वैशाली की नगरवधू : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
( जन्म- 26 अगस्त,1891) ( निधन: 02 फरवरी, 1960 )
जमाने में कहां , कब कौन किसका साथ देता है,
जो अपना है. वही ग़म की हमें सौग़ात देता है।
“यह सत्य है कि यह उपन्यास
है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के
प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय
सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा
नहीं है। “ -
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
इस तरह की प्रविष्टियों को ब्लॉग पर प्रस्तुत
करने की पष्ठभूनि में मेरा यह प्रयास रहता है कि हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान
प्रकाशस्तंभों का सामीप्य-बोध हम सबको अहर्निश मिलता रहे एवं हम सब इन
साहित्यकारों की अनमोल कृतियों एवं उनके जीवन दर्शन की घनी छांव में अपनी
साहित्यिक ज्ञान-पिपासा में अभिवृद्धि करते रहें। आईए, एक नजर डालते हैं, अपने समय के बहुचर्चित
लेखक चतुरसेन शास्त्री पर,
उनके जीवन एवं कृतियों पर जो हमें
सत्य से विमुख न होने के साथ-साथ कभी भी किसी भी
विषम परिस्थतियों में बिखरने भी नही देती
हैं। किसी भी साहित्यकार की रचना उसकी निजी जीवन की अनुभूतियों की ऊपज होती है ।
शास्त्री जी के रचनाओं में कुछ खास ऐसी ही विशेषता है जिसे पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता
है कि ये समय के साथ संवाद करती हुई तदयुगीन जीवन के साक्षात्कार क्षणों से परिचित
करा जाती हैं । मेरा प्रयास एव परिश्रम आप सबके दिल में थोड़ी सी जगह बना सकने में
यदि सार्थक सिद्ध हुआ तो मैं यही समझूंगा कि मेरा प्रयास, संकलन एवं परिश्रम भी
साहित्य-जगत के सही संदर्भों में सार्थक सिद्ध हुआ। - प्रेम सागर सिंह
आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त, 1891 को चांदोख ज़िला
बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश में
हुआ था। ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में इनकी
प्रतिष्ठा है। चतुरसेन शास्त्री की यह विशेषता है कि उन्होंने उपन्यासों के
अलावा और भी बहुत कुछ लिखा है, कहानियाँ लिखी हैं, जिनकी संख्या प्राय: साढ़े चार सौ है। गद्य-काव्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र के
साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर भी उन्होंने अधिकारपूर्वक लिखा है। रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे
जो कि उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय
हुए। द्विवेदी युग में देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी, किशोरीलाल गोस्वामी आदि देवकीनन्दन
खत्री जी की “चन्द्रकान्ता” उपन्यास तो लोगों को इतनी भायी कि
लाखो लोगों ने उसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखा। तिलस्मी और जासूसी
उपन्यासों के लेखकों के अतिरिक्त प्रेमचंद, वृंदावनलाला वर्मा, आचार्य चतुरसेन
शास्त्री, विश्वम्भर नाथ
कौशिक, चंद्रधर शर्मा “गुलेरी”, सुदर्शन, जयशंकर प्रसाद आदि द्विवेदी युग के
साहित्यकार रहे। सन 1943-44
के आसपास दिल्ली में हिन्दी भाषा और
साहित्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। यदाकदा धार्मिक अवसरों पर कवि-गोष्ठियां
हो जाया करती थीं। एकाध बार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ था। लेकिन उस समय
आचार्य चतुरसेन शास्त्री और जैनेन्द्रकुमार के अतिरिक्त कोई बड़ा साहित्यकार दिल्ली में
नहीं था। बाद में सर्वश्री गोपाल प्रसाद व्यास, नगेन्द्र, विजयेन्द्र स्नातक आदि यहां आए।
खड़ी हिंदी की विकास-यात्रा के प्रारंभ से ही मेरठ
क्षेत्र की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा रही
है। आज भी मेरठ में जितनी अच्छी हिंदी
बोली जाती है वह कही भी नही मिलती । यहां के साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में न केवल इस क्षेत्र के
जनजीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अभिव्यक्त किया, बल्कि इस अंचल की भाषिक
संवेदना को भी पहचान दी। इन साहित्यकारों के बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास
पूरा नहीं हो सकता। 26 अगस्त, 1891 को बुलंदशहर के चंदोक में जन्मे
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने 32 उपन्यास, 450 कहानियां और अनेक
नाटकों का सृजन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।
ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिन्दी साहित्य को
