अनुवाद कार्य
में मूल
भाव के प्राचीर
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प्रेम सागर सिंह
हिंदी अधिकारी
इंण्डियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस,
भारत सरकार,सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय,
जादवपुर, कोलकाता (प.बं)
विगत अनुभवों के आधार पर मेरी मानसिक संकल्पना
में जो ठोस बात अभिव्यक्ति के रूप में अपना अस्तित्व एवं वर्चस्व बनाए ऱखने की
प्रक्रिया में अहम भूमिका का निर्वहन किया है, उसे ध्यान में ऱखना नितांत आवश्यक सा हो जाता है। मेरी अपनी
मान्यता है कि अनुवाद एक अत्यंत कठिन दायित्व है। रचनाकार किसी एक भाषा में सर्जना
करता है, जबकि
अनुवादक को एक ही समय में दो भिन्न भाषा और परिवेश/वातावरण को साधना होता है। इसका
माधुर्य और शब्दों का जादू किसी भी अन्य माध्यम में ज्यों का त्यों ला पाना बहुत
कठिन है। अनुवादक का यत्न विचार को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने का रहता है, परन्तु वह शब्दों की आत्मा को पूरी तरह
सामने नहीं ला सकता। वह पाठक में उन मनोभावों को नहीं जगा सकता, जिनमें कि वह विचार उत्पन्न हुआ था।'
एक
अच्छे अनुवादक को भाषा की इस सीमा की मर्यादा समझनी होगी। नहीं तो क्या जरुरत थी
कि अंग्रेजी की किताबों अथवा शब्दकोशों में स्वदेशी, सत्याग्रह और अहिंसा जैसे अवधारणात्मक
पद ज्यों के त्यों उठा लिये जाते? हिंदी में भी ठीक अंग्रेजी की तरह अनगिनत शब्द हू-ब-हू ले लिये गये हैं। यह
समस्या तब और विकट रूप में प्रस्तुत होती है जब हम बोली के शब्दों का अनुवाद करना
चाहते हैं। बोली के शब्दों और भंगिमाओं का अनुवाद जब उसी देश की भाषा में असंभव है
तो विदेशी भाषा के बारे में क्या कहा जाये।
समय
में बदलाव के साथ शब्द के अर्थ भी बदलते रहे हैं। वेदों का अनुवाद आज की संस्कृत
भाषा के प्रचलित शब्दार्थों के सहारे नहीं हो सकता ठीक जैसे शेक्सपीयर के जमाने की
अंग्रेजी का अनुवाद आज के प्रचलित शब्दों और अर्थों के सहारे असंभव है। इसलिए एक
अच्छे अनुवादक से उम्मीद की जाती है कि भाषा की समझ के साथ ही उसका इतिहास बोध भी
विकसित हो।
प्रत्येक
विषय की अपनी भाषा है, उसके
खास पारिभाषिक शब्द हैं जिनकी बारीकी का पता उस विषय के जानकार को ही होता है।
इसलिए अनुवाद की आदर्श स्थिति यह है कि कविता का अनुवाद कवि करे, कहानी का अनुवाद कहानीकार और समाज
विज्ञान की पुस्तकों का अनुवाद कोई समाज विज्ञानी ही करे। तभी विषय के साथ न्याय
की उम्मीद की जा सकती है।
अनुवादक की तरह अनुवाद संपादक को भी
मूल पाठ से विचलन का अधिकार सामान्यतः प्राप्त नहीं है । वह मूल पाठ में काट-छाँट
नहीं कर सकता, क्रम परिवर्तन भी उसी स्थिति में कर सकता है जब मूल पाठ का
अर्थ संप्रेषण बाधित हो रहा हो । अतः उसके अधिकार की परिधि पुनरीक्षण और संशोधन तक
ही प्रायः सीमित है । पुनरीक्षण के दो अंग हैं – विषय
पुनरीक्षण और भाषा पुनरीक्षण । विषय पुनरीक्षण के लिए विषय का विश्लेषण होना तो
सर्वथा आवश्यक है ही; साथ ही, मूल और लक्ष्य भाषा का सम्यक ज्ञान भी
आवश्यक है । अतः पुनरीक्षण का दायित्व सामान्यतः ऐसे विद्वानों को ही देना चाहिए
जो विषय के अधिकारी होने के साथ-साथ अनुवाद-भाषा की प्रकृति, शब्दावली तथा प्रयोग भंगिमाओं से परिचित हों । जहाँ एक ही व्यक्ति में ये
दोनों गुण न हों, वहाँ एक विषय विशेषज्ञ और एक भाषाविद् को
संयुक्त रूप से यह दायित्व सौंपा जा सकता है । ऐसी स्थिति में आदर्श व्यवस्था तो
यह होगी कि दोनों विद्वान साथ-साथ बैठकर कार्य करें, किंतु
जहाँ यह संभव न हो वहाँ विषय पुनरीक्षण और भाषा पुनरीक्षण पृथक रूप से किया जा
सकता है।
समस्त पाठकों से अनरोध है कि अपनी प्रतिक्रिया से मुझे इस दिशा में अग्रसर होते रहने की प्रक्रिया मेंं मुझे अपना संबल प्रदान करते रहें।
ReplyDeleteधन्यवाद।
बहुत ही अच्छा लेख . एक एक वाक्य जैसे गहरे सोच के बाद लिखा गया हो ."...उन मनोभावों को नहीं जगा सकता, जिनमें कि वह विचार उत्पन्न हुआ था"यह बात बहुत महत्वपूर्ण लगी .मैं आजकल शेक्सपीयर की रचनाओं को हिन्दी में कविता रूप में अनुवाद कर रहा हूँ. अगर मेरे ब्लॉग पर जा कर उन्हें देखे और अपनी प्रतिक्रया दे तो बड़ी मेहरबानी होगी
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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Deleteबहुत अच्छा और विचारणीय आलेख. शुभकामनाएँ.
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