19वीं
शताब्दी के हिंदू समाज की सबसे विषम कुरीति : सती प्रथा
प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर
सिंह
19वीं शताब्दी को भारतीय समाज का ऐसा संधिकाल माना जा सकता है जहां से भारतीय
समाज एवं जीवन में नए परिवर्तनों की परंपरा प्रारंभ हुई। इस समय सामाजिक सुधारों
के लिए, विशेषकर स्त्रियों की स्थिति से संबंधित अनेक कार्यक्रम अपने देश में
अपनाए गए। इस समय स्त्रियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। यद्यपि धर्मशास्त्रों एवं
अन्य ग्रंथों में हिंदू
समाज में स्त्रियों की महिमा का गुणगान समय-समय पर किया गया लेकिन इस समय यह वर्ग
सर्वाधिक उपेक्षित था। उनका स्वतंत्र अस्तित्व जो वैदिक युग में प्रचलित था, समाप्त हो चुका था। स्त्री संबंधी
समाज में अनेक कुरीतियों का प्रवेश हुआ जिनमें कन्या बध, बाल विवाह, डाकन एवं सती
प्रथा प्रमुख है।
सती प्रथा 19वीं शताब्दी के हिंदू समाज की सबसे विषम कुरीतियों में से एक थी। पती के दिवंगत हो जाने पर
पत्नी का जीते जी पति के साथ जलकर मर जाना ही सती प्रथा के नाम से प्रचलित था।जो
स्त्रियां इस प्रकार जलकर मर जाती थी उन्हे लोग सती अथवा देवी का सम्मान देते थे।
सती के दो रूप थे एक ‘सहगमन’ एवं ‘अनुमरण’।
पति की मृत्यु पर पति के शव के साथ जल जाने को ‘सहगमन’ कहा गया तथा जब पति की अन्यत्र मृत्यु हो जाती थी तब बाद में उसकी भष्म या
पादुका लेकर पत्नी अग्नि में प्रवेश कर अपने प्राण त्यागती, उसे ‘अनुमरण’ की संज्ञा दी गई।
पूर्व मध्यकाल के आगमन तक इस प्रथा ने समाज में अपनी जड़ें अत्यंत दृढ़ कर ली।
य़थार्थ में सती प्रथा इस युग में वैधव्य दु:ख से त्राण पाने का साधन बन चुकी थी। नियोग प्रथा का समाज में विलोप होने तथा
पातिव्रत्य की उदात्त कल्पना के कारण विधवाओं के लिए सती जैसी क्रूर प्रथा का जन्म
हुआ। प्रारंभ में तो इस प्रथा के मूल में
ऐसा प्रतीत होता है कि जब अत्यंत दुखी नर-नारी असह्य पीड़ा, ग्लानि या किसी विषम
समस्या से अविलंब त्राण पाने के लिए आग में जलकर या पानी में डूबकर या पर्वत से
गिरकर प्राण त्याग देते थे। आमतौर पर सती होने वाली स्त्री अपने पति की मृत्यु के
बाद उसके शव के साथ सती होती थी लेकिन कभी-कभी अपने पति के बचने की आशा न देखकर वह
अपनी पति की मृत्यु से पूर्व ही सती हो जाती थी। ‘हर्षचरित’ से विदित होता है कि जब प्रभाकरवर्द्धन के जीवन
की आशा समाप्त हो गई तो ‘यशोमति’ निराश होकर अग्नि में कूदकर सती हो गई। पति की
मृत्यु पर सती होने की प्रथा तो प्रचुर थी लेकिन कई बार पुत्र की असामयिक मृत्यु
के कारण दुखित माताएं अपने पुत्र के शव को गोद में रखकर सती हो जाती थीं।
मुस्लिम आक्रमण के प्रारंभ तथा उनके राज्य स्थापना के साथ ही सती एवं जौहर की
घटनाओं में जबरदस्त वृद्धि हुई। इस समय हिंदू धर्म में जीवन शक्ति का पर्याप्त
ह्वास हुआ एवं समाज के लोग प्राणपण से इस
चेष्टा में लग गए कि कहीं वे विधर्मी न बन जाए। संभवत: इस प्रथा को कायम रखने के लिए समाज ने इसे प्रोत्साहित किया।
राजपूतों की पराजय के बाद राजपूत वीरांगनाओं द्वारा जौहर व्रत धारण करना उस मत
की पुष्टि करता है। मुस्लिम शासनकाल में स्त्री को केवल ‘भोग’ की वस्तु माना जाता था। अत: उस.युग में स्त्री का भविष्य सुरक्षित नही था। उस समय उसकी तीव्र इच्छा रहती
थी कि स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दे ताकि विधर्मी उसके सतीत्व से छेड़छाड़ न
कर सकें। कालांतर में समाज में यह धारणा भी प्रचलित हुई कि विधवा होने पर
स्त्रियां सच्चरित्र नही रह पाएंगी। अत: उनके लिए तथा कुल की प्रतिष्ठा के लिए भी यही हितकर होगा कि वे सती हो
जाएं। मुस्लिम काल में किसी शासक द्वारा
इसे पूरी तरह कानूनी तौर पर अवैध घोषित नही किया गया। यद्यपि यदा कदा इसे रोकने के
