण करना भी सिखाया। अगर मार्क्सवादी नजरिए को स्वीकार किया जाए तो यह भी समझना होगा कि नवजागरण के भी अपने अंतर्विरोध होते हैं। इसलिए उसकी प्रक्रिया में जहां एक ओर विकास दिखाई पड़ता है, वहीं कुछ मामलों में प्रतिगामिता के चिह्न भी उसमे रहते हैं। रामविलाश जी जैसे मार्क्सवादी के स्वामी दयानंद जैसे पुनरूत्थानवादी की ओर आकर्षण को इसी परिप्राक्ष्य में देखा और समझा जा सका है।

रामविलास शर्मा वह मूर्धन्य आलोचक हैं जिन्हे हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी धारा के प्रवर्तक का श्रेय दिया जाता है। वे स्वयं को जीवन भर एक आस्थावादी मार्क्सवादी ही कहते रहे। इसलिए यह थोड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं को लेकर सर्वाधिक विवाद हिंदी के मार्क्सवादी विमर्श में ही रहा। आर्यों के भारतीय मूल का होने की धारणा या अठारह सौ सत्तावन की क्रांति अथवा अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत की आर्थिक स्थिति आदि के बारे में जो कुछ उन्होंने लिखा है,उसमें ऐसी कोई बात नही है, जिसे रामविलाश जी की मौलिक देन कहा जा सके। इतिहास का सामान्य अध्येता भी उन सब बातों से परिचित होता है। हां, नवजागरण की उनकी अवधारणा अवश्य कुछ अलग है. इस अवधारणा पर विचार करने के लिए प्रथमत: मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि का ही सहारा लिया जाना चाहिए। अनंतर अन्य आधारों पर भी उसका परीक्षण किया जा सकता है। नवजागरण मूलत; यूरोपीय इतिहास की वह परिघटना है, जो यूरोपीय संस्कृति और मानसिकता का मध्यकालीनता से अतिक्रमण संभव करती है।। इस दृष्टि से वह एक विशेष ऐतिहासिक परिघटना है, कोई सनातन प्रवृति नही जो बार-बार घटित होती हो। इसीलिए बहुत से आलोचक यह आपत्ति करते हैं कि रामविलास जी एक आधुनिक अवधारणा को प्राचीन इतिहास पर कैसे लागू कर सकते हैं। उनके मतानुसार नवजागरण केवल एक बार घटित हो जाने वाली ऐतिहासिक घटना नही, बल्कि बार-बार आवृति करने वाली प्रवृति है। यह सवाल करना भी गैर वाजिब नही होगा कि एक रेखीय इतिहास-बोध में आवृति कैसे संभव है।

इन सबके बाद भी रामविलाश जी के लिए नवजागरण का तात्पर्य यूरोपीय इतिहास मे घटित नवजागरण के दौर में विकसित प्रवृतियों तक सीमित  नही है। यह आवश्यक भी नही है कि भारतीय इतिहास की व्याख्या और मूल्यांकन के लिए यूरोपीय इतिहास को आधार और प्रतिमान स्वीकार किया जाए। इसीलिए, इसमें कुछ भी अनुचित नही कि एक मौलिक विचारक की हैसियत से डॉ. रामविलाश शर्मा नवजागरण की ऐसी परिभाषा देते हैं जो उसे किसी एक दौर तक सीमित परिघटना की तरह नही, बल्कि एक आवृत्तिपरक प्रवृति के रूप में व्याख्यायित करती है।

रामविलास शर्मा जी एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण को नवजागरण कहते हैं, जो बदलते हुए आर्थिक संदर्भों के आधार पर विकसित सामाजिक -सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में घटित होता है। उसका रूप जातीय जागरण का होता है। दूसरे शब्दों में, नवजागरण किसी समाज के (जिसे रामविलाश जी जाति या नेशन कहना पसंद करते हैं) एक मूल व्यवस्था से दूसरी मूल व्यवस्था में संक्रमण का माध्यम बनता है। मार्क्सवादी नजरिए सेदेखा जाए तो ऐतिहासिक भौतिकवादी की द्वद्वात्मक प्रक्रिया में नवजागरण की इस प्रक्रिया का बार-बार आवृति होना स्वभाविक है- यद्यपि उसका संदर्भ और रूप भिन्न हो सकते हैं। हर मूल्य -सापेक्ष है। जो मूल व्यवस्था एक दौर में गत्यात्मक लगती है वही आगामी दौर के लिए बाधा बन जाती है और उसके अंतर्विरोधों से ही नई गत्यात्मकया मूल्य-व्यवस्था का विकास संभव होता है। इसलिए, रामविलाश शर्मा नवजागरण की एक अपनी परिभाषा निर्मित करते हैं तो मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि के आधार पर उसे वाजिब माना जा सकता है। अगर डॉ. शर्मा नवजागरण की अपनी इस व्यवस्था को मानव इतिहास के किसी भी दौर पर लागू करना चाहें तो कम से कम मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि को इसमें कोई आपत्ति नही होनी चाहिए।

