Monday, June 10, 2013

भूख का सामासिक चित्रण

            
            भूख का सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक पहलू
            
                                                                               
                                           प्रेम सागर सिंह

हमारे समकालीन सोच-विचार की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि .गरीब के बारे में सिर्फ अमीर विचार करते हैं। गरीब अपने गरीबी के बारे में विचार करता नही पाया जाता। अपने बारे में इस कदर विचार विहीन होने के बारे में भी गरीब कभी नही बोलता। यह बात भी अमीर ही बताते हैं कि गरीब अपनी गरीबी के बारे में इस कारण विचार नही कर पाता क्योंकि वह गरीब है। उसके पास इतनी फुरसत नही कि अपनी गरीबी के बारे में सोचे-विचारे। यह काम भी उन्हे करना पड़ता है। इस तरह गरीबी के चिंतन में, हर विमर्श में गरीब एक विषय बना रहता है जिसका, जो उस जैसे नही है, अध्ययन करते रहते हैं। उसकी कहते रहते हैं। यानि कि जो उसके बारे में सोचते दुबले हुए जाते हैं वे ही गरीब से पूछे बिना उसके मुख्तार और पेशकार बन जाते हैं। योजना आयोग हो या ऐसा अन्य कोई आयोग या संस्थान वह जब गरीबी के बारे में सोचता विचारता है गरीबी के बहुत दूर बैठ कर गरीबी के बारे में सोचता नजर आता है। इससे विचित्र किंतु सत्य किस्म के विमर्श पैदा होते हैं जो नीति निर्धारण के काम आते बताए जाते हैं। इस तरह हर नीति निर्धारण, अपने चिंतनीय विषय से एक निश्चित दूरी बनाए रखता हैं।

नरेगा हो या मनरेगा या कैश ट्रांसफर और भोजन सुरक्षा योजना आदि का स्मरण करते हुए चिंतक अमीर वर्ग बार-बार एक ही सिरे पर पहुँच कर पूछते कि ठीक है यह सब है, लेकिन इनसे क्या होने वाला है!इस सबसे भ्रष्टाचार और मुद्रास्फीति बढेगी ही, सरकार पैसा कहाँ से लाएगी। यह वितर्क उस कोने से आता है जिसके पास अपनी हैसियत और सोचने की ताकत को बनाए रखने की एन.जी.ओ. गारंटी है। विचार के लिए जो अतिरिक्त ताकत चाहिए वह यहाँ जुटाई जा सकती है। विचार का ताकत से यह रिश्ता इन दिनों अक्सर दृश्यमान होने लगा है। सोचने- विचारने  वालों  की वार्ता शैली और देहभाषा एक सी है। कृशकाय कुपोषित की देहभाषा से कितनी अलग दिखती है वह देहभाषा।

मुक्ति की गारंटी देने वाले भले ही लेकिन इन दिनों विरल ही चले क्रांतिकारी हों या उदार वैश्विक नीति निर्धारक हों या स्थानीय चिंतक हों, उनका  नीति चिंतन अक्सर अपने विषय से नही जुड़ पाता। इसीलिए नीति पर नीति बनाने की अनीति उपहासास्पद बनती रहती है। आज भारत के हर कोने में भोजन की कमी के कारण कुपोषण एवं मृत्यु की खबरें हम सब तक पहुंचती है, सरकार के कानों में भी जाती है ,लेकिन इसका तुरंत समाधान नही होता है। कई जगहों पर ऐसे लोग मिलते हैं जो पूरा भोजन नही कर पाते। भूख से मरने वालों की खबरें आ-आकर चौंकाने लगती है। जब-जब भोजन सुरक्षा की बात चलती है तब कोई न कोई कहीं न कहीं भूख से मर जाता है। भूख की चर्चा से भूख नही भागा करती। कहने की जरूरत नही कि अत्यंत गरीबी और भुखमरी के निजी अनुभव के बिना होती बहसें, निर्धारित नीतियां और कार्रवाईयां भले इरादों के बावजूद उस भूख से बहुत दूर पड़ी रह जाती हैं जो एक ही साथ एक आर्थिक पहलू भी रखती है। सांस्कृतिक पहलू की बात महत्वपूर्ण है। भूख का सांस्कृतिक पहलू उसी भाषा में बेहतर अनुभव किया और समझा जा सकता है जो भूख के भीतर बनती है। भूख के भीतर बनती भाषा पहले पेट भरने की शर्त लगाती है बाद में बोलने लायक होती है। इसीलिए भूखा बोलता नही।भोजन का इंतजार करता है। जरा, दलितों की आत्मकथाएं पढ़े, उनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग भीख और भोजन के बीच बनते  बिगड़ते रहते हैं।

हमारी तमाम भाषाओं की सबसे बड़ा सीमा यह है कि वे भरे पेट की भाषाएं हैं। भूखे की भाषा नही है। भूख और भूखे का अनुभव वहां उधार लिया जाता है। यह अनूदित होकर आता है यहीं भोजन नीति की राजनीति घुसती है और भूख के उपचार के विचार को बांट जाती है। जिन अंचलों में गरीबी है, जो पूरा दाना पानी नही पाते उनकी भाषाएं किसी हद तक भूख के पास की भाषाएं हैं जो अक्सर मातृभाषाएं हैं। उनसें भूख किसी कहानी किसी गीत की तरह आती है।
                      