लिए कोशिश किया गया।
इस प्रथा का सबसे महत्वपूर्ण कारण मध्य युगीन मुस्लिम आक्राता थे। ब्रिटिश
संरक्षण के बाद राजपूत राज्यों के पारस्परिक युद्धों एवं बाह्य आक्रमणों का अंत हो
गया। शासकों एवं सामंतों के मध्य चलने वाले संघर्ष भी कम हुए। कतिपय शास्त्रकारों,
भाष्यकारों एवं लेखकों द्वारा इस कृत्य को पाप एवं आत्महत्या की संज्ञा दी गई। अत:19वीं शताब्दी के प्रारंभ में राजस्थान में इस
प्रथा की व्यापकता कम होती जा रही थी। 1829 में ‘लार्ड विलियम बेंटिक’ तथा ‘राजा राम मोहन राय’ के स्तुत्य प्रयास से इस प्रथा को अवैध घोषित किया गया। आगे चलकर सती की
घटनाओं को रोकने के लिए नए सिरे से आदेश पारित किए गए। सती में सहयोग करने वाले
परिवारों, संबंधित राज्याधिकारों एवं जगीरदारों को दंडित करने एवं अंग्रेज
अधिकारियों द्वारा संबंधित राज्य के नरेश से पदवी छीनने या उसके समारोह का
बहिष्कार करने की नीति अपनाई गई। नए आदेशों एवं नियमों के बावजूद 19वीं शताब्दी के
अंत तक कई राज्यों में सती की छिटपुट घटनाएं घटती रहीं।
वास्तव में सती प्रथा का उन्मूलन हिंदू समाज के सुधार की दिशा में मानवीय तथा
अत्यंत महत्वपूर्ण कदम रहा। शताब्दियों से स्त्रियों के साथ जो समाज में पाशविक
अत्याचार किया जाता रहा अब उससे से स्त्रियों को मुक्ति मिल गई। साथ ही कट्टरपंथी
समाज के नेताओं को भी चुनौती मिली जिससे हिंदू समाज में अनेक सुधार कार्यक्रम
अपनाए जा सके।
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सिहर जाती हूँ सोच कर ही कर....
ReplyDeleteभला हो ‘लार्ड विलियम बेंटिक’ तथा ‘राजा राम मोहन राय’जी का जो बंद किया इस कुप्रथा को...
बहुत अच्छी पोस्ट...
आभार
अनु
सोच कर ही डर लगता है
ReplyDeleteजिंदा जलना ...
कैसे होता होगा तब..
बहुत दुखद और पीड़ादायक स्थिति थी
महिलाओं की ...
इस विषय में आपने बहुत विस्तृत जानकारी दी...
आभार....
इस अच्छी जानकारी के लिए,,,आभार प्रेम सरोवर जी,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: जिला अनूपपुर अपना,,,
धन्यवाद शास्त्री जी ।
ReplyDeleteराजा राम मोहन राय की याद दिलाने के लिए आभार आपका !
ReplyDeleteसती प्रथा के बारे में विस्तृत जानकारी .... अत्यंत अमानवीय प्रथा को रोकने के लिए राजा राम मोहन राय हमेशा याद किए जाएँगे
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी
Deleteयह प्रथा अमानवीय तो थी लेकिन जब व्यक्ति आत्मरक्षा में अक्षम हो तो उसे आत्मघात का अधिकार है.
ReplyDeleteस्वास्थ्य से सम्बंधित कभी भी किसी भी जानकारी के लिए आप फोन भी कर सकते हैं.
धन्यवाद अल्का सारवत जी ।
Deleteधन्यवाद अल्का जी।
ReplyDeleteसती प्रथा पर बहुत सारगर्भित आलेख...शुक्र है आज हम इस कुप्रथा से बहुत दूर हैं..
ReplyDeleteसती प्रथा कि सम्पूर्ण जानकारी देता एक बहुत सारगर्भित लेख.... अनेक विचारणीय मुद्दों पर बहुत ही शोध परक विचार प्रस्तुत किए है आपने .
ReplyDeleteसालिनी जी,
ReplyDeleteजब कहीं भी किसी विषय पर विचारों का आदान प्रदान होता है, उस समय उम्र एवं अनुभव की बाध्यता नही होती है। मैं भी कविता लिखता हूं, उसे संजोकर अपने डायरी के पन्नों मे ही लिख कर संजो लेता हूं । अब तो ऐसा लगता है कि व्लॉग से जुड़ा रहना मेरे लिए संभव नही है क्योंकि यहां सच कहना एक अपमान जैसा है। किसी पोस्ट पर यदि कोई यह टिप्पणी देता है कि जनमाष्टमी या होली या स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं तो यह comment मुझे दोलायमान कर जाता है। यहां हम एक दूसरे से कुछ सीखने के लिए जुड़े हैं, किसी के कटाक्ष के लिए नही । मेरा पोस्ट आपको अच्छा लगा यही मेरे लिए काफी है । धन्यवाद।
सती प्रथा पर बहुत सारगर्भित लेख
ReplyDeleteधन्यवाद रमाकांत सिंह जी।
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