लेकिन, आपत्ति तब होती है, जब रामविलास जी अपनी परिभाषा के मुताबिक नवजागरण को एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण की निरंतर प्रक्रिया के बजाय उसे चार चरणों तक सीमित कर देते हैं और यह भी उनके ऐतिहासिक भौतिकवादी आधारों को प्रामाणिक तौर पर पुष्ट किए बिना ही। इतिहास-लेखन में एक अनेक धारा अपुष्ट स्रोतों के आधार पर अनुमानित लेखन करने वालों की भी रही है। यह विडंबना है कि मार्क्सवादी वैज्ञानिकपद्धति में आस्था रखने वालों का लेखन भी इस प्रवृति से पूर्णतया मुक्त नही कहा जा सकता  रामविलाश जी का भी। नवजागरण के जिन चार चरणों का जिक्र वे करते हैं, उनमें पहला चरण ऋग्वैदिक काल है, दूसरा उपनिषद काल,तीसरा भक्ति आंदोलन और चौथा चरण हिंदी प्रदेश में 1857 की क्रांति के बाद घटित होता है। इस चौथे चरण के अपने चार चरण हैं।

पर अपने इस विभाजन में रामविलाश जी कही भी कही भी यह स्थापित नही र पाते कि इस वर्गीकरण के पीछे आधारभूत आर्थिक या उत्पादन संबंध क्या है  और उसके बिना मार्क्सवादी नजरिए से उसकी पुष्टि नही हो सकती। वह जिस ऋग्वेद को प्रथम भारतीय नवजागरण मानते हैं, उसमें स्वयं उनके ही अनुसार- चिंतन की कई धाराएं हैं. जिस धारा का संबंध दर्शन से है, उसमें प्रमुखता वैज्ञानिक दृष्टिकोण की है अर्थात नवजागरण का मूल वैज्ञानिक दृष्टिकोण है.रामविलाश जी मानवीय विवेक को उत्पादन संबंधों के आधार पर निर्मित मानते हैं या वे एक प्रकार के चिंतन से किसी दूसरे प्रकार के विकास की भाववादी व्याख्या का आग्रह कर रहे हैं। अगर ऋग्वेद उनके अनुसार चिंतन के उच्च शिखर पर पहुंच गया है तो क्या आगामी नवजागरणों का प्रयोजन पुन: पुन: उसी शिखर पर चढने की कोशिश करना है। वे यह मानते हैं कि ब्राह्मण ग्रंथों के रचनाकाल में भूस्वामी वर्ग मजबूत हुआ और उसे ब्राह्मण वर्ग का समर्थन मिला। परंतु, अपनी इस स्थापना के फक्ष में वह कोई सुस्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत नही करते।

इसी तरह भूस्वामी वर्ग के उत्तरोत्तर और सुदृढ हो जाने की स्थितिथ में उपनिषदों में ऐसा चिंतन कैसे विकसित हो सका, जिसने स्वयं रामविलाश जी के शब्दों में, ऋग्वेद को इस जाल से मुक्त कर दिया। उपनिषदों में यज्ञ की एक आध्यात्मिक व्याख्या अवश्य मिलती है, जो उसे कर्मकांड से मुक्त करने की अवश्य कोशिश करती है; लेकिन यज्ञ-व्यवस्था से मुक्ति का वास्तविक प्रयास तो बौद्ध और जैन विचार प्रणालियों द्वारा हुआ, जिसे रामविलास जी नवजागरण के संदर्भ में नही याद करतेखास तौर पर तो बौद्ध दर्शन को तो नवजागरण का माध्यम माना ही जाना चाहिए था जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नही करता। रामविलास जी की इस बात से असहमत नही हुआ जा सकता कि भारत में एक और नवजागरण की आवश्यता है। यह बात भिन्न है कि रामविलास जी स्वयं मार्क्सवाद में अपनी आस्था घोषित करते रहे जबकि अन्य लोगों ने मार्कसवाद का अतिक्रमण कर नवमानववाद का विकास किया ।

