भारतीय आलोचना के शिखर
व्यक्तित्व : डॉ. रामविलास शर्मा
प्रेम सागर सिंह
रामविलास शर्मा हिंदी ही नही, भारतीय आलोचना के शिखर व्यक्तित्व हैं। उनके लेखन से पता चलता है,आलोचना का अर्थ क्या है और इसका दायरा कितना विस्तृत हो सकता है। वे हिंदी
भाषा और साहित्य की समस्याओं पर चर्चा करते हुए बिना कोई भारीपन लाए जिस तरह
इतिहास, समाज, विज्ञान, भाषाविज्ञान, दर्शन,राजनीति यहां तक कि कला
संगीत की दुनिया तक पहुंच जाते हैं, इससे उनकी आलोचना के विस्तार के साथ बहुज्ञता उजागर होती है। आज शिक्षा के हर
क्षेत्र में विशेषज्ञता का महत्व है। ऐसे में रामविलास शर्मा की बहुज्ञता,जो नवजागरणकालीन बुद्धिजीवियों की एक प्रमुख खूबी है, किसी को भी आकर्षित कर सकती है) --- प्रेम सागर सिंह
मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले हिंदी के मूर्ध्न्य
लेखक रामविलास शर्मा का लेखन साहित्य तक सामित नही है, बल्कि
उससे इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र
आदि अनेक अकादमिक क्षेत्र भी समृद्ध हैं। साहित्य
के इस पुरोधा ने हिंदी साहित्य के करोड़ों हिंदी
पाठकों को साहित्य की राग वेदना को समझने और इतिहास के घटनाक्रम को द्वंद्वात्मक
दृष्टि से देखने में सक्षम बनाया है, इसलिए
भी उनका युगांतकारी महत्व है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से वे यह बता गए हैं कि
कोई भी चीज द्वंद्व से परे नही है, हर
चीज सापेक्ष है और हर संवृत्ति (Phenomena) गतिमान
है। साहित्यिक आस्वाद की दृष्टि से उन्होंने इंद्रियबोध, भाव
और विचार के पारस्परिक तादाम्य का विश्लेषण करना भी सिखाया। अगर मार्क्सवादी नजरिए को स्वीकार
किया जाए तो यह भी समझना होगा कि नवजागरण के भी अपने अंतर्विरोध होते हैं। इसलिए
उसकी प्रक्रिया में जहां एक ओर विकास दिखाई पड़ता है, वहीं कुछ मामलों में प्रतिगामिता के चिह्न भी उसमे रहते हैं। रामविलाश
जी जैसे मार्क्सवादी के स्वामी दयानंद जैसे पुनरूत्थानवादी की ओर आकर्षण को इसी
परिप्राक्ष्य में देखा और समझा जा सका है।
रामविलास शर्मा वह मूर्धन्य आलोचक हैं जिन्हे हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी धारा के
प्रवर्तक का श्रेय दिया जाता है। वे स्वयं को जीवन भर एक आस्थावादी मार्क्सवादी ही
कहते रहे। इसलिए यह थोड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं
को लेकर सर्वाधिक विवाद हिंदी के मार्क्सवादी विमर्श में ही रहा। आर्यों के भारतीय
मूल का होने की धारणा या अठारह सौ सत्तावन की क्रांति अथवा अंग्रेजों के आगमन से
पूर्व भारत की आर्थिक स्थिति आदि के बारे में जो कुछ उन्होंने लिखा है,उसमें
ऐसी कोई बात नही है, जिसे रामविलाश जी की मौलिक देन कहा जा
सके। इतिहास का सामान्य अध्येता भी उन सब बातों से परिचित होता है। हां, नवजागरण की उनकी अवधारणा अवश्य कुछ अलग है. इस अवधारणा पर विचार करने
के लिए प्रथमत: मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि का ही सहारा लिया जाना चाहिए। अनंतर अन्य
आधारों पर भी उसका परीक्षण किया जा सकता है। नवजागरण मूलत; यूरोपीय इतिहास की वह परिघटना है, जो यूरोपीय संस्कृति और मानसिकता का मध्यकालीनता से
अतिक्रमण संभव करती है।। इस दृष्टि से वह एक विशेष ऐतिहासिक परिघटना है, कोई सनातन प्रवृति नही जो बार-बार घटित होती हो। इसीलिए बहुत से आलोचक
यह आपत्ति करते हैं कि रामविलास जी एक आधुनिक अवधारणा को प्राचीन इतिहास पर कैसे
लागू कर सकते हैं। उनके मतानुसार नवजागरण केवल एक बार घटित हो जाने वाली ऐतिहासिक घटना नही, बल्कि बार-बार आवृति करने वाली
प्रवृति है। यह सवाल करना भी गैर वाजिब नही होगा कि एक रेखीय इतिहास-बोध में आवृति कैसे संभव है।
इन सबके बाद
भी रामविलाश जी के लिए नवजागरण का तात्पर्य यूरोपीय इतिहास मे घटित नवजागरण के दौर
में विकसित प्रवृतियों तक सीमित नही है। यह आवश्यक भी नही है कि
भारतीय इतिहास की व्याख्या और मूल्यांकन के लिए यूरोपीय इतिहास को आधार और
प्रतिमान स्वीकार किया जाए। इसीलिए, इसमें कुछ भी अनुचित नही कि एक मौलिक विचारक की हैसियत से डॉ.
