लोरी शिशु के लिए
मां की दुलार भरी मुस्कान की छुअन है
(लोरी
माँ के अछोर आनंद का गीत गुंजार है जो जन्मस्थ शिशु से लेकर शिशु के बालपन तक उसके
हृदय में अमृत घोलकर उसे मीठी नींद का सोमरस पिलाते रहता है। लोरी के इस शाश्वत
स्वरूप का न आदि है न अंत। यह शाश्वत अमृतमय है।) - डॉ.उषा वर्मा
प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह
लोरी लोकसाहत्य की प्रमुख विधा है। यह लोकगीतों का ही प्रमुख अंग है, जिसमें
लोक की सौंदर्य-चेतना, काल-चिंतन तथा जन-जीवन अभिव्यक्त हुआ है। जब शिशु केवल नाद
को समझता है, सुर-माधुर्य
को महसूस करता है, शब्दों और उसके अर्थ को नही तब मां उसे सुलाने का उपक्रम करते
हुए जो दुलार भरी मुस्कान के छुअन के साथ स्नेहपूर्ण थपकी देती है और साथ ही उसके
मुंह से ममतापूर्ण गीत सुर, ताल और लय में नि;सृत होता है, वही लोरी है। कभी–कभी वह केवल गुनगुनाती है। सार्थक-निरर्थक
शब्दों की वह लययुक्त ध्वनि भी लोरी है। इसका उद्देश्य है बालक को सुखद संगीत का
श्रवण कराया जा सके जिससे वह निश्चिंत होकर सो सके। इससे बच्चे पर मनोवैज्ञानिक
प्रभाव पड़ता है। वह मां की निकटता और स्पर्श का अनुभव करता है। लोरी बच्चे की
भाषा की लय की पहचान कराती है। ध्वनियों का मेल सिखलाती है। बच्चों को कल्पनालोक
में ले जाकर
नए-नए सपने जगाती है। बालक के कोमल स्नायुओं पर सुखद प्रभाव डालती है।
जहां तक लोरियों के विषय की बात है इसका विषय कुछ भी हो सकता है। प्यार की
सघनता में मां बच्चे को कुछ भी कह देती है। माँ की कल्पना का विस्तार अनंत है. उसी
के अनुरूप विषय भी असीम है। शिशु को सुलाने में मानो नारी-चेतना-शक्ति केंद्रीभूत
हो जाती है। इसका सृजन वात्सल्य के परिवेश में होता है। देश-विदेश कहीं की भी लोरी
हो उसके विषय समान होते हैं। गाँव या शहर की हर माँ इसे अपने वात्सल्य से संपोषित
करती है। लोरियों
के अंतर्गत प्राकृतिक व परिवेश पशु-पक्षी-प्रेम भी व्यंजित होता है। पशु पक्षी
बच्चों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र हैं। उनका नाम सुनते ही बालक चुप हो जाता है।
गाँवों की लोरी में खेत खलिहान, जमींदारी-संस्कृति आदि का चित्रण भी होता है। विषय
चाहे कोई भी लोरी का उद्देश्य होता है शिशु को गोद में थपकी देकर अथवा पालने में
झुलाकर सुलाना। लोकजीवन की प्रत्येक क्रिया लोरी के लय में बंध कर बच्चे को निद्राभूत
कर देती है। वात्सल्य में माँ की कल्पना बहुत लंबी उड़ान भरती है। कभी वह चाहती है–‘कब
लाल बड़ा के होई हैं,
कब बाबा कि बगिया जईहें/कब आम घविद ले अईहें, कब आजी के घरवा धरि है।‘
बिहार के ग्रामीण समाज की एक लोरी कुछ ऐसे ही भावों को बयाँ करती है जिसमें
माँ के स्नेहसिक्त भावों में उसके सपने भी बुने हुए हैं - आईहो रे निंदिया, तू आईयों हो रे निंदिया/ सपना सलोने सजईहो री निंदिया/ बड़ा
होके बाबू हमार राज करिहें/ हीरा मोती मूंगवा से दिन रात खेलिहें। इन विषयों पर सबसे अधिक लोरियां मानव और प्रकृति के रिश्ते पर आधारित हैं। लोक साहित्य चाहे किसी भी
भाषा का हो वहां
लोरियों के माध्यम से शिशुओं को बहलाने और सुलाने का प्रयास किया गया है। पशु
पक्षियों के प्रति शिशु का सर्वाधिक कौतुहल का भाव रहता है। इस कौतुहल का लाभ
उठाकर उसे चुप कराने के लिए लोरी गाई जाती है। जिसमें पशु पक्षियों का उल्लेख रहता
है। कभी-कभी बड़ी देर तक जब सुलाने दुलराने और हलराने या डराने से बच्चा नही सोता है तो वह सशंकित हो
जाती है और उसे इस बात का विश्वास होता है कि उसे किसी की ‘नजर’ लगी है।
माताएँ सुख की एवं वात्सल्य की जिस अनुभूति से पुत्र को सुलाने का उपक्रम करती
है उसी मन:स्थिति में पुत्री को
भी तरह-तरह के विशेषण देकर सुलाती है। वैदिक और लौकिक विचारधारा पुत्र और पुत्री
को समभाव से देखती है। वहाँ भिन्नता नही है। पुत्रहीनता की स्थिति में यदि पिता को
गति या मुक्ति नही मिलती तो दूसरी ओर वह यह भी स्वीकार करती है कि कन्यादान के
बिना पति की जंघा की शुद्धि नही होती। यह सूत्र निश्चय ही दोनों के अंतर को मिटाने
के लिए पर्याप्त प्रमाण है। संगीत का सबसे पहला परिचय बच्चे को लोरी के माध्यम से
ही होता है। लोरी में संगीत तत्व अनिवार्य है। माता के हृदय का उदगार एवं उसकी
रागात्मक भावनाएं गेय शैली में व्यक्त होती हैं। यह बच्चों के मनोभावों को अभिव्यक्ति
देता है और लोरी मां की हृदयगत अनुभूतियों का दर्पण है। बच्चों को लेकर जो वे सपने
बुनती है वे सब लोरी के विषय बन जाते हैं। वह समय के पार पहुंच उसकी दुल्हन को
लेकर भी सुखद कल्पनाओं में खो जाती है। इन भावों में कहीं भी कृत्रिमता विद्यमान
नही होती। वह देश और समय के पार पहुंच जाती है। कभी-कभी तो लोरियों में अनेक
निरर्थक शब्द भी होते हैं। बस उनकी गुनगुनाहट ही बच्चे को निद्रालोक तक ले जाती
है।
लोरी की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर लोरी को इस प्रकार
परिभाषित किया जा सकता है –“लोरी
उनींदे बालक के मन को भाने वाला वह शिशु गीत है या लय की गुनगुनाहट है जिसका ताल
और सुर में बँधा संगीत उसे अपने सम्मोहन में बांधकर विश्राम देता है और धीरे-धीरे
बालक निद्रालोक में पहुँच जाता है। लोरी के बोल वात्सल्यमयी माता के अंतस से स्वत: बह निकलते हैं।“
नोट:- अपने
किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक
साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं
किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया
ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से
प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
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