ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा
बना देती है
अमृता प्रीतम
(प्रस्तुतकर्ता:प्रेम
सागर सिंह)
अपने लेखन के शुरुआती दिनों से जुड़ा एक
प्रसंग अमृता प्रीतम ने एक पत्रिका के स्तम्भ में बताया:-
“वो दिन आज भी मेरी आँखों के सामने आ
जाता है -और मुझे दिखती है मेरे पिता के माथे पर चढ़ी हुई त्यौरी। मैं तो बस एक
बच्ची ही थी जब मेरी पहली किताब 1936 में छपी थी। उस किताब को बेहद पसंद
करते हुए मेरी हौसलाफजाई के लिए महाराजा कपूरथला ने मुझे दो सौ रूपये का मनीआर्डर
किया था। इसके चंद दिनों बाद नाभा की महारानी ने भी मेरी किताब के लिए उपहारस्वरूप
डाक से मुझे एक साड़ी भेजी।
कुछ
दिनों बाद डाकिये ने एक बार फिर हमारे घर का रुख किया और दरवाज़ा खटखटाया। दस्तक
सुनते ही मुझे लगा कि फिर से मेरे नाम का मनीआर्डर या पार्सल आया है। मैं जोर से
कहते हुए दरवाजे की ओर भागी – “आज फिर एक और ईनाम आ गया!” इतना सुनते ही पिताजी का चेहरा तमतमा
गया और उनके माथे पर चढी वह त्यौरी मुझे आज भी याद है।
मैं
वाकई एक बच्ची ही थी उन दिनों और यह नहीं जानती थी कि पिताजी मेरे अन्दर कुछ अलग
तरह की शख्सियत देखना चाहते थे. उस दिन तो मुझे बस इतना लगा कि इस तरह के अल्फाज़
नहीं निकालने चाहिए. बहुत बाद में ही मैं यह समझ पाई कि लिखने के एवज़ में रुपया
या ईनाम पाने की चाह दरअसल लेखक को छोटा बना देती है।” प्रस्तुत है उनकी एक कविता “याद”
जो हमें उनके नाभकीय भावों की प्रबलता से प्रभावित कर जाती है
--
याद
आज
सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढियां उतर गया….
आसमान
की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया….
मैं
दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….
साथ
हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं
वर्ष
कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये….
तेरे
इश्क के हाथ से छूट गयी
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….
और जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….
***********************************************************************************************************
अमृता प्रीतम जी से इस विषय पर पूर्ण सहमति है।
ReplyDeletebahut hee sundar
ReplyDelete
Deleteसार्थक और सामयिक पोस्ट , आभार.
मेरे ब्लॉग " meri kavitayen "की नवीनतम पोस्ट पर आपका स्वागत है .
sarthak prastuti .amrita ji ke sansmaran padhna sadaiv rochak lagta hai .aabhar
ReplyDeleteअमृता जी को पढ़ना सदैव मन को सुकून देता है ...आपका आभार इस प्रस्तुति के लिए
ReplyDeleteअमृता प्रीतम की कवितायें एक अनोखे लोक में ले जाती हैं...
ReplyDeleteअमृता जी को पढ़ना बहुत अच्छा लगा..आभार..
ReplyDeleteआनंद आ गया।
ReplyDeleteसबसे पहले मेरे ब्लॉग उद्गम पर आने के लिए एवं सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...!!
ReplyDeleteअमृता जी के बारे में तो क्या कहें...सूरज को रौशनी दिखाने वाली बात है ...कविता का एक एक अक्षर अनमोल लगा |
आपका,
ऋषि
अमृता जी को सामने लाने के लिये आभार !
ReplyDeleteमैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
ReplyDeleteतुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है….!
बहुत सुन्दर...
आभार...
गहरी बात और बहुत सुन्दर कविता .
ReplyDeleteसादर .
बहुत सार्थक चिंतन और सुन्दर रचना...आभार
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुती ....
ReplyDeleteअमृता प्रीतम को पढना हमेशा ही मुझे अच्छा लगा!
अमृता प्रीतम की रचनाओं को काफी पहले से पढता आया हूँ किन्तु उनको पास से तब जाना जब चौबीस-पच्चीस वर्ष पहले उनकी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' पढ़ी. उन्होंने उस सच को भी बेबाकी से बयां किया है जिसमे लोग संकोच करते हैं.
ReplyDeleteतभी जाना कि लोग आत्मकथा लिखते ही कहाँ है, लोग तो आत्मप्रशंसा लिखते हैं. आत्मकथा तो केवल अमृता ही लिख पाई.
यह रचना भी अमृता के उसी अंदाज की बानगी है. प्रस्तुति के लिए आभार !!
बात अंजाम तक पहुँचने से पहले रास्ते में ही गुम हुई
ReplyDeleteतेरे इश्क के हाथ से छूट गयी
ReplyDeleteऔर जिन्दगी की हन्डिया टूट गयी
इतिहास का मेहमान
मेरे चौके से भूखा उठ गया….
अमृता प्रीतम को पढना अच्छा लगा!
इस तर्क से मुझे लगता है कि हर लेखक छोटा बनने की चाहत रखता है।
ReplyDeleteसर, आपने ठीक ही कहा है- लोगों की मान्यता है कि परिश्रम के बदले कुछ अवश्य मिलना चाहिए।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविषय आत्ममंथन को मजबूर करती है।
अमृता प्रीतम आज के समय की शशक्त हस्ताक्षर रही हैं ... गुजारते समय और कठिन समय को जिस तरह उन्होंने उतारा वो सजीव उतारना हरकिसी के बस का नहीं ...
ReplyDeleteआपने बहुत ही सारगर्भित बात कही है।
ReplyDelete