रामविलाश शर्मा नवजागरण की ऐसी परिभाषा देते हैं जो उसे किसी एक दौर तक सीमित
परिघटना की तरह नही, बल्कि एक आवृत्तिपरक प्रवृति के रूप में
व्याख्यायित करती है।
रामविलास शर्मा जी एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण को नवजागरण कहते हैं, जो बदलते हुए आर्थिक संदर्भों के आधार पर विकसित सामाजिक -सांस्कृतिक
आंदोलन के रूप में घटित होता है। उसका रूप जातीय जागरण का होता है। दूसरे शब्दों
में, नवजागरण किसी समाज के (जिसे रामविलाश जी जाति या नेशन कहना पसंद करते
हैं) एक मूल व्यवस्था से दूसरी मूल व्यवस्था में संक्रमण का माध्यम बनता है।
मार्क्सवादी नजरिए सेदेखा जाए तो ऐतिहासिक भौतिकवादी की द्वद्वात्मक प्रक्रिया में
नवजागरण की इस प्रक्रिया का बार-बार आवृति होना स्वभाविक है- यद्यपि उसका संदर्भ
और रूप भिन्न हो सकते हैं। हर मूल्य -सापेक्ष है। जो मूल व्यवस्था एक दौर में
गत्यात्मक लगती है वही आगामी दौर के लिए बाधा बन जाती है और उसके अंतर्विरोधों से ही
नई गत्यात्मकया मूल्य-व्यवस्था का विकास संभव होता है। इसलिए, रामविलाश शर्मा नवजागरण की एक अपनी परिभाषा निर्मित करते हैं तो
मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि के आधार पर उसे वाजिब माना जा सकता है। अगर डॉ. शर्मा
नवजागरण की अपनी इस व्यवस्था को मानव इतिहास के किसी भी दौर पर लागू करना चाहें तो
कम से कम मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि को इसमें कोई आपत्ति नही होनी चाहिए।
लेकिन, आपत्ति तब होती है, जब रामविलास जी अपनी परिभाषा के
मुताबिक नवजागरण को एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण की निरंतर
प्रक्रिया के बजाय उसे चार चरणों तक सीमित कर देते हैं और यह भी उनके ऐतिहासिक
भौतिकवादी आधारों को प्रामाणिक तौर पर पुष्ट किए बिना ही। इतिहास-लेखन में एक अनेक
धारा अपुष्ट स्रोतों के आधार पर अनुमानित लेखन करने वालों की भी रही है। यह
विडंबना है कि मार्क्सवादी ‘वैज्ञानिक’पद्धति में आस्था रखने वालों का लेखन भी इस प्रवृति से पूर्णतया
मुक्त नही कहा जा सकता – रामविलाश जी का भी। नवजागरण के जिन चार चरणों का जिक्र वे करते हैं, उनमें पहला चरण ऋग्वैदिक काल है, दूसरा उपनिषद काल,तीसरा
भक्ति आंदोलन और चौथा चरण हिंदी प्रदेश में 1857 की क्रांति के बाद घटित होता
है। इस चौथे चरण के अपने चार चरण हैं।
पर अपने इस
विभाजन में रामविलाश जी कही भी कही भी यह स्थापित नही र पाते कि इस वर्गीकरण के
पीछे आधारभूत आर्थिक या उत्पादन संबंध क्या है – और उसके बिना मार्क्सवादी नजरिए से
उसकी पुष्टि नही हो सकती। वह जिस ऋग्वेद को प्रथम भारतीय नवजागरण मानते हैं, उसमें स्वयं उनके ही अनुसार- चिंतन की कई धाराएं हैं. जिस धारा का
संबंध दर्शन से है, उसमें प्रमुखता वैज्ञानिक दृष्टिकोण की
है अर्थात नवजागरण का मूल वैज्ञानिक दृष्टिकोण है.रामविलाश जी मानवीय विवेक को
उत्पादन संबंधों के आधार पर निर्मित मानते हैं या वे एक प्रकार के चिंतन से किसी
दूसरे प्रकार के विकास की भाववादी व्याख्या का आग्रह कर रहे हैं। अगर ऋग्वेद उनके
अनुसार चिंतन के उच्च शिखर पर पहुंच गया है तो क्या आगामी नवजागरणों का प्रयोजन
पुन: पुन: उसी शिखर पर चढने की कोशिश करना है। वे
यह मानते हैं कि ब्राह्मण ग्रंथों के रचनाकाल में भूस्वामी वर्ग मजबूत हुआ और उसे
ब्राह्मण वर्ग का समर्थन मिला। परंतु, अपनी इस स्थापना के फक्ष में वह
कोई सुस्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत नही करते।
इसी तरह
भूस्वामी वर्ग के उत्तरोत्तर और सुदृढ हो जाने की स्थितिथ में उपनिषदों में ऐसा