इनसे भिन्न सर्वोदय दर्शन भी एक व्यव्स्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण के लिए सौम्यतर सत्याग्रह यानि वैचारिक क्रांति को प्रमुखता देता है। तीनों का तात्विक आधार-भूमि भिन्न है, पर भारतीय समाज में पूंजीवादी साम्राज्यवादी और संप्रदायवादी प्रवृतियों के प्रतिरोध और एक न्यापूर्ण व्यवस्था के विकास के लिए नवजागरण की अपरिहार्यता सभी महसूस करते हैं। सभी पुरस्कारों की राशि का साक्षारता के लिए विनियोग रामविलाश जी की नवजागरण की प्रक्रिया में सहभागी होने की सदिच्छा का ही प्रमाण है। रामविलाश शर्मा के संपूर्ण कृतित्व का लेखा जोखा रखने के क्रम में यह बताना आवश्यक है कि दो खंडों में लिखी गई उनकी पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश की विषय सामग्री राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के व्यापक प्रश्नों की व्याख्या प्रस्तुत करती है। साहित्यकार का जब कोई बड़ा मकसद होता है और वह छोटे आरोप- प्रत्यारोप से ऊपर उठकर कोई बड़ निशाना बनाता है, तभी वह ऐसा साहित्य दे पाता है, जो इतना सुगठित हो, विपुल और सार्थक भी। रामविलाश शर्मा जी कि निम्नलिखित कुछ प्रमुख कृतियां हमें उनकी विचारधारा एवं संघर्षशीलता के दस्तावेज के रूप उनका परिचय प्रदान कर जाती हैं।

दोस्तों, यह पोस्ट उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की संपूर्ण प्रस्तुति नही है बल्कि उन्हे याद करने का एक माध्यम है जिसे मैंने आपके सबके समक्ष सार-संक्षेप में प्रस्तुत किया है। आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए इस क्षेत्र में प्रकाशस्तंभ का कार्य करेगी। धन्यवाद सहित।

कृतिया : -

आलोचना एवं भाषाविज्ञान : -1. प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं 2. भाषा, साहित्य और संस्कृति 3.लोक जीवन और साहित्य 4.रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना 5.स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य 6. आस्था और सौंदर्य 7. स्थायी साहित्य की मूल्यांकन की समस्या 8.निराला की साहित्य साधना (तीन खंड) 9.नई कविता और अस्तित्ववाद 10.सन् सत्तावन की राज्य क्रांति 11.भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद 12. भारत के प्राचीन भाषा परिवार 13 ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा 14 मार्क्स और पिछड़े हुए समाज 15.भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।

नाटक: - 1.सूर्यास्त 2.पाप के पुजारी 3. तुलसीदास 4. जमींदार कुलबोरन सिंह 5. कानपुर के हत्यारे

उपन्यास : - चार दिन

अनुवाद:- स्वामी विवेकानंद की तीन पुस्तकों का  1. भक्ति और वेदांत 2.कर्मयोग और राज रोग एवं स्टालिन द्वारा लिखित सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी 

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Thursday, January 24, 2013

बचपन की एक प्रिय कविता

    

  एक बूंद


(अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध)
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।



लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता
 है कर ।



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Monday, January 21, 2013

किशोर कानून


किशोर न्याय कानून में परिवर्तन की मांग


                                                        
                                                       प्रेम सागर सिंह

दिल वालों की दिल्ली में तेईस वर्षीय छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने देश को हिला कर रख दिया है। ऐसा नही है कि सामूहिक बलात्कार की यह पहली घटना हुई है। सामूहिक बलात्कार की घटनाएं देश में लगातार बढ़ रही हैं। लेकिन प्रशासन और पुलिस की लापरवाही से समाज का गुस्सा चरम पर पहुंच गया है। इसलिए दिल्ली में हुई इस घटना का गुस्सा पूरे देश में फूटा। यह कहा जा सकता है कि पिछले वर्षों में इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं जिसके कारण जनता का गुस्सा बढ़ रहा है। अण्णा के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जिस प्रकार देश भर में लोग सड़कों पर आ गए थे, उसकी पुनरावृति सामूहिक बलात्कार की इस घटना के बाद दिखी। सरकार की हीला-हवाली ने जनता का गुस्सा और बढा दिया। बाबा रामदेव और अण्णा हजारे का आंदोलन सरकारी तरीको से कुचलने में सफल रहे शासक शायद यह समझते हैं कि सड़कों पर उतरने वाला मध्यवर्गीय जनता उनका मतदाता नही है। इसीलिए बलात्कार के खिलाफ उमड़े जनाक्रोश को भी उन्ही तरीकों से कुचलने की कोशिश की गई। संभवत: सत्ता के पद पर आसीन कुछ लोग यह समझते हैं कि वे गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाली आबादी के बूते पर ही सत्ता में आए हैं, लेकिन यह सच नही है। आजादी के समय दो चार फीसदी मतदाता मध्यवर्गीय थे। जबकि सत्तर फीसदी से ज्यादा मतदाता गरीबी रेखा से नीचे थे। यह सरकार मध्यवर्गीय मतदाताओं के बूते पर ही सत्ता में है। इसलिए अब मध्यवर्ग की भावनाओं को समझ कर ही सत्ता में बने रहा जा सकता है।

इन हालातों को ध्यान में रखते हुए क्या प्रशासन तंत्र में आमूल परिवर्तन की जरूरत है ! क्या कानूनों में परिवर्तन की जरूरत है! क्या पुलिस तंत्र को ब्रिटिश मानसिकता से बाहर लाने की जरूरत है! सरकार और सभी राजनीतिक दलों को दलगत राजनीति से ऊपर ऊठकर इन मुद्दों पर विचार करना चाहिए। देश के बहुमत के सब्र का प्याला भर गया है।, कहीं ऐसा न हो किजनता लोकतांत्रिक व्यवस्था से अपनी आस्था समाप्त कर दे। जनता का गुस्सा इस कदर है कि बलात्कारियों में से एक की उम्र अठारह वर्ष से कम बताए जाने पर किशोर न्याय कानून में परिवर्तन की मांग उठने लगी है। गृह मंत्रालय की ओर से राज्यों के मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों की बैठक में छह राज्यों ने किशोर न्याय कानून में परिवर्तन कर बालक की कानूनी आयु सीमा घटाने की सफारिष कर दी। दिल्ली सरकार अपने रा्य में आए दिन होने वाले बलात्कार की घटनाओं को रोकने में नाकाम हो रही है जिसका ठीकरा वह केंद्र सरकार के अधीन आने वाले पुलिस के सिर फोड़ती है। लेकिन जनता के गुस्से को शांत करने के लिए किशोर न्याय कानून में तय नाबाविग की आयु अठारह वर्ष से घटाकर सोलह वर्ष करन की सिफारिश सबसे पहले कर देती है।
जिन छह राज्यों में केंद्र से किशोर न्याय कानून में परिवर्तन की सफारिश की है, उनमें दिल्ली के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, ओडिसा, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, और गोवा शामिल है। इस मामले में सभी राजनीतिक दलों का नजरिया अपरिपक्वता को ही दर्शाता है। सभी राज्य सरकारों एवं देश क राजनीतिक दलों को यह मालूम होना चाहिए कि हमने संयुक्त राष्ट्र के उस प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमे नाबालिग की आयु सीमा अठारह वर्ष मानी गई है। इसीलिए किशोर न्याय कानून में बच्चों की यही आयु सीमा रखी गई। हम दुनिया के सामने दोहरा चरित्र नही दिखा सकते। यह इतना आसान भी नही है कि हम किशोर न्याय कानून में परिवर्तन करके बच्चे की अधिकतम आयु अठारह वर्ष से घटा कर सोलह वर्ष कर दे। जो राज्य सरकारें या आंदोलनकारी ऐसी मांग कर रहे हैं, संभवत: वे इसके दूगगामी परिणाम को नही जानते। ऐसा भी नही है कि मौजूदा समस्या से आँखें मूंदी जा सकती है। कई बार ऐसा होता है कि शुरू में अपराधी की आयु पर भ्रम हो जाता है। किशोर न्याय कानून में इतना सा परिवर्तन क्यों नही किया जा सकता कि सोलह वर्ष  से ऊपर की आयु के बालक अगर बलात्कार और हत्या के आरोप में पकड़े जाते हैं. तो उन पर सामान्य कानूनों के अनुसार मुकदमा चलेगा। दुनिया के कई देशों के कानून हमारे लिए आदर्श साबित हो सकते हैं। आज यह मुद्दा हम सबके सामने एक ऐसे समय में सामने आया है जब पूरा देश इस कानून के विस्तृत संसोधन के बारे में सोच रहा है। मेरा भी मानना है कि सरकार को इस दिशा में अच्छी शुरूआत करने की जरूरत है।
                               
