Monday, February 7, 2011


अपने पिछले पोस्टों में मैने ‘अज्ञेय” जी की रचनाओं को पोस्ट किया था एव लोगों ने इस प्रयास को सराहा था। इस बार मैं सुदामा प्रसाद ,’धूमिल’ जी की बहुचर्चित रचना ‘कविता’ पोस्ट कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ की यह रचना भी अन्य रचनाओं की तरह आपके अंतर्मन को सप्तरंगी भावनाओं के धरातल पर आंदोलित करने के साथ उनके तथा मेरे प्रति भी आप सब के दिल में थोड़ी सी जगह पा जाए। मुझे आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप सब अपना COMMENT देकर मुझे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ अपनी प्रतिक्रियाओं को भी एक नयी दिशा और दशा देंगे। धन्यवाद।।
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कविता

उसे मालूम है कि शव्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रूचि नही-
आदत बन चुकी है

वह किसी गँवार आदमी की उब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी
एक संपूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिस में भींगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
जाती है और कविता।
हर तीसरे पाठ के बाद

नही-अब वहां अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, हो सके तो बगल से गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलुस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक्त इतना ही काफी है

वह बहुत पहले की बात है
जब कही, किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है
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Tuesday, February 1, 2011

इस बार मैं ‘अज्ञेय’ जी की निम्नलिखित कविता प्रस्तुत कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ कि अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी आपके दिल में उनके तथा मेरे प्रति भी थोड़ी सी जगह पा जाए।
जाने वाले चले जाते हैं, केवल उनकी यादें ही रह जाती हैं। उनको याद करने के बहाने ही सही, अपनी टिप्प्णी देकर उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करना ही हम सब के लिए दिवंगत आत्मा के प्रति एक समर्पण होगा एक सच्ची विनम्र श्रद्धांजलि होगी अन्यथा हम सब के लिए हिंदी ब्लाग से जुड़ा रहना अर्थहीन सिद्ध होगा।सुझाव है-इस क्षेत्र में प्रवेश करते समय हमें इस वास्तविक को स्वीकार करना पड़ेगा कि हम अपने प्रकाशस्तम्भों के चिर-सामीप्य में रहकर ही साहित्य की सच्ची सेवा कर सकते हैं।

कितनी नावों में कितनी बार

कितनी दूरियों से कितना बार
कितनी डगमग नावों में बैठकर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हे न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रूपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल

कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नही बनते
केवल चौधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य -
सत्य नही अंतहीन सच्चाइयां.......
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त......
कितनी बार!

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