अंतस की पीड़ा
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(प्रेम सागर सिंह)
" अनजाने ही मन न जाने क्यूं अतीत मेंं फिसल जाता है,
फिर अचानक वर्तमान में संगी बनकर मन को बहला जाता है।
जाने क्यो हसना मुझे अब गुनाह सा नजर आता है,
नदी की चादर पर नाचता हर बिँदू खोखला सा इठलाता है।
साँझ के धुँधलके में हवा का कोई झोंका मदमाता है,
तो मेरे अँतर मे बहुत कुछ हल्का सा दरक जाता है।
हर दरार को हर बार मै कागज़ से ढाँक लेता हूँ,
दे देता हूँ उस दरार को सीवन, विकल्पो की
पर यादो का परीँदा केवल
एक फड़फड़ाहट मेँ ही
मेरा सारा सीवन उधेड़ जाता है।
इसी मशक्कत मे घड़ी पहर बीत जाता है
और मेरे हाथ कुछ भी नही आता है।"
खाली हथेलियो से मुँह ढ़ाँपे
समय मौज मनाता है
और
मेरे अँतस का पतझर अशेष रीता जाता है
अशेष रीता जाता है ...अशेष रीता जाता है।"