चिंतन कैसे विकसित हो सका, जिसने स्वयं रामविलाश जी के शब्दों में, ऋग्वेद को इस जाल से मुक्त कर दिया। उपनिषदों में यज्ञ की एक
आध्यात्मिक व्याख्या अवश्य मिलती है, जो उसे कर्मकांड से मुक्त करने की
अवश्य कोशिश करती है; लेकिन यज्ञ-व्यवस्था से मुक्ति का
वास्तविक प्रयास तो बौद्ध और जैन विचार प्रणालियों द्वारा हुआ, जिसे रामविलास जी नवजागरण के संदर्भ में नही याद करते–खास तौर पर तो बौद्ध दर्शन को तो
नवजागरण का माध्यम माना ही जाना चाहिए था जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार
नही करता। रामविलास जी की इस बात से असहमत नही हुआ जा सकता कि भारत में एक और
नवजागरण की आवश्यता है। यह बात भिन्न है कि रामविलास जी स्वयं मार्क्सवाद में अपनी
आस्था घोषित करते रहे जबकि अन्य लोगों ने मार्कसवाद का अतिक्रमण कर नवमानववाद का विकास किया ।
इनसे भिन्न
सर्वोदय दर्शन भी एक व्यव्स्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण के लिए सौम्यतर
सत्याग्रह यानि वैचारिक क्रांति को प्रमुखता देता है। तीनों का तात्विक आधार-भूमि
भिन्न है, पर भारतीय समाज में पूंजीवादी
साम्राज्यवादी और संप्रदायवादी प्रवृतियों के प्रतिरोध और एक न्यापूर्ण व्यवस्था
के विकास के लिए नवजागरण की अपरिहार्यता सभी महसूस करते हैं। सभी पुरस्कारों की
राशि का साक्षारता के लिए विनियोग रामविलाश जी की नवजागरण की प्रक्रिया में सहभागी
होने की सदिच्छा का ही प्रमाण है। रामविलाश शर्मा के संपूर्ण कृतित्व का लेखा जोखा
रखने के क्रम में यह बताना आवश्यक है कि दो खंडों में लिखी गई उनकी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ की विषय सामग्री राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के व्यापक प्रश्नों की व्याख्या प्रस्तुत करती है। साहित्यकार का जब
कोई बड़ा मकसद होता है और वह छोटे आरोप- प्रत्यारोप से ऊपर उठकर कोई बड़ निशाना
बनाता है, तभी वह ऐसा साहित्य
दे पाता है, जो इतना सुगठित हो, विपुल और सार्थक
भी। रामविलाश शर्मा जी कि निम्नलिखित कुछ प्रमुख कृतियां हमें उनकी विचारधारा एवं
संघर्षशीलता के दस्तावेज के रूप उनका परिचय प्रदान कर जाती हैं।
दोस्तों, यह पोस्ट उनकी साहित्यिक
उपलब्धियों की संपूर्ण प्रस्तुति नही है बल्कि उन्हे याद करने का एक माध्यम है
जिसे मैंने आपके सबके समक्ष सार-संक्षेप में प्रस्तुत किया है। आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस
पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए इस क्षेत्र में प्रकाशस्तंभ का कार्य करेगी।
धन्यवाद सहित।
कृतिया : -
आलोचना एवं भाषाविज्ञान : -1. प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं 2. भाषा, साहित्य और
संस्कृति 3.लोक जीवन और
साहित्य 4.रामचंद्र शुक्ल और
हिंदी आलोचना 5.स्वाधीनता और
राष्ट्रीय साहित्य 6. आस्था और सौंदर्य 7. स्थायी साहित्य की मूल्यांकन की समस्या 8.निराला की साहित्य साधना (तीन खंड) 9.नई कविता और अस्तित्ववाद 10.सन् सत्तावन की राज्य क्रांति 11.भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद 12. भारत के प्राचीन भाषा परिवार 13 ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा 14 मार्क्स और पिछड़े हुए समाज 15.भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।
नाटक: - 1.सूर्यास्त 2.पाप के पुजारी 3. तुलसीदास 4. जमींदार कुलबोरन
सिंह 5. कानपुर के हत्यारे
उपन्यास : - चार दिन
अनुवाद:- स्वामी विवेकानंद की तीन पुस्तकों का – 1. भक्ति और वेदांत 2.कर्मयोग और राज रोग
एवं स्टालिन द्वारा लिखित सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ।
(www.premsarowar.blogspot.com))
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