प्रदान किए। सोमनाथ, वयं रक्षाम:, वैशाली की नगरबधु, अपराजिता, केसरी सिंह की रिहाई, धर्मपुत्र, खग्रास, पत्थर युग के दो बुत, बगुला के पंख उनके
महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। चार खंडों में लिखे गए सोना और ख़ून के दूसरे भाग में
1857 की क्रांति के
दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है। गोली उपन्यास में राजस्थान के राजा-महाराजाओं और
दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। अपनी
समर्थ भाषा-शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन
साहित्यकार बने। इनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है, जो अपने ही में एक कीर्तिमान है। आचार्य
चतुरसेन मुख्यत: अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। इनके प्रमुख उपन्यासों
के नाम हैं-
1. वैशाली की
नगरबधू
2. वयं रक्षाम,
3. सोमनाथ,
4. मन्दिर की
नर्तकी,
5. रक्त की
प्यास,
6. सोना और
ख़ून (चार भागों में),
7. आलमगीर,
8. सह्यद्रि की
चट्टानें,
9. अमर सिंह,
10. ह्रदय की
परख।
इनकी सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम’ और ‘सोमनाथ’ हैं। हम यहाँ ‘वैशाली की नगरवधू’ की विस्तृत चर्चा करेंगे, जो कि इन तीनों कृतियों में
सर्वश्रेष्ठ है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य
शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में उल्लिखित किया है - मैं अब तक की अपनी सारी
रचनाओं को रद्द करता हूँ,
और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ। आचार्य चतुरसेन की पुस्तक
वयं रक्षाम: का मुख्य पात्र रावण है न कि राम । यह रावण से संबन्धित
घटनाओं का ज़िक्र करती है और उनका दूसरा पहलू दिखाती है। इसमें आर्य और संस्कृति के संघर्ष के बारे में चर्चा है। आचार्य चतुरसेन
शास्त्री के भी अपने लेखन के संबंध में कुछ ऐसे ही वक्तव्य मिल जाते हैं। 'सोमनाथ' के विषय में उन्होंने
लिखा है कि कन्हैयालाल
माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'जय सोमनाथ' को पढ़ कर उनके मन में आकांक्षा जागी कि वे
मुंशी के नहले पर अपना दहला मारें; और उन्होंने अपने उपन्यास 'सोमनाथ' की रचना की। 'वयं रक्षाम:' की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने कुछ
नवीन तथ्यों की खोज की है,
जिन्हें वे पाठक के मुँह पर मार रहे हैं। परिणामत: नहले पर दहला मारने
के उग्र प्रयास में 'सोमनाथ' अधिक से अधिक चमत्कारिक
तथा रोमानी उपन्यास हो गया है; और अपने ज्ञान के प्रदर्शन तथा अपने खोजे हुए तथ्यों को पाठकों के
सम्मुख रखने की उतावली में, उपन्यास विधा की
आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा कर वे 'वयं रक्षाम:' और 'सोना और ख़ून' में पृष्ठों के पृष्ठ अनावश्यक तथा अतिरेकपूर्ण विवरणों से
भरते चले गए हैं। किसी विशिष्ट कथ्य अथवा प्रतिपाद्य के अभाव ने
उनकी इस प्रलाप में विशेष सहायता की है। ये कोई ऐसे लक्ष्य नहीं हैं, जो किसी कृति को
साहित्यिक महत्व दिला सके अथवा वह राष्ट्र और समाज की स्मृति में अपने लिए
दीर्घकालीन स्थान बना सकें। 'वैशाली की नगरवधू' तथा अन्य अनेक
ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का लक्ष्य एक विशेष प्रकार के परिवेश का निर्माण करना भी हो
सकता है; किंतु इससे इंकार नहीं किया जा
सकता कि अनेक लोग 'वैशाली की
नगरवधू' में स्त्री की बाध्यता और पीड़ा
देखते हैं। वैसे इतिहास का वह युग, एक ऐसा काल था, जिसमें साहित्यकार को अनेक आकर्षण दिखाई देते हैं। महात्मा
बुद्ध, आम्रपाली, सिंह
सेनापति तथा अजातशत्रु के आस-पास हिन्दी साहित्य की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों ने
जन्म लिया है। उसमें स्त्री की असहायता देखी जाए, या गणतंत्रों के निर्माण
और उनके स्वरूप की चर्चा की जाए, वात्सल्य की कथा कही जाए, या फिर मार्क्सवादी दर्शन का सादृश्य ढूँढा जाए - सत्य यह है
कि वह परिवेश कई
दृष्टियों से असाधारण रूप से रोमानी था जिसके कारण साहित्यकार के सोच को एक नया आयाम मिला और शास्त्री जी की
वैशाली की नगरवधू हर संबेदनशील साहित्यकार की नगरवधू बन गयी । इस उपन्यास को जितनी
बार पढ़ा उतनी बार मन में असंख्य अर्थ अपने शब्दों के क्षितिज क्रमश: विस्तृत करते
गए एवं मेरे अंतस को आंदोलित कर गए । आप सबके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से
प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद।
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आचार्य की सभी रचनाएं बहुत अच्छी हैं.
