नई यादें
एवं पुराने परिप्रेक्ष्य
(हरिवंश राय बच्चन)
“यदि मैं सच कहता तो जग
मुझे साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा।“
प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर
सिंह
हिंदी
के इस आधुनिक गीतकार की यह पंक्तियाँ जैसे ही जेहन में उतरती हैं, कविवर डॉ. हरिवंशराय बच्चन का व्यक्तित्व व कृतित्व साकार हो जाता है। बच्चन जी का साहित्य पढ़ने से यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। काव्य रचनाओं के साथ-साथ उनके जिस साहित्यिक रूप ने इस उक्ति को प्रमाणित किया वह है उनकी आत्मकथाएं-“नीड़ का निर्माण फिर”,“बसेरे से दूर”“क्या भूलूं
क्या याद करू” एवं “दसद्वार से सोपान तक।“
इतिहास में शायद ही किसी रचनाकार की आत्मकथा में अभिव्यक्ति का ऐसा मुखर रूप दृष्टिगोचर होता है। सीधे सरल शब्दों को कविता के
पात्र में डालकर साहित्य रसिकों को 'काव्य रस' चखाने वाले हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन के निधन के
साथ ही हिंदी कविता का एक सूर्य सदा-सदा के लिए अस्त हो गया। हिंदी कविता और प्रखर छायावाद और आधुनिक प्रगतिवाद के
प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले डॉ. बच्चन ने लंबी बीमारी के बाद 96 वर्ष की अवस्था में अपने जुहू
स्थित आवास 'प्रतीक्षा' में अंतिम साँस ली थी। उनके निधन के साथ ही
करीब पाँच दशक तक बही कविता की एक अलग धारा भले ही रुक गई हो, लेकिन वह अपनी रचनाओं के माध्यम
से सदा अमर रहेंगे।
जीवन की आपा-धापी के बीच युगीन परिस्थितियों का ताना-बाना उसी रूप में प्रकट करना, यह किसी सच्चे ईमानदार रचनाकार का ही कर्म हो सकता है।
जीवन की आपा-धापी के बीच युगीन परिस्थितियों का ताना-बाना उसी रूप में प्रकट करना, यह किसी सच्चे ईमानदार रचनाकार का ही कर्म हो सकता है।
'जीवन की आपा-धापी में कब वक्त मिला, कुछ देर
कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं , जो किया, कहा, माना
उसमें क्या बुरा भला ... हर एक लगा है अपनी दे-ले में।' और यही 'दे-ले' आपको क्या
भूलूँ क्या याद करूँ से लेकर नीड़ का फिर-फिर निर्माण करती हुए बसेरे से दूर ले जाकर
दश-द्वारों वाले सोपान पर ठहरती है। यह आत्मकथा किसी एक व्यक्ति की निजी गाथा नहीं, अपितु युगीन
तत्कालीन परिस्थितियों में जकड़े, एक भावुक कर्मठ व्यक्ति
और जीवन के कोमल-कठोर, गोचर-अगोचर, लौकिक-अलौकिक
पक्षों को जीवन्त करता महाकाव्य है। अपनी इस यात्रा में आपने कीट्स से लेकर कबीर
तक के मध्य साहित्य को मापा, वहीं अपने जीवन के
मार्मक पक्षों को उजागर किया।
डॉ.
हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को प्रयाग के पास “अमोढ़” गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सरकारी पाठशाला, कायस्थ पाठशाला और बाद की पढ़ाई
गवर्नमेंट कॉलेज इलाहाबाद और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई थी।
वे 1941 से 52 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे। उन्होंने 1952 से 54 तक इंग्लैंड में रह कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। शायद कम ही लोगों को पता होगा कि हिंदी के इस विद्वान ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से “डब्ल्यू बी येट्स”(W.B.Yeats) के काम पर शोध कर पी.एच.डी की डिग्री प्राप्त की। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद उन्होंने हिंदी को भारतीय जन की आत्मा की भाषा मानते हुए उसी में साहित्य सृजन का फैसला किया। उन्होंने कुछ माह तक आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र में काम किया। वह 16 वर्ष तक दिल्ली में रहे और बाद में दस वर्ष तक विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के पद पर रहे। हिंदी के इस आधुनिक गीतकार को छह वर्ष के लिए राज्य सभा के सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया था। वर्ष 1972 से 82 तक वह अपने दोनों पुत्रों अमिताभ और अजिताभ के पास दिल्ली और मुंबई में रहते थे। बाद में वह दिल्ली चले गए और गुलमोहर पार्क में 'सोपान' में रहने लगे। वे तीस के दशक से 1983 तक हिंदी काव्य और साहित्य की सेवा में लगे रहे। बच्चन द्वारा 1935 में लिखी गई 'मधुशाला' हिंदी काव्य की कालजयी रचना मानी जाती है। आम लोगों के समझ में आ सकने वाली मधुशाला को आज भी गुनगुनाया जाता है। जब खुद डॉ. बच्चन इसे गाकर सुनाते तो वे क्षण अद्भुत होते थे। प्रस्तुत है उनकी एक कविता- “रात, आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।“
वे 1941 से 52 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे। उन्होंने 1952 से 54 तक इंग्लैंड में रह कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। शायद कम ही लोगों को पता होगा कि हिंदी के इस विद्वान ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से “डब्ल्यू बी येट्स”(W.B.Yeats) के काम पर शोध कर पी.एच.डी की डिग्री प्राप्त की। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद उन्होंने हिंदी को भारतीय जन की आत्मा की भाषा मानते हुए उसी में साहित्य सृजन का फैसला किया। उन्होंने कुछ माह तक आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र में काम किया। वह 16 वर्ष तक दिल्ली में रहे और बाद में दस वर्ष तक विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ के पद पर रहे। हिंदी के इस आधुनिक गीतकार को छह वर्ष के लिए राज्य सभा के सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया था। वर्ष 1972 से 82 तक वह अपने दोनों पुत्रों अमिताभ और अजिताभ के पास दिल्ली और मुंबई में रहते थे। बाद में वह दिल्ली चले गए और गुलमोहर पार्क में 'सोपान' में रहने लगे। वे तीस के दशक से 1983 तक हिंदी काव्य और साहित्य की सेवा में लगे रहे। बच्चन द्वारा 1935 में लिखी गई 'मधुशाला' हिंदी काव्य की कालजयी रचना मानी जाती है। आम लोगों के समझ में आ सकने वाली मधुशाला को आज भी गुनगुनाया जाता है। जब खुद डॉ. बच्चन इसे गाकर सुनाते तो वे क्षण अद्भुत होते थे। प्रस्तुत है उनकी एक कविता- “रात, आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।“
“रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।“
फ़ासला था कुछ हमारे
बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही
थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती
हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो
रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली
एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था
गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम
कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस
नयन में,
मैं लगा दूँ आग इस संसार
में है
प्यार जिसमें इस तरह
असमर्थ कातर,
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार
तुमने!
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात
चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को
उठाता,
एक
चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
और
मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो
निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब
का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक
उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ
यत्न करके भी न आये फिर
कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
और
अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--
बुझ
नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख
दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक
उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।
नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि
इस मंच से सूचनापरक साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप
में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ
इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी
। धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
(www.premsarowar.blogspot.com)
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मधुशाला के अतिरिक्त भी बहुत कुछ लिखा है हरिवंशराय जी ने, बहुत प्रेरक।
ReplyDeleteआदरणीय पाण्डेय जी,
Deleteपोस्ट लंबा होने के कारण उनकी अन्य रचनाओं को इस पोस्ट में समावेशित न कर सका। आपने मेरा मनोबल बढ़ाया है,मेरे लिए यही काफी है। धन्यवाद ।
सुन्दर प्रस्तुति.आपकी प्रस्तुति से अच्छी जानकारियाँ मिलती हैं.
ReplyDeletesarthak prastuti . मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteआपसे बस कम लिखने की शिकायत है......
ReplyDeleteबहुत इन्तेज़ार रहता है आपकी उत्कृष्ट पोस्ट्स का...
आभार
अनु
अनु जी,
Deleteमैं साहित्य से लगाव रखता हूं किंतु समयाभाव के कारण पोस्ट तैयार नही कर पाता हूं जिसका दंश मुझे हमेशा रहता है।
डॉ. हरिवंशराय बच्चन की उत्कृष्ट जानकारी देने के लिए आभार,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,
डॉ. हरिवंशराय बच्चन की सदा बहार और अमर कृति की जानकारी देने के लिए आभार,,,,
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ७/८/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है |
ReplyDeleteआपका यह प्रयास बेहद सराहनीय है ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार.
बच्चन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व और हिंदी के प्रति उनके अनुराग की और आपने सही ध्यान दिलाया है . बच्चन जी को हिंदी साहित्य के कथित नाम चिन लोगों ने यूं उस पांत में कभी नहीं बिठलाया जिसमें वह और उनके दरबारी शोभते थे लेकिन बच्चन जी जन जन के कवि थे मधुशाला ने कविता को मंच से प्रतिष्ठापित किया .उनका यह योगदान अविस्मरनीय रहेगा ,गीत और आत्म कथाएँ तो हैं ही यादगार. दो टूक, बे-लाग .प्रस्तुत कविता भी उनका बिम्ब -प्रतिबिम्ब है .कृपया "प्रात" को "प्रात : "कर लें. लिंक 17-
ReplyDeleteनई यादें : पुराने परिप्रेक्ष्य -प्रेम सरोवरप्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
ram ram bhai
सोमवार, 6 अगस्त 2012
भौतिक और भावजगत(मनो -शरीर ) की सेहत भी जुडी है आपकी रीढ़ से
Badee gahantake saath padha.
ReplyDeleteफिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
ReplyDeleteउस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
बहुत सुंदर रचना...
बच्चन जी के काव्य से परिचय कराने के लिये आभार...
हरबंश राय बच्चन जी के काब्य से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार
ReplyDeleteहरिवंश राय बच्चन जी की ये कविता जो पहले पढी नही थी पढकर बहुत आनंद आया । आपका बहुत आभार इसे पढवाने का ।
ReplyDeleteविभोर करती प्रस्तुति!
ReplyDeleteबच्चनजी पर इतना अच्छा विचारपूर्ण लेख प्रस्तुत कर आपने सराहनीय कार्य किया है। साधुवाद। सादर
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