छाते का सफरनामा
(प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह)
हम अपने व्यक्तिगत जीवन में जब किसी का साथ पकड़ते हैं तो मन में एक ही भाव
ऊभर कर सामने आता है कि यह साथ कभी नही छोड़ेंगे लेकिन हम अवसर पाते ही इन सारी
बातों को भूल जाते हैं एवं स्वार्थी और अवसरवादी बन जाते हैं। यह बात जिगर है कि
फिर जब अवसर आता है तो उसके सामीप्य की घनी छांव में कुछ दिन बिताने के लिए कितने
विकल और संत्रस्त होने लगते हैं। यह भाव हमारे अवसरवादिता का द्योतक नही तो और
क्या है। मानवीय सरोकारों के साथ इस कथ्य को जोड़कर देखा जाए तो हम इस निष्कर्ष पर
पहुंचेंगे कि हमारी मानसिकता की मंजिल उस पड़ाव पर ठहरती नजर नही आती जहां उसे
स्थिर दिखना चाहिए। ठीक इसी प्रकार की भावनाओं के वशीभूत होकर हम छाता के साथ भी
वही व्यवहार करते हैं। वरसात और गर्मी में हम उसे अपना संगी बना लेते हैं एवं दोनों
का असर जब कम होने लगता है तो उसे घर के किसी ऐसे उपेक्षित जगह पर रख देते हैं
जहां वह अपने भाग्य को कोसते रहता है। इस घोर निराशा एवं अवसाद की स्थिति में भी वह
शायद यह सोचकर आशान्वित एवं प्रफुल्लित रहता है कि समय आने पर मेरी अहमियत अपना
रंग दिखाएगी। आईए,एक नजर डालते हैं, इस निर्जीव वस्तु की महता एव सफरनामे पर जो हम
जैसे सजीव प्राणी के हृदय में भी थोड़ी सी जगह बनाए रहता है।
तेज धूप और वर्षा से बचने के लिए छाते का प्रयोग किसी न किसी रूप में प्राचीन
काल से ही होता रहा है। शुरू में छाते पर उच्च वर्ग के लोगों का ही एकाधिकार था।
जन साधारण को छाता लगाने का अधिकार नही था। धीरे-धीरे जन साधारण को अधिकार प्राप्त
हुआ कि वे अपनी सुविधा अनुसार छाते का उपयोग कर सकें। इसके लिए इंग्लैंड के “जॉन्स होन्वे” की कोशिश की विशेष भूमिका रही। इंग्लैंड में जब
जॉन्स होन्वे के प्रयत्नों से लोगों ने छाते का प्रयोग शुरू किया तो तो वहां बग्घी
चालकों ने हड़ताल कर दी। बग्गी वालों का कहना था कि पहले बरसात होने पर सड़क चलते
लोग फटाफट बग्घियों मं बैठ जाते थे। लेकिन अब लोग अपने छाते खोल लेते हैं और
बग्गियों में बैठने की जरूरत नही समझते। इससे से बग्घी वालों की आमदनी पर छातों के
कारण बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा। इस हड़ताल के बावजूद
छातों का उपयोग रूका नही।
छाते के साथ कुछ रोचक घटनाएं भी जुड़ी हैं। पुराने जमाने में सबसे बड़ा छाता
बर्मा के राजाओं का होता था। वहां का बादशाह एक के ऊपर दूसरा और दूसरे के ऊपर
तीसरा, इस प्रकार कुल सात छाते लगाता था, जिससे इस छाते को सबसे ऊंचा छाता कहा जा
सकता है। यूरोप में छाता, पहले महिलाओं में अधिक लोकप्रिय था। पुरूषों ने इसे बाद
में स्वीकार किया। पुराने जमाने में सबसे बड़े राजा, महाराजाओं और धर्माधिकारियों
के ऊपर छाता लगाकर चलने का काम गुलाम किया करते थे, लेकिन यह कार्य वे इतने
सावधानी से करते थे कि उस छाते की छाया स्वयं उसके शरीर पर न पड़े। ऐसा होने पर
उन्हे दंड मिलता था। चीन में स्त्रियां छाते के समान बड़े-बड़े हैट पहनती थीं।
सत्रहवीं शताब्दी तक विश्व के अधिकतम देशों में छातों का प्रचलन शुरू हो गया। धीरे-धीरे
इसके प्रयोग में विविधता भी आई।सरकस और जादू के तमाशों में भी छाते की उपयोगिता
बढ़ी। चौराहों पर ड्यूटी देने वाले सिपाही के लिए भी छाता उपयोगी समझा गया और उसके
लिए ऐसे छाते की विशेष व्यवस्था की गई,जो उसकी वर्दी के साथ लगा रहे और उसके हाथ
