बिहार की स्थापना का 100 वां वर्ष : क्या
खोया,क्या पाया !
प्रस्तुतकर्ता: (प्रेम
सागर सिंह)
जिंदगी
के इंद्रधनुषी रंगों की तरह बिहार राज्य का रंग भी बेशुमार है। बिहारवासियों के
लिए इसे जिंदगी को जितने भी रंग में जिया जा सकता है, बिहार को उससे कहीं ज्यादा
रंगों में कहा जा सकता है । इसका चोला कुछ इस अंदाज का है कि जिंदगी का बदलता हुआ
हर रंग उस पर सजने लगता है और उसकी फबन में चार चाँद लगा देता है, इसीलिए सदियों
के लंबे सफर के बावजूद बिहार की माटी, सभ्यता, संस्कृति, त्यौहार एवं इतिहास आज भी
ताजा दम है, हसीन है, और दिल नवाज भी ।
यह हमारे लिए बड़े ही गर्व की बात है कि आज देश के कई शहरों
में बिहार की स्थापना के 100 वें वर्ष के महोत्सव मनाये जा रहे हैं। इस महोत्सव के खैर
अपने राजनीतिक मायने और महत्व हैं। शायद यही कारण है कि दूसरे राज्यों में बिहार
के प्रवासी लोगों के साथ-साथ राज्य के स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालयों में भी इस
समारोह की गूंज सुनाई पड़ी है। विगत 30 वर्षों में तो बिहार भ्रष्ट राजनीति, आर्थिक पिछड़ेपन एवं अपराधिक गतिविधियों की अनियंत्रित
वृद्धि के कारण सभी जगह आलोचना का विषय भी बना। अपने गौरवमयी अतीत एवं संघर्षों से
भरे वर्तमान के मध्य झूलता बिहार फिर भी प्रगति के पथ पर है। बिहार की राजनीतिक
दुरावस्था के कट्टर आलोचक भी यह अब मानने लगे हैं कि वहां के क्षितिज पर आशावाद की
नवज्योति की रश्मियां फैलने लगी है।
किसी
भी घटना या परिवर्तन को दर्ज करना इतिहास की नियति है। इस संदर्भ में बिहार का
इतिहास एवं सांस्कृतिक अस्तित्व तो भारतीय सभ्यता के उत्कर्ष एवं पाटलिपुत्र में
भारतीय शासन के अभ्युदय से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। बिहारवासी शताब्दियों
पूर्व के अपने क्षेत्रीय इतिहास से स्वयं को जोड़कर ही अपूर्व गौरव का अनुभव करता
है। यदि आज की राजनीतिक परिचर्चा की परिधि से बाहर जाकर सोचा जाए तो बिहार की
पृष्ठभूमि से आने वाले प्रत्येक
व्यक्ति के लिए वर्ष 1912
उसके बंगाल से पृथक होने का
काल अवश्य है, पर यह उसके भू-सांस्कृतिक पहचान के निर्माण का वर्ष नहीं है। इस शताब्दी
वर्ष में बिहार की सांस्कृतिक गरिमा एवं ऐतिहासिक महत्ता पर दृष्टिपात करना
परमावश्यक है। नैमिषारण्य (वर्तमान सारण) एवं धर्मारण्य (गया) तपोभूमि के रूप में
विख्यात रहे हैं। वैज्ञानिक साहित्य में जिस पाटलिपुत्र वासी आर्यभट्ट ने अपूर्व योग्यता का परिचय दिया, वह भारत ही नहीं, विश्व
के लिए अद्वितीय उपलब्धि का विषय है। भारतीय वांग्मय के शिरोमणि कालिदास की
जन्मभूमि भी लोकमान्यताओं के अनुसार मिथिला है।
बिहार
के ऐतिहासिक योगदान का सबसे प्रभावशाली पक्ष है छठी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी सदी
अर्थात बारह सौ साल तक भारतीय राजनीति में अग्रगामी भूमिका का निर्वाह। इस कालखंड
में बिहार ने केवल चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, पुष्यमित्र शुंग, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमार गुप्त, स्कंदगुप्त
जैसे यशस्वी शासक ही नहीं दिए, अपितु
आसेतु हिमालयात् अर्थात समुद्र से हिमालय पर्यन्त शासन की स्थापना कर भविष्य के
अखंड भारत का आधार भी निर्मित किया। ये बारह सौ साल भारतीय संस्कृति के पुष्पित
पल्लवित होने का काल है। निश्चय ही इसका केंद्र पाटलिपुत्र था। इस बीच शक, पार्थियन, इण्डो-ग्रीक, हुण आदि आक्रमणों से भारतीय भूमि की रक्षा के दायित्व का
भी सफल निर्वाह किया गया। इस संदर्भ में सेल्युकस के ऊपर चंद्रगुप्त मौर्य की विजय, समुद्रगुप्त द्वारा शक, मुरुंड एवं शाहानुशाहियों (कुषाणों) को उखाड़ फेंकना, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वारा शकों का निर्वासन तथा
स्कंदगुप्त द्वारा विशाल हुण सेना पर विजय भारतीय सैन्य इतिहास की अविस्मरणीय
घटनायें हैं।
मध्यकालीन
राजनीतिक उथल-पुथल के बीच घटने वाली अनेक घटनायें भी बिहार को गौरव प्रदान करती
हैं। शेरशाह एवं हेमू विक्रमादित्य जैसे नायकों की सैन्य सफलतायें बिहार की ताकत
के ही दृष्टान्त थे। महाराजा सुन्दर सिंह की अलीवर्दी खान (बंगाल के शासक) एवं
