Sunday, May 17, 2015

राजेंद्र परदेशी की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति

          कथाकार राजेन्द्र परदेसी..... एक विशेष अध्ययन .. उनका साहित्यिक प्रतिबिंब

                                                प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह
हिंदी कहानी ने अपनी विकास यात्रा के शताधिक वर्ष पूरे कर लिए हैं | समकालीन साहित्य में हिंदी कहानी ने लगातार एक केंद्रीय विधा के रुप में अपनी उपस्थिति दर्ज करार्इ है| कारण चाहे जो भी हो, कहानियों के संग्रह और उपन्यास जितनी संख्या में सामने आ रहे हैं, उतनी संख्या में शायद ही किसी और विधा की किताबें आ रही हैं | ऐसे में हमारे समय और समाज का प्रतिनिधित्व अगर साहित्य में कहीं हो रहा है तो वे कहानियां और उपन्यास ही हैं |
कथाकार राजेन्द्र परदेसी लंबे समय से कहानियां लिख रहे हैं, इतने लंबे समय से कि उनकी पहचान मूलत: कथाकार की ही है जबकि इस बीच उनका एक कविता संग्रह, एक साक्षात्कार संग्रह, एक लघुकथा-संग्रह, एक हाइकु संग्रह, भोजपुरी लोककथाओं का एक संग्रह और अभी बिल्कुल हाल ही में “सृजन के पथिक” शीर्षक से एक निबंध संग्रह भी आ गया है | कहानियों का उनका एकमात्र प्रकाशित संग्रह “दूर होते रिश्ते” है जो 2010 में सामने आया है| इस संग्रह में उनकी कुल 16 कहानियां संकलित हैं | फिलहाल इस लेख में इसी संग्रह में प्रकाशित कुछ कहानियों का साहित्यिक और समाजशास्त्रीय विवेचन किया जा रहा है क्योंकि यह संग्रह प्रकाशित जरूर 2010 में हुआ है लेकिन इसका रचनाकाल बहुत ही व्यापक है | उदाहरण के लिए शीर्षक कथा “दूर होते रिश्ते” उनकी नौवें दशक की लिखी एक चर्चित कहानी है जो कि परदेसी जी की शुरुआती कहानियों में से है और यह कहानी जब प्रकाशित हुर्इ थी तो इसने सुधी पाठकों-आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया था |
“दूर होते रिश्ते” गांव के जीवन से महानगरीय जीवन की ओर संक्रमण करते मध्यम वर्गीय जीवन संघर्ष की स्वाभाविक परिणति है | सुधी पाठक जानते हैं कि पारिवारिक संबंधों का टूटना और चुकना ‘नयी कहानी’ में पहली बार बड़ी खूबी से चित्रित हुआ है | आधुनिक जीवन स्थितियों के कारण इंसानी रिश्ते और पारिवारिक संबंध सर्द निष्ठुरता में बदल गए | इसीलिए राजेन्द्र यादव ने भी नयी कहानी-काल की सारी कहानियों को “नए संबंधों के बनने की कहानियां नहीं, संबंधों के टूटने की कहानियां” कहा है | परदेसी जी की यह कहानी एक प्रतिनिधि कहानी है जिसमें संबंधों के टूटने और चुकने का बखूबी चित्रण हुआ है | यह अपने समय की भी एक प्रतिनिधि कहानी है | इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कथाकार ने पात्रों का नाम तक प्रातिनिधिक ही रखा है | राम, सीता और दशरथ जो तीन नाम कहानी के कथा तत्व को आगे बढ़ाते हैं, कथाकार ने इनका चयन यूं ही अनायास नहीं किया है | ‘राम’ की शहर में नौकरी लग जाती है | पिता ‘दशरथ’ को मानों मुंह मांगी मुराद मिल जाती है | इन सबके बीच ‘सीता’ एक अलग ही अन्तर्द्वन्द्व से गुजरती है | सास-ससुर की सेवा के लिए गांव में रहती है तो ‘राम’ की याद आती है और बुढ़ापे में ‘दशरथ’ को गांव में छोड़कर ‘राम’ के साथ शहर के लिए निकल पड़ती है तो आंखों से अश्रुधाराएं थमने का नाम नहीं लेतीं | ‘राम’ का अन्तर्द्वन्द्व भी कुछ कम नहीं है | दरअसल यह आजादी के बाद तेजी से हुए शहरीकरण की भी कहानी है जहां गांव में रह जाते हैं सिर्फ बूढ़े मां-बाप | यह प्रक्रिया आज तक निरंतर जारी है और कर्इयों के ‘राम’ तो एक बार शहर की चकाचौंध में गुम हुए तो ऐसे गुम हो जाते हैं कि ‘दशरथ’ की उन्हें कोर्इ खोज-खबर भी नहीं होती |
