Friday, March 29, 2013

उदात्त प्रेम का क्षैतिज स्वरूप


मेरे चिंतन फ्रेम में मोहन राकेश का नाटक आषाढ़ का एक दिन

                                                                   

प्रेम और विरह का अन्यान्योश्रित संबंध है। विरह की अग्नि में तपकर प्रेम स्वर्ण सा चमक उठता है। जीवन की समस्त वासनाएं, कलुष उस अग्नि में जलकर भस्मीभूत हो उठते हैं। वेदना की टीस और पीड़ा का साम्राज्य सहृदय पाठक के अंदर मार्मिक संवेदनाओं को जाग्रत कर देता है और उसे भावभूमि के उस लोक में प्रतिष्ठित कर देता है जहां उसका हृदय रागात्मक वृति की दिव्य भूमि पर उदभाषित हो उठता है। इन्ही परिस्थतियों के आलोक में इस उपन्यास की नायिका मल्लिका का स्मृतिजन्य वियोग उसके निश्छल प्रेम एवं समर्पण की ऐसी पराकाष्ठा है जिसमें उदात्त भावोर्मियां तरंगायित हो रही हैं। .. प्रेम सागर सिंह


आषाढ़ का एक दिन (1958) मोहन राकेश का पहला और सर्वोत्तम नाटक ही नही हिंदी नाटक की महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसमें पावन प्रेम की परिकल्पना है और उत्सर्ग की भावना का चरमोत्कर्ष है, जीवन के परिस्पंदनों की अभिव्यक्ति है। सूक्ष्म अनुभूतियों एवं संवेदनाओं का आकृष्ट आवेग आषाढ़ का एक दिन को कालजयी बनाने में सार्थक सिद्ध हुआ है। एक सफल नाटककार होने के कारण मोहन राकेश  जी ने इस उपन्यास में युग-युगों से कुछ ज्वलंत प्रश्नों को ऐतिहासिक तथ्यों एवं परिवेश वाले चिंतन फ्रेम में संवारकर हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इसमें रेखांकित प्रेम का स्वरूप एवं विषय आधुनिक युग में भी अनुसंधान का विषय बना हुआ है। इस नाटक के हर खंड क अंत में "कालिदास मल्लिका को अकेला छोड़ जाता है: पहले जब वह अकेला उज्जयिनी चला जाता है; दूसरा जब वह गाँव आकर भी मल्लिका से जानबूझ कर नहीं मिलता; और तीसरा जब वह मल्लिका के घर से अचानक मुड़ के निकल जाता है।"यह खेल दर्शाता है कि कालिदास के महानता पाने के प्रयास की मल्लिका और कालिदास को कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। जब कालिदास मल्लिका को छोड़कर उज्जयिनी में बस जाता है तो उसकी ख्याति और उसका रुतबा तो बढ़ता है लेकिन उसकी सृजनशक्ति चली जाती है। उसकी पत्नी,प्रियंगुमंजरी, इस प्रयास में जुटी रहती है कि उज्जयिनी में भी कालिदास के इर्द-गिर्द उसके गाँव जैसा वातावरण बना रहे "लेकिन वह स्वयं मल्लिका कभी नहीं बन पाती। नाटक के अंत में जब कालिदास की मल्लिका से अंतिम बार बात होती है तो वह क़ुबूल करता है कि "तुम्हारे सामने जो आदमी खड़ा है यह वह कालिदास नहीं जिसे तुम जानती थी।"

