शादी की उम्र की
प्रासांगिकता एवं न्याय का प्रश्न
प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर
सिंह
विवाह की उम्र को लेकर एक लंबे अरसे से विवाद चलता आ रहा है। इसे
बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीकों से परिभाषित भी किया है। फिर भी इस समाज ने उसे अपने
तरीके से अपनाया एवं मन चाहा काम किया। आज इस युग में प्यार का नशा जिस रूप से
अपना रंग दिखा रहा है उस पर विचार करना हम सबका परम कर्तव्य है। एक नजर में प्रेम
एवं दूसरी मुलाकात में ना समझ प्रेमी तमाम सामाजिक, पारिवारिक मान्यताओं एवं उम्र
को ताक पर रख कर स्वयं बीच का रास्ता निकालने लगे हैं, शायद उनकी मान्यता प्रबल
होती जा रही हो कि “तुम्हे
प्यार करते-करते कहीं मेरी उम्र न बीत जाए।“लेकिन माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि पंद्रह साल की मुसलमान
लड़की की शादी की जा सकती है और यह शादी कानूनन मान्य होगी । इसका सीधा अर्थ यह है
कि अदालत इस स्वीकार करती है कि अगर पंद्रह साल की लड़की हिंदू है तो उसकी शादी
अवैध है, पंद्रह साल की लड़की मुसलमान है तो उसकी शादी वैध है। हमारी अदालतें जिस
संविधान को आधार मान कर चलती हैं वह हमें बताता है कि इस देश के सारे नागरिक एक ही
कानून से नापे और तौले जाते हैं। दूसरी तरफ हमारा
लोकतंत्र हमें सिखाता है कि हमारे विभिन्न धर्मावलंबी नागरिकों में परंपरा या
मान्यता या धार्मिक विश्वास के कारण अगर कोई ऐसा चलन है जो उन्हे समान पलड़े पर
तौलने से रोकता है तो उसे रोकने–बदलने, नया बनाने की कोशिश लगातार करनी होगी और ऐसी कोशिशों में कानून और
न्यायालय समाज के मददगार होंगे, न कि उसके रास्ते में बाधा पैदा करेंगे। आज यह
सवाल मुस्लिम समाज से जुड़ा है तो यह बड़ा आसान हो जाता है कि इसे उनके निजी मामले
की तरह देखा और समझा जाए। राजनीतिकों के लिए मुस्लिम समाज से जुड़ा हर सवाल वोटों
की गिनती का सवाल बन जाता है। इस सवाल पर किसी की कोई खास प्रतिक्रिया नही आई है। लेकिन
पंद्रह साल की मुस्लिम लड़की की शादी की वैधता का सवाल कतई मुस्लिम पर्सनल लॉ का
मामला नही है। हमें अच्छी तरह मालूम है कि धार्मिक आधार पर निजी कानूनों की खाईयां
हैं हमारे यहां। कई कारणों से हमने इसे स्वीकार भी कर रखा है। हमें यह भी मालूम है
कि दूसरे संप्रदायों में प्रचलित निजी कानूनों का विरोध, अपनी सांप्रदायिक राजनीति
के लिए करने वाली ताकतें भी हैं हमारे यहां। निजी कानूनों के नाम पर बनी इन खाईयों
को पाटने के लिए हम एक लंबी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। यह लड़ाई दो स्तरों पर है-
एक यह कि धार्मिक आधारों पर चल रहे इन निजी कानूनों की खाई पाटी जाए और दूसरी यह
है कि इसकी पूरी सावधानी बरती जाए ताकि सांप्रदायिक ताकतें परिवर्तन की इस कोशिश
का फायदा न ऊठा पाएं एवं इस खाई को हमें सामाजिक स्तर पर भी पाटना है और कानूनी स्तर पर भी ।
ऑल इंडिया मुसलिम परसनल लॉ बोर्ड ने दिल्ली अदालत के इस फैसले का सबसे आगे बढ़
कर स्वागत किया है। सिर्फ मुसलिम समाज के पास नही सभी धर्मावलंबियों के पास ऐसी
संस्थाएं हैं जो धर्म का नाम लेकर ऐसी जकड़बंदी बनाए रखना चाहती हैं ताकि समाज
उनकी मुट्ठी से न छूटे। क्या अदालतें, विधायिका, नौकरशाही आदि भी ऐसी ताकतों के
साथ हो जाएंगी। हम अपनी ही पंद्रह साल की लड़की को आखों के सामने करें एव उसकी गोद
में एक बच्चा की कल्पना करें, तो हमें शर्म आएगी। इस उम्र की बच्ची तो खुद बच्ची
है। न मन से न तन से वह इसके लिए तैयार होती है कि न एक नए जीवन को रचे। यह उसके साझ
ज्यादती है, उसके धर्म और परंपरा का बलात्कार है।
अगर मुसलिम समाज की आधी आबादी पंद्रह साल की उम्र में परिवार बनाने के बोझ में
दबा दी जाती है तो उसके यहां पढ़ाई, नौकरी एवं व्यवसाय की गति आएगी कैसे और भारतीय समाज का यह लंगड़ापन
दूर कैसे होगा !