इसी संग्रह की एक दूसरी कहानी ‘ मोहभंग’ ऐसी ही एक कहानी है जिसमें एक पिता अपने ‘राम’ को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए पूर्वजों से प्राप्त सारी जमीन बेच देता है लेकिन कहानी के अंत तक आते-आते उसके प्रति संतान का उपेक्षापूर्ण रवैया पाठक को हिलाकर रख देता है | ये कहानी भी किसी एक ‘दशरथ’ की नहीं है, उन सैकड़ों- हजारों दशरथों की है जिनके राम कहीं खो गए हैं | यहां कैफी आज़मी की बेसाख्ता याद आती है :-
"इस दौर के ही राम ने दशरथ से कह दिया,
गर हो सके तो आप ये घर छोड़ दीजिए |"
हमारे समय की तमाम चिंताओं में सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता भी प्रबुद्ध जनों के साथ-साथ आम जनता के बीच भी लगातार चिंता और बहस का विषय रही है| दरअसल इसके बीज तो आजादी के साथ ही पड़ गए थे जब धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हो गया और लोगों के आपसी विश्वास को गहरा आघात लगा | हिंदी के कथा साहित्य में जहां सांप्रदायिकता की समस्या को रेखांकित करने का कार्य हुआ है, वहीं इस देश के हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विश्वास बहाली के उपाय भी कम नहीं हुए हैं | असल में ये उपाय समाज में हुए हैं और वहीं से साहित्य में इनको अभिव्यक्ति मिली है | कठिन से कठिन समय में भी साम्प्रदायिक सौहार्द की ऐसी-ऐसी मिसालें सामने आ जाती हैं जो नज़ीर बन जाती हैं, समाज को अंधेरे से उजाले की ओर ले जाती हैं | राजेन्द्र परदेसी की कहानी “विश्वास का अंकुर” ऐसी ही एक कहानी है जिसका मूल स्वर आस्था और विश्वास का है | कहानी का नैरेशन अपने में औपन्यासिक तत्वों को समेटे हुए है | यह कहानी पढ़ते हुए खुशवंत सिंह की “ट्रेन टू पाकिस्तान” याद आती है |
चरमराते सामंतवाद की कहानी है “संघर्षों के बीच” जिसमें पीढ़ियों का अंतराल और संघर्ष सामने आया है | आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन और बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लिए जो कानून बने, जमीनी स्तर पर उन्होंने जिन सामाजिक परिवर्तनों की शुरुआत की, उन्हें जानना हो तो “संघर्षों के बीच” जैसी कहानियां एक अच्छा साधन हो सकती हैं | इस कहानी में सुखद आश्चर्य यही है कि पुरानी परंपराओं से जुड़े हुए ठाकुर मंगल सिंह समझने को तत्पर हैं कि नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की स्थापित मान्यताओं को ज्यों-का-त्यों स्वीकारने को कभी तैयार नहीं होगी, इसलिए टकराव से अच्छा यही होगा कि समय के साथ समझौता करके सम्मानजनक स्थिति कायम रखें | परदेसी जी की इस कहानी का ठाकुर भी वक्त की बयार के साथ पीठ देने वाला पात्र है | लड़ार्इ-झगड़े की बजाय उसे सम्मानजनक रास्ते से प्रतिष्ठा बचाने की समझ है | आदर्श स्थिति तो यही है कि आपसी मतभेदों को बहस-मुबाहिसों और पर-पंचायत से ही सुलझा लिया जाय |
इसी क्रम में “नींव पड़ चुकी है” कहानी कलेवर में तो एक छोटी कहानी है लेकिन इसका कथानक महाकाव्यात्मक है | जहां “संघर्षों के बीच’ के ठाकुर मंगल सिंह मंगरुवा से अपने टकराव को बचाकर समझौता करके अपनी सम्मानजनक स्थिति कायम रखने में यकीन करते हैं, वहीं “नींव पड़ चुकी है” के मिसिर जी मंगरुवा को फर्जी मुकदमों में फंसाकर टकराव का रास्ता मोल लेते हैं | लेकिन मंगरुवा भी कहां पीछे हटने वाला है | मंगरुवा को पुलिस पकड़कर ले जाती है | उसकी पत्नी अपने बर्तन और गहने लाला के यहां गिरवी रखकर महीनों शहर के चक्कर काटती है और तब कहीं जाकर उसकी