इस उपन्यास की नायिका मल्लिका प्रेम की साक्षात प्रतिमा है जिसके अंदर दलित द्राक्षा के समान सभी कुछ निस्वार्थ भाव से समर्पित कर देने की अबाध भाव-राशि तरंगायित हो रही है। वह अपने कवि कालिदास के व्यक्तित्व के विकास के लिए जीवन के समस्त क्षुद्र स्वार्थों को त्याग कर अपने अभावों की कटु विभीषिका में पल-पल मरती हुई अपने आपको होम कर देती है। वह प्रेम मार्ग पर चलने वाली अनन्य साधिका है। न जाने वह कितनी बार आषाढ के प्रथम चरण में भींगी है, न जाने कितनी बार उसके साथ आँखों की पालकी में स्वप्निल चित्र बसाए हैं। समस्त ग्राम प्रांतर में, वही अकेली है जो कालिदास को समझती है, उसकी मर्म वेदना का संधान कर सकती है। जब उसकी माँ अम्बिका लोक अपवाद से ग्रस्त होकर मल्लिका को सचेत करते हुए कालिदास से विवाह करने के लिए कहती है तब वह स्पष्ट शब्दों में अपनी माँ को प्रतिउत्तर देते हुए कहती है –“तुम जानती हो मैं विवाह करना नही चाहती ; फिर उसके लिए प्रयास क्यों करती हो। वह प्रेम को अलौकिक एवं अनुभूतिगम्य मानते हुए कहती है – “मैंने भावना का वरण किया है, मेरे लिए वह संबंध और संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूं, जो पवित्र है ,अनश्वर है, कोमल है। वह जीवन की स्थूल आवश्यकताओं को ही जीवन का प्राप्य नही मानती बल्कि उसके अनुसार मनुष्य की इन आवश्यकताओं से परे भी इतना कुछ है जिसकी अनुभूति हम कर सकते हैं। उसके साथ अपनी भावनाओं का तादाम्य स्थापित कर सकते हैं।
मल्लिका की माँ उसके भविष्य को लेकर अपनी स्वभाविक चिंता, अपने अंतर्द्वद्व को व्यक्त करते हुए उससे कहती है – “ वह व्यक्ति आत्मनिष्ठ है। संसार में अपने सिवाय किसी से मोह नही करता । मैं भी चाहती हूं

तुम आज समझ लो। तुम कहती हो तुम्हारा उससे भावना का संबंध है। वह भावना क्या है ! यदि वास्तव में उसका तुमसे भावना का संबंध है तो वह क्यों तुमसे विवाह करना नही चाहता ! मैं ऐसे व्यक्ति को अच्छी तरह से समझती हूं। उसका तुम्हारे साथ इतना ही संबंध है कि तुम एक उपादान हो, जिसके आश्रय में वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता है। पर क्या तुम सजीव व्यक्ति नही हो ! तुम्हारे प्रति उसका या तुम्हारा कोई कर्तव्य नही है। वह इस प्रश्न का बिना विचलित हुए एक आदर्श प्रेमिका के औदात्य का स्पर्श करते हुए स्पष्ट एवं अत्यंत दृढता के साथ उत्तर देते हुए कहती है – “तुम उनके प्रति अनुदार नही रही हो। माँ तुम जानती हो उनका जीवन परिस्थितियों की कैसी विडंवना में बीता है। मातुल के घर में उनकी क्या दशा रही है। इस साधनहीन एवं अभावग्रस्त जीवन में विवाह की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। माँ आज तक का जीवन किसी तरह बीता ही है, आगे का भी बीत ही जाएगा। आज जब उनका जीवन नई दिशा ग्रहण कर रहा है, मैं उनके सामने अपने स्वार्थ की घोषणा नही करना चाहती। निश्चय ही उसका यह कथन उसके उदात्त व्यक्तित्व का द्योतक है जो कि प्रेम की शुचिता, उसकी पवित्रता एवं उत्सर्ग का संसर्ग उसे स्वर्णिमता प्रदान करता है।