                                (www.premsarowar.blogspot.com)

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Tuesday, January 15, 2013

अभिशप्त जिंदगी


                              अभिशप्त जिंदगी


                                                    
                                             (प्रेम सागर सिंह)     
अतीत की किसी सुखद स्मृति की अनुभूति कभी-कभी मन में खिन्न्ता और आनंद का सृजन कर जाती है। इससे जीवन में रागात्मक लगाव अभिव्यक्ति के लिए बेचैन हो उठता है,फलस्वरूप मानव-दृदय की जटिलताएं प्रश्न चिह्न बनकर खड़ी हो जाती हैं। परंतु यह चिर शाश्वत सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य इसके बीच भी एक अलौकिक आनंद का अनुभव करते हुए ब्रह्मानंद सहोदर रस से अपने भावों को सिंचित करने का प्रयास करता है। इनके वशीभूत होकर मैं भी रागात्मक संबंधों से अमान्य रिश्ता जोड़कर एक पृथक जीवन की तलाश में अपनी भाव तरंगों को घनीभूत करन का प्रयास किया हूं जो शायद मेरी अभिव्यक्क्ति की भाव-भूमि को स्पर्श कर मन की असीम वेदना को मूर्त रूप प्रदान कर सके। कुछ ऐसी ही भावों को वयां करती मेरी यह कविता आप सबके समक्ष प्रस्तुत है। 

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  • तुम्हारे सामीप्य-बोध एवं 
    सौदर्य-पान के वृत मे 
    सतत परिक्रमा करते-करते 
    ब्यर्थ कर दी मैंने, 
    न जाने कितनी उपलब्धियां। 
    तुमसे दुराव बनाए रखना 
    मेरा स्वांग ही था, महज। 

    तुम वचनबद्ध होकर भी, 
    प्रवेश नही करोगी मेरे जीवन में, 
    फिर भी मैं चिर प्रतीक्षारत रहूं। 
    इस अप्रत्याशित अनुबंध में, 
    अंतर्निहित परिभाषित प्रेम की, 
    आशावादी मान्यताओं का 
    पुनर्जन्म कैसे होता चिरंजिवी। 
    जीवन की सर्वोत्तम कृतियों 
    एवं उपलब्धियों से, 
    चिर काल तक विमुख होकर 
    मात्र प्रेमपरक संबंधों के लिए, 
    केवल जीना भी 
    एक स्वांग ही तो है 
    तुम ही कहो- 
    प्रणय-सूत्र में बंधने के बाद 
    इस सत्य से उन्मुक्त हो पाओगी, 
    और सुनाओगी प्रियतम से कभी, 
    इस अविस्मरणीय इतिवृत को, 
    जिसका मूल अंश कभी-कभी, 
    कौंध उठता है, मन में। 
    बहुत अप्रिय और आशावादी लगती हो, 
    जब पश्चाताप में स्वीकार करती हो, 
    कि, अब असाधारण विलंब हो चुका है। 
    मेरा अपनी मान्यता है कि -- 
    उतना भी विलंब नही हुआ है 
    कि तमाम सामाजिक वर्जनाओं को त्याग कर, 
    हम जा न पाएं किसी देवालय के द्वार पर 
    और 
    उस पवित्र परिसर को अपवित्र करने के अपराध में, 
    हम दोनों जी न सकें , 
    एक अभिशप्त जिंदगी ही सही 
    मगर साथ-साथ............... 