जमानत करा पाती है लेकिन उसके हौसले पस्त नहीं हैं क्योंकि उसके अंदर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को कायम रखने के लिए एक मजबूत नींव पड़ चुकी है | यह अनायास नहीं है कि दोनों ही कहानियों में कहानीकार ने ‘मंगरुवा’ नाम का एक ही पात्र संघर्ष के केंद्र में रखा है | यह भी अनायास नहीं है कि अगर आप राजेन्द्र परदेसी की कहानियों पर गौर करें तो पायेंगे कि अपनी तमाम कहानियों में कहानीकार को कुछ खास नामों से इतना मोह है कि ये नाम पाठक के सामने अलग-अलग कहानियों में बार-बार आते हैं | दरअसल कथाकार राजेन्द्र परदेसी ने अपने पात्र समाज से ही ग्रहण किए हैं और इसे वे स्वीकार भी करते हैं जब वे कहते हैं कि वे उन सभी पात्रों के प्रति आभार व्यक्त करना चाहेंगे जिनकी जिंदगी से प्रेरणा ग्रहण कर उन्होंने अपनी कहानियों को गढ़ा है |
तभी तो कथाकार राजेन्द्र परदेसी का ध्यान उस “आधुनिकता की आंधी” पर भी है जिसमें मध्य वर्ग के जीवन मूल्यों के चिथड़े उड़ गए हैं | यह कहानी उदारीकरण के बाद मध्य वर्ग में आर्इ अप्रत्याशित और औचक सम्पन्नता के परिणामस्वररूप पारिवारिक मूल्यों के बिखर जाने की कहानी है | बहु राष्ट्रीय कंपनियों ने पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी खड़ी कर दी है जिसके पास पैसों की इफरात है | परिणामस्वरूप भारत के शहरों में एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग तैयार हो गया है जिसके लिए शापिंग मॉल्स हैं, मल्टीप्लेक्सेज हैं, मंहगे-मंहगे फ्लैट हैं लेकिन अगर कुछ नहीं है तो वो है आपसी रिश्तों में संवेदना और ऊष्मा | आधुनिकता की आंधी के साथ ही आये हैं टूटते बिखरते मूल्य और संबंधों में बिखराव जिसमें दाम्पत्य संबंध तक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके हैं |
“आधुनिकता की आंधी” कहानी के बरअक्स “गृहस्थी” कहानी को रखकर पढ़ें तो मध्यम वर्गीय आर्थिक जीवन की कर्इ परतें खुलती हैं | दोनों कहानियों को आमने-सामने रखें तो समझ में आता है कि मध्य वर्ग में भी कर्इ आर्थिक स्तर हैं और उनमें भी परस्पर इतना अंतर है कि दोनों को एक ही वर्ग में रखना अटपटा लगता है | उसी मध्य वर्ग में वह नव धनाढ्य वर्ग भी है जिसे अप्रत्याशित और औचक संपन्नता प्राप्त हो गर्इ है जो उससे संभाले नहीं संभल रही तो “गृहस्थी” कहानी का मध्य वर्ग भी उसी में है जो दैनिक आधार पर अपनी जिंदगी को जैसे तैसे जिए जा रहा है | सुधी पाठक जानते हैं कि ‘नयी कहानी’ में आकर मध्य वर्ग पूरी तरह कहानी के केंद्र में आ गया | इसका एक कारण तो यह भी है कि हिंदी के ज्यादातर कहानी लेखक उसी मध्य वर्ग से आये जिसे सामाजिक परिवर्तन का वाहक माना जाता है | ‘गृहस्थी’ कहानी पढ़ते हुए हिंदी के प्रख्यात कथाकार शैलेष मटियानी के जीवन संघर्ष की याद आ जाती है | मटियानी जी की पत्नी ने एक बार मटियानी जी से कहा था कि एक क्लर्क से शादी करके उनका जीवन ज्यादा सुखी होता | हिंदी के कर्इ लेखकों की आप-बीती जैसी है कहानी ‘गृहस्थी’ जिसमें पत्नी को लेखक पति की पुरानी पत्रिकाएं और कागज रद्दी में बेचे जाने लायक ही लगती हैं |
सहज मानवीय कमजोरी को उजागर करती कहानी है “तार का बुलावा” जिसमें मकान मालिक अपने किरायेदार को अविवाहित समझकर उसके सेवा-सत्कार में लगा रहता है लेकिन किरायेदार के गांव जाकर अपनी कन्या के लिए उसका हाथ मांगने के क्रम में जब सत्य से उसका साक्षात्कार होता है तो मानों उस पर वज्रपात होता है और उसका व्यवहार बिलकुल बदल जाता है | परदेसी जी की इस कहानी की कथा-योजना ऐसी है कि अंत तक पाठक की जिज्ञासा बनी रहती है और पाठक जब कहानी के अंत तक पहुंचता है तो मुस्कुराये बिना नहीं रह पाता | यह कहानी पढ़कर विख्यात कथाकार ओ. हेनरी की कहानियों की याद आर्इ जिनका अंत हमेशा चौंकाने वाला होता है | ओ. हेनरी ने इस कला में महारत हासिल कर ली थी जिसकी एक झलक इस कहानी में भी है |