ReplyDeleteआचार्य चतुरसेन शास्त्री जी से विस्तार से मिलवाने के लिए आभार .
ReplyDeleteधन्यवाद ।
Deleteआचार्य चतुर सेन जी को पढ़ा है,फिर भी वस्तार से मिलवाने के लिए आभार,..
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति,
MY RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...
यह पुस्तक पढ़ी, बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteआपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।
Deleteदेखिये यह पोस्ट फीड में आई है और मैं बिना आपके कहे आ गया!!
ReplyDeleteआचार्य चतुरसेन के उपन्यास अपने आप में एक ऐतिहासिक शोध से कम नहीं.. और "वैशाली की नगरवधू" का कोई मुकाबला नहीं... "वयम रक्षामः" भी पौराणिक ग्रंथों पर एक पुनर्दृष्टि के लिए प्रेरित करती है!! बहुत ही सुन्दर परिचय!!
आपकी प्रतिक्रिया से मेरा मनोबल बढा है । धन्यवाद ।
Deleteबहुत ही अच्छा आलेख.
ReplyDeleteआपके इन आलेखों से हिंदी जगत के महान लेखक/लेखिकाओं/रचयिताओं की बहुत ही अच्छी जानकारी मिलती है. यूँही लिखते रहिये ताकि हम हिंदी को और करीब से जान सकें.
सादर!
आपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।
Delete----धन्यवाद, प्रेम सरोवर जी.....आचार्य जी की तीनों श्रेष्ठ रचनायें ( अन्य भी)-सोमनाथ, वयं रक्षाम व वैशाली की नगर वधू.. स्कूल-कालिज काल में ही पढ ली गयीं थी..और यह भी कि इन्हीं रचनाओं के पठन उपरान्त ही मेरी भारतीय पौराणिक इतिहास को और जानने की व लिखने की प्रक्रिया आगे बढी....
ReplyDelete----आपका वर्णन व व्याख्या एक दम सटीक है...निश्चय ही वे कालजयी ही नहीं काल-उद्बोधक रचनायें हैं...आभार...
Ati sundar....nai nai jaankariyon hetu aabhaar..
ReplyDeleteआचार्य चतुरसेन शास्त्री अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में उनकी विद्वता की झलक मिलती है। वयं रक्षामः उनकी श्रेष्ठ कृति है।
ReplyDeleteइस प्रस्तुति के लिए आभार।
आपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।
Deleteबहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteइंडिया दर्पण की ओर से शुभकामनाएँ।
बहुत बढ़िया ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी कहाँ चली गयी सर???
ReplyDeleteचलिए एक बार फिर शुक्रिया अदा करती हूँ....
बहुत अच्छी पोस्ट.
सादर.
इसे कहते हैं रूचि |
ReplyDeleteशुक्रिया ||
आपका मेरे पोस्ट पर आकर अभिप्रेरित करना अच्छा लगा । धन्यवाद ।
Deleteबहुत ही सार्थक और सारगर्भित आलेख...
ReplyDeleteआचार्य चतुरसेन शास्त्री जी के बारे में अवगत कराने के लिए धन्यवाद..
ReplyDeleteआचार्य चतुरसेन शास्त्री जी ने कई कालजयी रचनाएं हिन्दी साहित्य को दी हैं। आपका यह लेख उनके व्यक्तित्व पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
ReplyDeleteसर,
Deleteआपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है एवं आशा करता हूं कि भविष्य में भी आप मुझे प्रोत्साहित करते रहेंगे । धन्यवाद ।
DADA PRANAM AAPAKO DHANYAWAD NAHIN KAHUNGA.