इस उपन्यास का नायक कालिदास राजाश्रय पाने एवं मल्लिका के प्रेम के प्रति अपने को विरक्त पाने की स्थित में नही जान पड़ता है। वह सम्मान पाने के लिए उज्जयिनी जाने को मना करता है, मल्लिका बार- बार उससे उज्जयिनी जाने की जिद करती है जिससे उसकी प्रतिभा का सही - सही मूल्यांकन हो सके, वह जो अधूरा रह गया है उसके पूर्णत्व के लिए। कालिदास मल्लिका को लेकर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहता है  फिर एक बार सोच मल्लिका। प्रश्न सम्मान और राजाश्रय पाने का नही है। इससे कहीं बड़ा प्रश्न मेरे सामने है। मल्लिका कालिदास के चिंतातुर हृदय को अवलंब प्रदान करते हुए अपने भावों को उत्कट शब्दों में व्यक्त करते हुए कहती है  और वह प्रश्न मैं हूं .. हूं न ! तुम समझते हो कि तुम अवसर को ठुकराकर यहां रह जाओगे, तो मुझे सुख होगा ! मैं जानती हूं कि तुम्हारे चले जाने से मेरे अंतर को एक रिक्तता छा लेगी। बाहर भी संभवत:बहुत सूना प्रतीत होगा फिर भी मैं अपने साथ छल नही कर रही। मैं हृदय से कहती हूं तुम्हे जाना चाहिए। मेरी आँखें इसीलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नही समझ रहे हो। तुम यहां से जाकर भी मुझसे दूर नही हो सकते हो ! यहाँ ग्राम प्रांतर में रहकर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर कहां मिलेगा ! यहां लोग तुम्हे समझ नही पाते। वे सामान्य की कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं। विश्वास करते हो न कि मैं तुम्हे जानती हूं ! जानती हूं कि कोई भी रेखा तुम्हे घेर ले तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हे घेरना नही चाहती हूं इसलिए कहती हूं जाओ। इस भूमि से जो तुम ग्रहण कर सकते थे कर चुके हो, तुम्हे आज नई भूमि की आवश्यता है जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।

मल्लिका के इस आश्वासन से प्रभावित होकर कालिदास चला जाता है, लेकिन वियोग का प्रभाव हर संवेदनशील दृदय को झकझोर देता है। ऐसा ही कुछ मल्लिका के साथ भी हुआ। कालिदास के चले जाने के पर रोती हुई मल्लिका को आश्वासन देते हुए अंबिका कहती है -रोओ मत मल्लिका, तब मल्लिका का कथन उसके उदात्त व्यक्तित्व को उजागर करता है। - मैं रो नही रही हूं माँ ! मेरी आँखों में जो बरस रहा है वह दुख नही है। यह सुख है माँ, सुख।

कालिदास को उज्जयिनी भेजने में निक्षेप अपने आपको दोषी मानते हुए सोचता हुआ पश्चाताप की अग्नि में जलता है। वह अपने आप को मल्लिका का अपराधी मानते हुए कहता है  कई बार लगता है दोष मेरा है। मेंने आशा ही नही की थी कि उज्जयिनी जाकर कालिदास वहीं के होकर रह जाएंगे। सुना यह भी था कि गुप्तवंश की दुहिता से उनका विवाह हो गया । मल्लिका बिना विचलित हुए बहुत ही दृढ़ता से उत्तर देते हुए कहती है - “तो इसमें बुरा क्या है !” उसके प्रसंग में मेरी बात कहीं भी नही ठहरती। मैं अनेकानेक व्यक्तियों में से हूं। उन्हे अपने जीवन में असाधारण का ही साथ होना चाहिए था। सुना है राजदुहिता बहुत विदुषी है। इसके विपरीत मुझे अपने से ग्लानि होती है कि यह ऐसी मैं, उनकी प्रगति में बाधा भी बन सकती थी। आपके कहने से उन्हे जाने के लिए प्रेरित करती तो कितनी बड़ी क्षति होती।