“विपरीत दिशाएं” कहानी गांव से महानगर में जा बसे भार्इ और गांव में ही पीछे छूट गए भार्इ के हितों के टकराहट की कहानी है जिसमें शहर में रहने वाले भार्इ को गांव का अपना हिस्सा बेचकर शहर में फ्लैट खरीद लेने की जितनी हड़बड़ी है, उसमें उसकी पत्नी और बच्चों का भी जबर्दस्त दबाव काम कर रहा है, वह करे भी तो क्या ? एक तरफ उसका अतीत और गांव के भइया-भाभी हैं तो दूसरी तरफ उसका वर्तमान और पत्नी तथा बच्चे | ऐसे में दोनों भाइयों के रास्ते तो अलग होंगे ही, उनकी दिशाएं विपरीत होंगी ही |
परदेसी जी की ‘युक्ति’ कहाने पढ़ते हुए प्रेमचंद का आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद याद आता है | दो पदों के लिए ‘ऊपर से’ दो नाम आ जाने के बाद भी चयन मंडल जिस तरीके से तीसरे प्रतिभाशाली उम्मीदवार के नाम की भी सिफारिश कर देता है और उसके लिए जिस तरीके से पद सृजित कर उसे समायोजित किया जाता है, वह अपने में अनोखी ‘युक्ति’ है | बेर्इमानी और भ्रष्टाचार वाली व्यवस्था में भी कर्इ बार परस्पर विरोधी शक्तियां एक दूसरे को ‘न्यूट्रल’ कर देती हैं और अंतत: अन्याय होते-होते रह जाता है | यह भी क्या कम सुखद है ?
आजादी के बाद से लेकर अभी हाल तक भ्रष्टाचार से बिलबिलाती जनता के द्वारा अनेक चरणों में कर्इ-कर्इ बार जनांदोलनों का सहारा लेकर सत्ताधीशों को स्पष्ट संदेश देने की लगातार कोशिशें हुर्इ हैं कि भ्रष्टाचार इस महादेश की जड़ों को खोखला कर रहा है और समय रहते इस पर लगाम कसने की कोशिश नहीं की गर्इ तो आने वाली पीढ़ियों को हम एक साफ सुथरा भारत नहीं दे पायेंगे | “जांच की औपचारिकता” और “जज़िया” राजेन्द्र परदेसी की दो ऐसी कहानियां हैं जिनका ‘अंडरलाइंग टोन’ एक ही है और वह है कार्यालयों की कार्य संस्कृति में संस्थागत रूप ले चुके भ्रष्टाचार को रेखांकित करना | समस्या यह होती है कि व्यक्तिगत स्तर पर तो कोर्इ र्इमानदार व्यक्ति र्इमानदार बना रह सकता है और ऐसा करने में उसे कोर्इ व्यवधान नहीं है लेकिन वही व्यक्ति जब किसी ऐसी संस्था का ‘पुर्जा’ बन जाता है जहां भ्रष्टाचार ने संस्थागत रूप ले लिया है, तो न चाहते हुए भी उसके लिए भारी नैतिक दुविधा पैदा हो जाती है | ‘जज़िया’ कहानी का शशांक ऐसा ही एक व्यक्ति है जिसका र्इमानदारी से नौकरी करने का भ्रम बहुत जल्द टूट जाता है और वह एक ऐसे रास्ते पर खड़ा होता है जहां एक तरफ तो पारिवारिक मजबूरी में नौकरी पर आंच न आने देने की उसकी ख्वाहिश है तो दूसरी तरफ ऐसा करने के लिए विभाग की कार्य संस्कृति का अनुकरण करने की उसकी विवशता भी है |
राजेन्द्र परदेसी की कहानियों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वे एक ऐसे कथाकार हैं जो अपने समय और उसके सवालों से मुठभेड़ करते हैं, जीवन और जगत के सार्वजनीन प्रश्नों से जूझते हैं और अपनी कहानियों में पूरी आस्था और विश्वास के साथ एक बेहतर दुनिया रचने की ओर आगे बढ़ने का रास्ता तलाशते हैं | यह एक ऐसा सफर है जिसे प्रत्येक रचनाकार को तय करना होता है और इस सफर में जीवन और जगत के प्रति आस्था ही उसे निरंतर गतिशील रखती है | परदेसी जी निरंतर गतिशील हैं, निरंतर रचनाशील हैं | उनकी यही गतिशीलता और रचनाशीलता आश्वस्त करने वाली है |
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