Thursday, May 19, 2011

प्रिय बंधुओं,
दिनांक 12/05/2011 को मेरे बड़े भाई स्व. राम सागर सिंह का देहावसान हो जाने के कारण मैं इस जगत से जुड़ नही पा रहा हूं। शारीरिक और मानसिक रूप से भी समर्थ नही हूं। शोकाकुल परिवार का सदस्य होने के कारण मुझे गहरा आघात लगा है।
आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी अवस्था को समझ सकते हैं। मानसिक और शारीरिक रूप से सामान्य हो जाने पर आप सब के पोस्ट पर उपस्थित होते रहूंगा। तब तक के लिए क्षमा प्रार्थी रहूंगा।

आपका
प्रेम सागर सिंह( प्रेम सरोवर)
95/1 काशीपुर रोड
कोलकाता-700002

Thursday, May 12, 2011

भारत, भ्रष्टाचार और साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार दानव के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठित करते जा रहा है। हमारे देश में यह एक बहुत बड़े भयावह रूप में अपने आयाम को विस्तृत करते जा रहा है और हम सबके सामने एक मुद्दे के रूप में उभर रहा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नही रहा। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय बाबा नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नही वल्कि संपूर्ण क्रांति पर लिखा, इंदिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नही लगता। जबकि हास्य-व्यंग के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जम कर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नही मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्मसमर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य, नैतिकता, परिवार और राजनैतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नही लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचार की धुरी है।यह प्रतिवाद को खत्म करता है। उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं मे संपदा संचय की प्रवृति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धाराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी गुट का पराभव हुआ।
अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े़ शासकों में पूंजी एकत्र करने, येन-केन-प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया मे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी है।आज व्यव्स्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सेलीब्रिटी पुरूष चलाते रहे हैं।ये मूलत:मीडिया इवेंट हैं।ये जन-आदोलन नही है। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण आदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं। य़े मीडिया तथा इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं।प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता संबोधित होते हैं।जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जनसमस्यओं को मीडिया टाक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्या जनता में कम टी वी टाक शो में ज्यादी देखी और सुनी जाती है। इनमे जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा समर्थन हासिल है। उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिली भगत से हुई है। आज के इस बदलते परिदृश्य में साहित्य से जुड़े लोगों का यह कर्तव्य हो जाता है कि इस दिशा में कुछ साहित्यिक योगदान देकर अपनी भूमिका का निर्वाह करें और इस देश की डूबती नैया को बचाने के साथ-साथ लोगों की मानसिकता में भी आमूल परिवर्तन लाने का प्रयास करें। जब हर उपाय कारगर सिद्ध नही होते हैं तब साहित्य ही कारगर सिद्ध होता है।
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Friday, May 6, 2011

हो जाते है क्यूं आर्द्र नयन

हो जाते हैं क्यूं आर्द्र नयन
मन क्यूं अधीर हो जाता है.
स्वयं का अतीत लहर बन कर,
तेरी ओर बहा ले जाता है।

वे दिन भी बड़े ही स्नेहिल थे,
जब प्रेम सरोवर उफनाता था।
इसके चिर फेनिल उच्छवासों से,
स्वप्निल मन भी जरा सकुचता था।

कुछ कहकर कुंठित होता था।
तुम सुनकर केवल मुस्काती थी।
हम कितने कोरे थे उस पल,
कुछ बात समझ नही आती थी।

हम छुड़ गए दुर्भाग्य रहा
विधि का भी शायद साथ रहा।
लिखा भाग्य में जो कुछ था,
हम दोनों के ही साथ रहा।

सपने तो अब आते ही नही,
फिर भी उसे हम बुनते रहे।
जो पीर दिया था अपनों ने,
उसको ही सदा हम गुनते रहे।

अंतर्मन में समाहित रूप तुन्हारा
मन को उकसाया करता है।
लाख भुलाने पर भी वह पल,
प्रतिपल ही लुभाया करता है।

तुम जहाँ रहो आबाद रहो,
वैभव सुख-शांति साथ रहे।
पुनीत दृदय से कहता हूं,
जग की
खुशियां पास रहे।

Wednesday, May 4, 2011

लघु कथा

जनवरी के ठंड में दो दिन से रो-रोकर कुत्ते की आवाज सुनाई पड़ रही थी।
जिस घर के दर पर जाकर कुत्ता रोने लगता, घर का मालिक डंडा दिखाकर उसे वहां से भगा देता। कुत्ते का रोना पूरी गली में चर्चा का विषय बन गया था।
एक ने कहा-‘कुत्ते का रोना अशुभ संकेत है। तेईस नंबर वालों के यहां राम दयाल जी बीमार हैं, कहीं !’

दूसरे ने पहले की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘सुना है कुत्ते को यम के दूत दिखाई दे जाते हैं। राम भला करे।‘

तीसरे ने कहा-‘कल गली के नुक्क्ड़ पर कार और स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया था। स्कूटर वाले लड़के को बहुत चोट लगी थी। भगवान उसकी रक्षा करें।‘

चौथा कहां चुप रहने वाला था, ‘तुरंत बोला -'लगता है किसी आदमी की आत्मा इसमें प्रवेश कर गयी है। तभी तो यह आदमी की तरह रो रहा है।‘ पाचँवा जो सबकी बातें चुपचाप सुन रहा था, क्षोभ से भरकर बोला, वह कुत्त्ता अब मेरे घर में है। उसके पांव में काँच का टुकड़ा गड़ा हुआ था, जिससे उसे बहुत कष्ट हो रहा था। किसी ने भी उसके दर्द को समझने की कोशिश नही की।सभी ने उसके रोने को अपशकुन समझ कर उसे भगाते रहने में ही अपनी भलाई समझी।

(इस लघु कथा से हमें क्या शिक्षा मिलती है, कृपया अपने-अपने विचारों से अवगत कराएं।)
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