कालिदास फिर लौट आते हैं। उनके साथ उसका सामीप्य बोध एवं कथोपकथन बहुत ही संवेदनशील हो उठता है । कालिदास को संबोधित करते हुए कहती है – “आज वर्षों बाद तुम लौट आए हो। सोचती थी तुम आओगे तो उसी प्रकार मेघ घिरे होंगे, वैसा ही अंधेरा सा दिन होगा, वैसे ही एक बार वर्षा में भींगूगी और तुमसे कहूंगी कि देखो मैंने तुम्हारी सब रचनाएं पढी हैं।  उज्जयनी  की ओर जाने वाले व्यवसायियों से कितना-कितना कहकर मैंने तुम्हारी रचनाएं मंगवाई है। सोचती थी तुम्हे मेघदूत की पक्तियां गा-गाकर सुनाऊंगी और यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूंगी और कहूंगी कि देखो ये तुम्हारी नई रचना के लिए ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बनाकर सिए हैं, इन पर जब भी तुम लिखोगे, उसमें अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूं, मेरा भी कुछ है। परंतु आज तुम आए हो तो सारा वातावरण ही और है और नही सोच पा रही हूं कि तुम वही हो या कोई दूसरा। कालिदास से फिर कहती है  मैंने अपने भाव कोष्ट को रिक्त नही होने दिया परंतु मेरे अभाव की पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो। तुमने लिखा था कि एक दोष गुणों के समूह  में भी उसी तरह छिप जाता है, जैसे चांद की किरणों में कलंक परंतु दारिद्रय नही छिपता। सौ-सौ गुणों में भी नही छिपता। नही छिपता ही नही, सौ-सौ गुणों को छा लेता है  एक-एक को नष्ट कर देता है, परंतु मैंने यह सब सह लिया इसीलिए कि मैं टूटकर भी अनुभव करती रही कि तुम बन रहे हो क्योंकि मैं अपने को अपने में देखकर तुममें देखती थी और आज मैं यह सुन रही हूं कि तुम संन्यास ले रहे हो।
यह नाटक कवि कालिदास के जीवन पर आधरित है लेकिन कालिदास के कवि रूप में प्रसिद्ध होने के बाद उतना नही है जितना एक बनते हुए कवि और फिर प्रसिद्धि के चरम शिखर पर पहुंचने वाले कवि का है। मल्लिका के समक्ष कालिदास की स्वीकारोक्ति कि अभिज्ञान शाकुन्तलम में शकुन्तला के रूप में तुम्ही मेरे सामने थी। मैंने जब-जब लिखने का प्रयास किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया और जब उससे अलग होकर लिखना चाहा तो रचना प्राणवान न हुई, उसके असीम प्रेम को दर्शाने में सहायक सिद्ध हुआ है।

नोट:- संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1959 में पुरस्कृत किया गया तथा फिल्मफेयर पुरस्कार से भी विभूषित किया गया। अंत में आप सबका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा कि इस उपन्यास की अंतर्वस्तु कालिदास के जीवन पर केंद्रित जो 100 ईस्वी पू. से 500 ईस्वी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ था  इनके द्वारा रचित दो नाटक आधे अधूरे एवं लहरों के राजहंस भी काफी ख्याति प्राप्त कर चुकें हैं।

(पोस्ट कुछ लंबा हो गया है, आशा करता हूं कि सुधी मित्रगण इसे अन्यथा न लेंगे। धन्यवाद।)
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

Wednesday, March 6, 2013

जीवन के प्रति राग और विराग


              क्या खोया, क्या पाया

                                    
                                           प्रेम सागर सिंह


मैं मानता हूं कि समय के साथ अतीत को भुलाकर लोग आगे बढ सकते हैं लेकिन जीवन में सब कुछ भुलाया नहीं जा सकता। कुछ लमहे, कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जिनके साथ हम हमेशा जीना चाहते हैं। मेरे जीवन में भी कुछ ऐसे लमहे एवं कुछ अवसर आएं हैं, जिन्हे मैं आज तक कभी भी नहीं भुला पया बात सन 1984 की है। जब मैं सुरेंद्र नाथ सांध्य ला कॉलेज में विधि स्नातक के कोर्स में दाखिला लिया था। दाखिला मिलने के बाद मैं अपने दोस्तों एवं रिश्तेदारों से यह कहते हुए अपने आपको बड़ा ही गर्वित महसूस करता था कि बाबू राजेंद्र प्रसाद (भूतपूर्व राष्ट्रपति) भी इसी कालेज से ला (LL.B) की परीक्षा पास किए थे। उन दिनों मैं भारतीय वायु सेना में कार्यरत था। एक तो फौज की नौकरी और ऊपर से पढ़ाई का बोझ मुझे नीरस करता गया। मैं अपने रिश्तेदारों एवं फौजी भाईयों के बीच चर्चा का विषय बनता गया और इस चर्चा, कटाक्ष एवं उपहास ने मुझे कितना एकाग्रचित और गंभीर बना दिया था। इसे आज मैं उम्र की इस दहलीज पर पहुंच कर सोचता हूं तो मन सिहर सा जाता है। उन दिनों की यादें जीवन के हर एक पल में आज भी उसी तरह रची बसी हैं, जैसे पहले थीं। देखते-देखते समय कब गुजर गया पता ही नही चला। मैं भारतीय वायु सेना से रिटायर्ड होकर कोलकाता चला आया। यहां हमारा पुस्तैनी मकान है जिसमे हम चार भाई उस समय साथ ही रहते थे एवं उनमें से मै सबसे छोटा था।