मराठों के विरुद्ध सफलता के ऊपर भले ही किसी इतिहासकार की दृष्टि नहीं गई हो, पर आज भी वे मगध क्षेत्र में वीरता के प्रतीक पुरुष हैं, जिनके पटना से क्युल तक के सैन्य अभियान एवं कर्मनाशा के
द्वार पर मराठों एवं मुगलों से लोहा लेने की शक्ति के कारण औरंगजेब की मृत्यु के
बाद की स्थिति में बिहार के बड़े क्षेत्र को राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त हुई।
बिहार
इस काल में न केवल गांधी एवं नेहरू संचालित कांग्रेस के आंदोलन का केन्द्र था, बल्कि सुभाषचंद्र बोस की राजनीतिक सफलता के पीछे बिहार की
वे 429 जनसभायें थीं, जिसमें
वे सहजानंद सरस्वती के साथ थे। आधुनिक भारत के तीन बड़े आंदोलनकारियों – सहजानंद सरस्वती, महात्मा
गांधी और जयप्रकाश नारायण, सभी
को बिहार ने आधारभूत समर्थन प्रदान किया। इतना ही नहीं, बिहार का विप्लवी राष्ट्रवाद भी अविस्मरणीय है। वीर
योगेन्द्र शुक्ल, बैकुण्ठ शुक्ल, किशोरी
प्रसन्न सिंह एवं अक्षयवर राय जैसे नेता भला कैसे भुलाये जा सकते हैं। फांसी का
बदला चुका कर फांसी पर झूलने का गौरव बिहार के बेटे बैकुण्ठ शुक्ल को है। बक्सर
युद्ध के बाद कंपनी शासन को चुनौती देने के लिए हथुआ महाराज फतेहबहादुर शाही ने जो
विद्रोह किया उसे 1857
में क्रांतिवीर आरा निवासी वीर कुंवर सिंह और उसके उपरान्त अगस्त क्रांति
के शहीदों (पटना के सात शहीद) ने जारी रखा।
विगत
वर्षों की उपलब्धियों की तुलना में आज बिहार विकासोन्मुखी नजर आने लगा है, पर विकास का सारा ताना-बाना सड़क एवं पुल निर्माण तक सीमित
है। हां, एक उपलब्धि और मान लेनी चाहिए कि कुछ सामाजिक, शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं में ग्रामीण स्तर
पर बेकार बैठे लोगों को अल्पकालिक ही सही, पर
नौकरी का अवसर प्राप्त हुआ है। इनका गुणात्मक परिणाम क्या होगा? कहना कठिन है। प्रारंभिक शिक्षा की हालत तो बिहार में खराब
ही है, उससे भी बदतर है उच्च शिक्षा एवं विश्वविद्यालयों की
स्थिति। श्रमिकों के साथ-साथ विद्यार्थियों के अनवरत पलायन को रोकने में बिहार का
वर्तमान प्रशासन कितना सक्षम होगा, यह
अब भी एक यक्ष प्रश्न है। मुंबई में बिहार शताब्दी समारोह मना रहे मुख्यमंत्री की
उद्योगपतियों से बैठक कुछ लोगों के लिए एक नयी आशा है। पर परिणाम तो लंबे काल के
बाद दिखेगा। उत्तरी भाग बाढ़ ग्रस्त तो दक्षिणी भाग सूखा पीड़ित। इसके लिए कृषि
नीति क्या हो? बिना विद्युत के उद्योग भला कैसे फले-फूले? ऐसे कितने ही प्रश्नों का उत्तर अब भी शेष है।
सर
गणेश दत्त ने“इंस्टिट्यूट
ऑफ बैक्टिरियोलाजी” (Institute Of Bacteriology) की स्थापना पटना मेडिकल अस्पताल में तब करवायी थी, जब विश्व के लिए यह नया विषय था। आज बिहार प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्रों के अभाव से जूझ रहा है। मुजफ्फरपुर में आजादी के पहले भौतिकी
एवं खगोलीय शोध के लिए विशाल प्लैनेटोरियम (तारामंडल) स्थापित किया गया था, पर आज बिहार के विश्वविद्यालय प्रमाणपत्र, अंक-पत्र एवं मानपत्र देने वाली संस्थायें मात्र बन कर रह
गए हैं। इस शताब्दी वर्ष में इन सभी बिंदुओं पर समग्र चिंतन आवश्यक है।
हमें
प्रयास करना होगा कि वर्ष 2012 बिहार
के विकास के संकल्प का वर्ष बने। बड़े शहरों यथा दिल्ली, मुंबई,
कोलकाता ,
सूरत आदि के शताब्दी महोत्सव
अपना लक्ष्य तभी हासिल कर पाएंगे, जब
आगामी दशक में बिहार आर्थिक, सामाजिक
एवं सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के अपने नवीन लक्ष्य को प्राप्त कर चुका होगा। आशा ही
नही मेरा अटूट विश्वास है कि वर्तमान मुख्यमंत्री के नेतृत्व में बिहार आर्थिक,
सामाजिक, शैक्षणिक, सूचना प्रौद्योगिकी, कला एवं विज्ञान के क्षेत्र में अहर्निश
प्रगति के पथ पर अग्रसरित होता रहेगा ।
जय बिहार ।
नोट:- अपने किसी
भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य
एवं संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक
रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल
हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक
बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम
सागर सिंह
(www.premsarowar.blogspot.com)
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