हमारे साहित्य में भूख के अनुभव के विकट दृश्य हैं जो खुद बताते हैं कि भूख का माध्यम मातृभाषाएं हैं, वो बताती हैं कि भूख पहले भी रही है। भूख का जिक्र मातृभाषाओं में लिखे-कहे गए साहित्य में आता है। कवि और कथाकारों ने भूख को जब-तब अपना वियय बनाया है. जब-जब ऐसा हुआ है तब-तब भूख का वर्णन किसी नीति निचोड़ू से कहीं अधिक मार्मिक और व्याकुल कर देने वाला होता है। जब हम अपने भरे पेट को भूलकर एक पल के लिए अपनी ही भूख के बारे में सोच कर डरने लगते हैं।

भूख की सारी भाषाओं में भूख के कुछ अनुभवित मुहावरें भी हैं जो कि बुभुक्षा के बारे में पहले हुए सोच विचार को बताते हैं। वे तमाम मुहावरें एवं अभिव्यक्तियां जितनी सांस्कृतिक है उतनी ही आर्थिक भी हैं, राजनीतिक भी हैं। जिसे भूख की पीड़ा न सताई उसे भूख का विचार किस तरह सता सकता है! एक कहावत चली आती है जाके पैर न फटी वेवाई सो का जाने पीर पराई!” इस मुहावरे का मर्म वही जान सकता है जिसकी बिवाई फटी हो। बिवाई तब फटती है जब नंगे पैर कठोर मार्ग पर चलें, गरमी और सर्दी  में चले, पैर खुले रहें यानि उपानह रहित रहें। बिवाई गरीबों की देन है।

भूख का दूसरा पहलू सांस्कृतिक है:  भूखे भजन न होई गुपाला ये लेहुं अपनी कंठी माला! जाहिर है कि भूख नया विषय नही है, हिंदुस्तान में यह हमेशा से रहा है। इन दिनों भूख के शास्त्र को अर्थशास्त्री एवं राजनीतिक गढते है जो एक बार में एक नीति से सब भूखों तक भोजन पहुंचाने का उद्यम करते हैं लेकिन हर खाद्य नीति भूखे तक पहुंचते-पहुंचते गड़बड़ा जाती है। भूख का शास्त्र भूखे का नही बन पाता। कुपोषण का उपचार नही कर पाता। भूख का हर शास्त्र कुपोषण से जुड़ा है और कुपोषण सप्लाई में उतना नही कि जितना कि बनी और बना दी गई आदतों से जुड़ा है।

जो लोग भूख को, गरीबों की कैलोरी से जोड़कर चलते हैं वे यह तक बताते हैं कि इतनी दाल इतना भात इतना सब्जी से इतनी कैलोरी मिल सकती है। लेकिन हिंदुस्तान के जो भरे पेट हैं वे इसका हिसाब नही रख पाते कि वे इतनी कैलोरी खाते हैं! स्वाद के संस्कृति में रोटी दाल गिन कर नही खाई जाती। भर पेट खाने को ही खाना कहते हैं। एक बार पुन: कहना चाहूंगा कि भूख जितना आर्थिक प्रश्न है उतना ही सांस्कृतिक भी। निराला जी की एक कविता है  भिखारी जिसमें भिखारी का जो वर्णन है वह अब तक साहित्य में प्रामाणिक है: -

वह आता,
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता,
पेट पीठ मिलकर है एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुठ्टी भर दाने को,
भूख मिटाने को,
मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता।

इस तरह हम देखते हैं कि पूरी कविता में वह भिखारी हमारे भरे पेट को अपराध की तरह बताता है। इसीलिए हम उसकी यथार्थवादी खूबसूरती की चर्चा करते हैं, भूखे के अनुभव को महसूस करने की जगह प्रगतिशील सौंदर्य दिखाने लगते हैं। उसी तरह प्रेमचंद की कहानी कफनभूख और भोजन का अनुभव कराने वाली है। जचगी के दौरान घर में मर चुकी बहू के लिए घीसू, माधव धनीमानियों से मांग कर जब कफन खरीदने बाजार में आते हैं तो कफन लेने की जगह सब्जीपूरी जलेबी और शराब में पैसा खर्च कर देते हैं और गाना गाने लगते हैं:  ठगिनी क्यों नैना झमकावै ! पता नही कि वे इसके जरिए भूख के बारे में कुछ कह रहे हैं या मर चुकी बहू के बारे में या पैसे के बारे में! लेकिन भूख उन्हे जिस कदर का बेगानापन देती है, सारी कहानी उसका निचोड़ है। कहने का मतलब यह है कि भूख के शास्त्र को पहले मातृभाषा में होना होगा फिर उसे उसके सांस्कृतिक पहलूओं से जुड़ना होगा तब जाकर आप उस भूख के पास पहुंच पाएंगे जो आप तक नही आई है। भूख का शास्त्र भूखे के अनुभव से जुड़े बिना सही नीति नही बना सकता।
                    
                         
                               (www.premsarowar.blogspot.com)