विधि की विडंबना भी अजीब होती है। मेरे सामने अब तीन बच्चों का भविष्य नजर आने लगा। कोलकाता जैसे महानगर में 15 साल बाद आने पर कुछ अजीब सा लगने लगा। मेरे कल्पना के अनुरूप परिस्थितियां विपरीत निकली। दोस्त, सगे संबंधी सब बदले-बदले से नजर आने लगे। लेकिन मैं हतोत्साहित नही हुआ एवं कुछ कर गुजरने का भाव मन में अहर्निश कौंधने लगा। इस विचार ने मुझे समुद्र में खोए हुए नाविक की भांति किनारे की तलाश के लिए बेचैन कर दिया। लोवर कोर्ट ,बैंकशाल कोर्ट एवं हाई कोर्ट तक का सफर एक वकील के रूप में करीब चार वर्ष तक तय करता रहा लेकिन जैसा चाहा था वैसा नही हुआ। एक बार मुझे महसूस हुआ कि मेरा शोषण किया जा रहा है लेकिन इस बात को मैंने किसी से भी शेयर नही किया। मैंने अनुभव किया कि इस पेशे में आने में बहुत देर हो गयी है। मेरी हालत सांप और छुछूदंदर जैसी हो गयी थी।

निराशा और अवसाद के इन दिनों में मैं अधीर सा हो गया था। मन ही मन इस पेशे से अलग होकर किसी दूसरे काम की तलाश करने लगा। कहते है  भाग्य भी बहादुर इंसान का साथ देता है। वही मेरे साथ भी हुआ। इंसपेक्टर ऑफ इनकम टैक्स से लेकर, एयर इंडिया एवं इंडियन एयरलाइंस की लिखित एवं मौखिक परीक्षाएं भी पास करते गया। लेकिन विधाता ने इन नौकरियों को शायद मेरे भाग्य में नही लिखा था। कहते हैं- भाग्य में जो लिखा होता है,वही मिलता है।“ मुझे भी विधाता ने वही दिया जो मेरे भाग्य में लिखा था यानि कोलकाता स्थित भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में (आयुध निर्माणी बोर्ड,कोलकाता) हिंदी अनुवादक का पद, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर इस ढलती वय में प्रभु के आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया। यहां से मैंने अपने जीवन को नए सिरे से जीना शुरू किया लेकिन यह सोचकर मन कभी-कभी संत्रस्त हो जाता है कि यह सफर 31 मार्च, 2015 को शेष हो जाएगा। इतना कुछ सोचने के बाद भी आशान्वित रहता हूं कि मेरी कुंडली में तीसरी सरकरी नौकरी लिखा है। काशऐसा संभव हो पाता।

 जीवन के प्बारति राग और विरागबूघाट वाले ऑफिस से घर लोटते वक्त जब भी बस से सियालदह स्टेशन पार करता हूं, मेरी यादें मुझे बहुत पीछे की ओर खींच ले जाती हैं क्योंकि दाएं स्टेशन एवं बाएं मेरा सुरेंद्र नाथ सांध्य ला कॉलेज दिखता है। यहां पहुचते ही मेरा मन न जाने क्यूं उस अतीत से अनायास ही जुड़ जाता है जो कभी मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है । उन दिनों मै बहुत खोया लेकिन उससे अधिक पाया भी। कॉलेज के उन दिनों में मैं अपने दोस्तों के साथ-साथ निकटवर्ती बाजारों में कभीकभी घूमने जाया करता था। शायद गर्मियों का दिन रहता था एवं कुछेक को स्टेशन तक भी छोड़ने जाता था।