पंद्रह साल की उम्र में परिवार बनाने, मां बनने के बोझ तले जो लड़की दबा दी जाएगी क्या
वह अपनी पढ़ाई कर सकेगी ! क्या
वह अपने व्यक्तित्व-विकास के दूसरे क्षितिज खोज सकेगी ! वह खोजेगी क्या, जिसे हमने ही परंपरा और धर्म के
बियाबान में धकेल दिया है। इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले का संज्ञान
लेने के लिए विभिन्न धर्मों के लोगों द्वारा प्रयास किए गए हैं ताकि शादी की उम्र
मे कुछ बदलाव हो। मेरा विचार है कि इस विषय पर एक राष्ट्रीय बहस आवश्यक है। सुधी
बंधुओं से अपील है कि इस विषय पर अपना पक्ष रखें। धन्यवाद।
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उस विशेष मुकदमे के बारे में जानकारी नहीं है। अतः बिना जानकारी के माननीय न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी करना गलत होगा।
ReplyDeleteअभी तक तो इतना ही जाना और समझा है कि बाल विवाह हर दृष्टि से गलत है।
इस पर माननीय उच्च न्यायालय दिल्ली का फैसला इस वर्ष के मई महीने में हुआ था। धन्यवाद ।
ReplyDeleteबेटी किसी की भी हो बाल विवाह किसी के लिए भी उचित नहीं...
ReplyDeleteक़ानून हर धर्म के लिए एक होना चाहिए,बाल विवाह अनुचित है,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ...: जिला अनुपपुर अपना,,,
हमारे देश में जो धर्म के नाम पर खेल खेला जा रहा है वो निंदनीय तो है ही इसके साथ ही संविधान की मूल भावना से खिलवाड भी है जिसमे कहा गया है कि भारत के सब नागरिक बराबर है और न्यायालय का यह फैसला तो कतई स्वागत योग्य हो ही नहीं सकता क्योंकि शादी की उम्र के लिए अलग अलग धर्मों के अलग अलग पैमाने नहीं हो सकते !!
ReplyDeleteधर्म के आधार पे सामाजिक निर्णय नहीं होने चाहियें ...
ReplyDeleteदेश में धार्मिक आधार पर नागरिकोँ के अलग अलग कानूनॉँ के कारण ही तमाम समस्याएं उत्पन्न हूई है । माननीय न्यायालय द्वारा मुस्लिम लड़कियोँ की शादी की आयु 15 वर्ष को मान्य करना कतई स्वागत योग्य नहीँ है । देश मेँ सबके लिए समान कानून होने चाहिए ।
ReplyDeleteदेश और समाज हित के सही मुद्दे को उठाने के लिए साधुवाद ....।
वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण कर शादी की उम्र तय कर दी गई है।
ReplyDeleteour laws are based on religion that is the biggest problem.
ReplyDeleteIt is not the fault of law but our conception towards the religion.Thanks for expressing your comment on this post.
Deleteसंविधान के इसी लचीले गुण का लाभ नालायक लोग उठा लेते हैं जबकि इसका निर्माण लोक हित में किया गया है .
ReplyDeleteकच्ची डाल में फल उसे तोड़ देता है
ReplyDeleteपका फल पकी डाल पर शोभा देता है
प्रकृति के अनुरूप ही सब होना चाहिये
मन और शरीर दोनो से वयस्क
बालक बालिका दोनो को होना चाहिये !
कानून का दोगला व्यवहार
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ReplyDeleteधर्म के आधार पे सामाजिक निर्णय नहीं होने चाहियें ...
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