खुले रहें। छातों की किस्मों में भी क्रातिकारी परिवर्तन हुए। सीधे छाते, मुड़ने
वाले छाते, महिलाओं के छाते, बच्चों के छाते, पारदर्शक छाते और वातानुकूलित छाते।
भारत में छातe
बनाने का व्यवसाय 1860 से शुरू हुआ। लेकिन उस समय इस व्यवसाय से मुख्य कार्य केवल आयातित सामग्री को
जोड़ने का होता था। छाते का काला कपड़ा इंग्लैंड से आता था और उसकी डंडी और व
तीलिया जर्मनी और इटली से मंगवाई जाती थी। उन दिनों आम जनता में ‘बंवू छाते” भी काफी लोकप्रिय थे। इन छातों को बनाने के लिए बांस के एक डंडे में बांस की
पतली खपचियां लगाकर उन पर कपड़ा या तालपत्र लगा दिए जाते थे ।बाद में छाते का सारा समान
धीरे-धीरे भारत में ही बनाया जाने लगा। 1902 में मुंबई में पहला कारखाना स्थापित हुआ जो धीरे-धीरे विकसित होता चला गया। छातों
की अनेक किस्में और डिजाईन बने, जिससे इनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। आज हमारे
यहां लगभग एक हजार कारखानें में छाते बनाए जाते हैं, जो प्रतिवर्ष लगभग तीन करोड़
छाते बनाते हैं। स्वदेश में उपयोग के अतिरिक्त अपने इन छातों का हम बड़े पैमाने पर
निर्यात भी करते हैं। छातों का अधिकांश निर्यात अरब देशों में होता है।
नोट:- अपने
किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक
साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं
किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया
ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से
प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका
प्रेम सागर सिंह
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बहुत ही रोचक और ज्ञानभरी पोस्ट..
ReplyDeleteशानदार जानकारी बहुत खुबसूरत
ReplyDeleteछाते के विषय पर ज्ञानवर्धक प्रस्तुति,,,,बधाई प्रेम सागर जी,,,,
ReplyDeleteश्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ
RECENT POST ...: पांच सौ के नोट में.....
पहली पंक्ति से अंतिम पंक्ति तक छाता चला गया आपका तथ्यात्मक आलेख.. बहुत ही रोचक जानकारियाँ!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी देती पोस्ट ..आभार
ReplyDeleteब्लॉग जगत के सभी मित्रों को कान्हा जी के जन्मदिवस की हार्दिक बधाइयां ..
ReplyDeleteहम सभी के जीवन में कृष्ण जी का आशीर्वाद सदा रहे...
जय श्री कृष्ण ..
जन्माष्टमी की शुभकामनायें!
ReplyDeleteकृष्ण जी का आशीर्वाद सदा रहे!!
जय श्री कृष्ण !!!
जन्माष्टमी की शुभकामनायें!
ReplyDeleteवाह!!! प्रेम सागर जी आज इस पोस्ट के माध्यम से ऐसी जानकारी मिली जिसका पता ही नहीं था या कह सकते हैं कभी जानने की कोशिश ही नहीं की हार्दिक आभार आपका इस ज्ञान को सांझा करने के लिए आपको बधाई एवं शुभकामनायें
ReplyDeleteबढि़या, रोचक प्रस्तुति.
ReplyDeleteबारिश के इस मौसम में छाते का सफरनामा बडा रोचक और सामयिक रहा । छाते से पहले लोग धूप से बचने के लिये टोपी, पग़डी साफा इत्यादी का प्रयोग करते थे जो अब काफी कम हो गया है ।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट .....छाते का सफरनामा और मनुष्य की अवसरवादी प्रवृत्ति पर उठाया गया प्रश्न समीचीन है
ReplyDeleteछाता को बस ओड़ना जानता था। परिचय आज हुआ।..बढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteछाते का इतिहास ... पहली बार ही इसके बारे में इतनी जानकारी मिली .... आभार ।
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