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Wednesday, January 9, 2013

भोजपुरी भाषा


  भोजपुरी भाषा को संविधान में शामिल करने की प्रासंगिकता
                 
                                          
                                     (प्रेम सागर सिंह)      


*भोजपुरी हिंदी भाषा की सशक्त पक्षधर बने, इस उम्मीद के साथ संविधान की 8वीं अनुसुची में भोजपुरी का स्वागत है*- (माननीय श्री पी..चिदबरम)
     
भोजपुरी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की घोषणा मॉनसून सत्र में  कर सकती है । इस बारे में चिदांबरम ने आश्वासन देते हुए लोक सभा में कहा हम रूऊआ सबके भावना के समझत बानी। भोजपुरी भाषा को 8वीं अनुसूची में शामिल किए जाने को लेकर एक बार फिर लोकसभा में जोरदार मांग उठी और सरकार ने आश्वासन दिया कि संसद के अगले सत्र में इस बारे में फैसले की घोषणा की जाएगी। संसद में लंबे समय से उठ रही इस मांग पर गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने सदस्यों की भावनाओं से सहमति जताते हुए आश्वासन दिया। चिदंबरम ने कहा कि सरकार को भोजपुरी भाषा समेत कई भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के बारे में बनी समिति की रिपोर्ट मार्च में मिल चुकी है

लोकसभा में इस मुद्दे पर लाए गए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर हुई चर्चा का समापन गृहनके जवाब से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने भोजपुरी भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किए जाने का निश्चित समय बताने पर जोर दिया। अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि गृह मंत्री जल्द से जल्द इस बारे में फैसला करने का आश्वासन दे चुके हैं इसलिए उनकी बात पर भरोसा किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि चिदम्बरम आमतौर पर इंग्लिश में बोलते हैं और हिन्दी भी बहुत कम बोलते हैं। उन्होंने आज भोजपुरी में बोला है इसलिए उनकी बात को माना जाए। लेकिन सदस्य समय सीमा बताए जाने की मांग करते रहे, जिस पर चिदम्बरम ने कहा कि संसद के मॉनसून सत्र में इस बारे में सरकार अपना फैसला बताएगी लोकिन आज तक सरकार द्वारा इस पर कोई ठोस पहल नही की गई है।
भोजपुरी बहुत ही सुंदर, सरस, तथा मधुर भाषा है। भोजपुरी भाषा-भाषियों की संख्या  भारत   समृद्ध  भाषाओं-  बँगला, गुजराती  और  मराठी आदि बोलनेवालों से कम नहीं है। भोजपुरी  भाषाई परिवार के स्तर पर एक आर्य भाषा है और मुख्य रुप से पश्चिम  बिहार और पूर्वी  उत्तर प्रदेश  और उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। आधिकारिक और व्यवहारिक रूप से भोजपुरी  हिन्दी की एक  उपभाषा या बोली  है। भोजपुरी अपने शब्दावली के  लिये मुख्यतः संस्कृत  एवं  हिन्दी पर निर्भर है कुछ शब्द इसने  उर्दू से भी ग्रहण किये हैं।

विश्व  भोजपुरी सम्मेलन समय-समय पर आंदोलनात्म, रचनात्मक  और बैद्धिक तीन स्तरों पर भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति  के विकास में  निरंतर जुटा हुआ  है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन से ग्रंथ के साथ-साथ त्रैमासिक 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' पत्रिका का प्रकाशन हो रहा हैं। विश्व  भोजपुरी  सम्मेलन, भारत ही नहीं  वैश्विक स्तर पर भी भोजपुरी भाषा और साहित्य को सहेजने  और इसके प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। देवरिया (यूपी), दिल्ली, मुंबई, कोलकता, पोर्ट लुईस (मारीशस), सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में इसकी शाखाएं खोली जा  चुकी  हैं।

भोजपुरी को स्वीकार करने  के बाद आंदोलन यहीं नही रूकेगा। हमारी राजनीति को फिर भोजपुर राज्य की आवश्यकता पड़ेगी। जाहिर है कि इतने लंबे संघर्ष के बाद जब भोजपुर राज्य बनेगा तो उसमें भला हिंदी का क्या काम ! समस्त राजकीय कार्य भोजपुरी में होंगे और विद्यालय में अनिवार्य रूप से भोजपुरी पढ़ाई जाएगी । सांस्कृतिक विकास का सर्वथा नवीन परिदृश्य हमारे सामने आएगा। भोजपुरी भाषा को संविधान में शामिल किए जाने के बाद इसका प्रत्यक्ष प्रभाव विदेशों में रहने वाले भारतीय़ों के दिलों को स्पर्श करेगा एवं बिहार राज्य में निवेश की अपार संभावनाएं बढेगी।


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