ReplyDeleteSUNDAR GYAN WARDHAN KE LIYE PRANAM SWIKAR KAREN.
आपका मेरे पोस्ट पर आकर अभिप्रेरित करना अच्छा लगा । धन्यवाद ।
Deleteआचार्य चतुर्सेन 'शास्त्री' जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाश डालता आपका यह आलेख मेरे ज्ञान में वृद्धि कर गया. वैसे ये पुस्तकें अधिकारिक रूप से कहाँ प्राप्त हो सकती है, लिखा जाना चाहिए था. (अधिकारिक इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि कुछ प्रकाशक लोकप्रिय पुस्तकों का सस्ता संस्करण प्रकाशित करते हैं जिसमे पृष्ठों की संख्या कम कर लेते हैं और बेचारा पाठक उसी आधार पर रचना के प्रति अपनी धारणा बना लेता है. भले ही यह रचनाकार और पाठकों के साथ खिलवाड़ है. मै वरिष्ट साहित्यकार नरेन्द्र कोहली के रामकथा पर आधारित 'दीक्षा' उपन्यास के साथ यह देख चुका हूँ )
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आभार !!
आपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद् की आप मेरे ब्लॉग पे पधारे और अपने विचारो से अवगत करवाया बस इसी तरह आते रहिये इस से मुझे उर्जा मिलती रहती है और अपनी कुछ गलतियों का बी पता चलता रहता है
ReplyDeleteदिनेश पारीक
मेरी नई रचना
कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: माँ की वजह से ही है आपका वजूद: एक विधवा माँ ने अपने बेटे को बहुत मुसीबतें उठाकर पाला। दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। बड़ा होने पर बेटा एक लड़की को दिल दे बैठा। लाख ...
http://vangaydinesh.blogspot.com/2012/03/blog-post_15.html?spref=bl
आपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।
Deleteबहुत ही अच्छा आलेख .... आचार्य जी के बारे में जान कर अच्छा लगा ... ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभारी हूँ .... धन्यवाद ...
ReplyDeleteआपका मेरे पोस्ट पर आकर अभिप्रेरित करना अच्छा लगा । धन्यवाद ।
Deleteबहुत-बहुत शुक्रिया प्रेम सरोवर जी। आपका यह आलेख पुराने लेखकों से अवगत कराता है। लिखते रहिए। इस तरह के लेखों की जरूरत है।
ReplyDeleteअच्छी चर्चा। विस्तार से परिचित हुआ। जारी रखिए।
ReplyDeleteआचार्य चतुरसेन शास्त्री के विषय में गहन जानकारी के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यावाद!....आपने आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी का सहे परिचय यहाँ दिया है!...बहुत अच्छा लगा!
ReplyDeleteमेरे इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
http://arunakapoor.blogspot.in/
bahut hi achhi jankari gayan wardhark post dhanyawad....
ReplyDeleteउपन्यासों में कौन सा रस ज्यादा प्रयोग किया
ReplyDeleteआदरणीय बंधु सादर प्रणाम !
ReplyDeleteपरम श्रद्धेय आचार्य चतुरसेन शास्त्री जी ने हाई स्कूल की परीक्षा दयानंद एंग्लो वर्नाकुलर हाई स्कूल, सिकंदराबाद (बुलंदशहर),उoप्र० से उत्तीर्ण की थी | वर्तमान में इस विद्यालय का नाम मुकुंद स्वरुप इण्टरमीडिएट कॉलेज, सिकंदराबाद (बुलंदशहर) है | इसी विद्यालय ने सर शान्ति स्वरूप भटनागर(वैज्ञानिक एवं भारतीय प्रयोगशालाओं के पितामह), संतोष आनंद(गीतकार), हरिओम पंवार(वीर-रस के कवि) , राम प्रकाश गुप्त(पूर्व मुख्यमंत्री उo प्र० व पूर्व राज्यपाल मध्यप्रदेश) जैसे प्रतिभाशाली सैकड़ों नगीने देश को दिए हैं, जिन्होंने अन्तराष्ट्रीय जगत में भी भारत का नाम रौशन किया है |