 सियालदह ओवरब्रिज पर ट्राफिक जाम के कारण जब आस-पास नजर दौड़ाता था तो गुजरे 28 वर्षों पूर्व का दृश्य आँखों के सामने बरबस ही खींचा चला आता है। अठाईस वर्षों के बाद गर्मियों की इस शाम की शुरूआत में अपने शहर के पुराने चेहरे को याद करता हूं तो उसकी डूबती डबडबाती निगाहें सामने याद आती हैं । इन वर्षों में यह शहर भी बदला है। मैं भी बदला हूं एवं .शायद हम सबके रिश्ते भी बदल गए हैं।  इन बदलते परिस्थितियों में जब अपने आपको बीते वासर में ले जाता हू तो ऐसा लगता है कि बीते वर्षों में मेरे बचपन के परिचित इलाकों के मकान टूटे हैं, पेड़ नष्ट हुए हैं, गलियां गायब हुई हैं, वे लोग नही रहे है, जीवन शैलियां नही रही है। न जाने उस दिन क्या हो गया था पता ही नही चला। तमाम कोशिशों के बावजूद भी अतीत की यादें पूर सफर के दौरान मेरा पीछा करती ऱही। कभी अतीत में खो जाता था तो कभी शहर की जिंदगी से जुड़ जाता था तो कभी सामाजिक राजनीतिक विषय मन में कौंधने लगते थे।

मैंने अनुभव किया कि किसी के भी जीवन में फिर कभी किसी शहर का ही जीवन क्यों न हो अठाईस बरस कम नही होते हैं। पर अब भी इस शहर में ऐसे कितने ही इलाकों में ऐसा कितना ही कुछ बचा है, जो मुझे मेरे बचपन के शहर का ही लगता है। जिससे मैं अपने शहर को भी महसूस करता हूं और अपने बचपन को भी। इस ओवरब्रिज से देखने पर सियालदह स्टेशन या निकटवर्ती बाजार का नजारा भी तो बदला है। क्या यह स्टेशन और बाजार उतना ही पुराना नही है ! कुछ बदलाओं को छोड़ कर। इन विगत वर्षों में देह ही नही शहर की आत्मा भी बदला है। सोचता हूं, ये सब साथ-साथ ही बदलते होंगे।पुरानी गलियां नही रही और उनसे गुजरते हुए, उसमें बतियाते हुए लोग नही रहे। घर या किसी क्लब के करीब के चबूतरों पर बतियाते या खेलते हुए बूढ़े और बच्चे कम नजर आते हैं। लोगों की व्यवस्थाओं का स्वरूप भी बदला है, उनकी जीवन शैलियां और दृष्टियां भी बदली हैं। भोजपुरियन लोगों की भाषा में भी बदलाव आया है।  अब मेरे पड़ोस के बिहारी लोगों के अधिकांश घरों में लोग भोजपुरी की जगह खड़ी हिंदी का प्रयोग करते हैं। उनके बच्चे भी भोजपुरी भाषा भूलते जा रहे हैं। सोचता हूं, इसमें उन मासूम बच्चों का क्या दोष है! कभी-कभी यह भी लगता है कि पिछले अठाईस वर्षों में समाज की जगह सिकुड़ी है,व्यक्ति की जगह फैली है पर यह फासला वैसा फासला नही है जिसकी मानवीय आकांक्षाओं को कभी गढ़ा गया था। पुरानी पीढ़ी के बीच ये फासले और भी कम हुए हैं। बूढ़ों और बच्चों के बीच का पुराना संवाद, संबंध और सदभाव भी कम हुआ है। अन्यान्य कारणों से लोग अब अपना जितना समय सचमुच में परिवार के बीच बिताते हैं, बिताना चाहते हैं, उसमें गिरावट आई है। लगता है कि आदमी का अपने से भी संबंध कम होता गया है।
     
 इसके बाद मेरी चिंतन धारा को एक नया आयाम मिला। अपने बारे में, अपने परिवार के संबंध में जब सोचने लगा तब मन बड़ा ही विकल हो उठा एवं आंखे नम होने लगी। बड़े भैया का निधन (2009) उसके करीब एक साल बाद (2010) मां जैसा प्यार और दुलार तथा वटवृक्ष की तरह शीतल छाया प्रदान करने वाली बड़ी भाभी का गुजर जाना एवं (2011)  में मझले भाई की अप्रत्याशित निधन के कारण मेरे अपने घर की ही धारणा और प्रभा भी बिखरती गयी है। मेरे घर के साथ-साथ पुराने घरों में व्याप्त सक्रियताएं, पारस्परिक संवाद और लगावों में भी बहुत कमी आई है। घर की अपनी जगह भी सिकुड़ती जा रही है। घर का अपना आत्म भी आहत हुआ है। क्या यह संभव हो सकता है कि आहत आत्म के घर में बसे हुए आदमी की अपनी आत्मा साबूत, स्थित और तनावहीन बनी रहे। लेकिन मेरे बचपन की बस्ती में पास-पड़ोस में मनुष्य की जितनी आवाजें सुनाई पड़ती थी अब उतनी नही । उन दिनों में एक आदमी दूसरे आदमी की, एक घर दूसरे घर की, एक परिवार दूसरे परिवार की चिंताओं और व्यथाओं से कम से कम निम्न मध्यवर्गीय इलाकों में तो जुड़ा हुआ रहता ही था। इन दिनों टेलिविजन और इंटरनेट नही हुआ करते थे। इनमें से टेलिविजन ने एक किस्म के लगाव को जन्म दिया है तो एक प्रकार के अलगाव को भी।

राग और विराग भले ही विपरीत दिशाओं में रहें पर शायद चलते साथ-साथ हैं। अपनी निगाहों से घरों, परिवारों में बढी हुई संवादहीनता को देखता हूं तब यह भी ख्याल आता है कि इस संवादहीनता के चलते या इसके कारण भी मानवीय सक्रियता का अभाव बढ़ता गया है। प्रतिरोध की राजनीति प्रभावित हुई है। परिवर्तन की आवाज सर्वत्र गुंजरित होने लगी है। सहयोग, मानवीय संवेदनाओं एव पीड़ा में निरंतर ह्वास देखने को मिल रहा है। सहयोग के धर्म का स्खलन हुआ है। मैं सोचता हूं कि संवाद, सहयोग और सक्रियता के भी अपने अंतर्संबंध होते होंगे। ये तीनों जब अपना संतुलन बना पाते होंगे तब समाज में सुख का जन्म होता होगा, शांति के दिनों में इतना विचारणीय और विवेकशील बना हुआ था, वही समाज इन तनावपूर्ण और हिंसक दिनों में कैसे इतना विचारहीन हो जाता है ।

इन्ही विचारों में डूबता उतराता रहा एवं बस कंडक्टर की कर्कश आवाज ने मुझे अचंभित कर दिया। इसके आगे मैं कुछ सोच पाता, उसकी आवाज इस बार काफी तेज थी। उसने बांगला भाषा में कहा ओ, दादा कोताय नामबेन ( ओ भाई, कहां उतरिएगा)। बाहर झांक कर देखा तो मेरा बस स्टॉपेज आने वाला था। स्टॉपेज आने पर मैं बस से उतर तो गया लेकिन ऐसा लग रहा था कि बस के भीतर बैठे सभी यात्रियों की निगाहें मेरी ओर ही थी। पैदल चलते-चलते मन ही मन यही सोचता रहा कि अपने अतीत कोबीते दिनों के संघर्ष को कभी भुलाना नहीं चाहिएलेकिन उसमें इतना भी नहीं खोना चाहिए कि वे यादें भविष्य के लिए बेडियों का काम करने लगें। हम सबका अतीत से भावनात्मक जुडाव तो होता हैलेकिन उससे निकलकर आगे भी तो बढना है। अतीत से जुडाव तो हमेशा ही रहता हैक्योंकि यह एक पेड की तरह हैजिसकी जडें हमेशा जमीन के अंदर होती हैं और जडें गहरी हैं- तभी पेड जिंदा है। अगर जडें ही मिट गई तो उसका अस्तित्व मिट जाता है। अब मैं अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गया हूं, जहां हर चीज अपनी पूर्णावस्था में परिलक्षित होती है।
          
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